जब बचपन हो रहा था विदा दुनिया की नजरों में वह हो रही थी बड़ी अचानक उसके चारों ओर खींच दी गईं दीवारें उसे उठने-बैठने का सलीका सिखाया जाने लगा एक दिन उसे पराए घर जाना है, बात-बात में जताया जाने लगा, वह बौखला उठी मां, क्या यह घर मेरा नहीं है? नहीं बेटी, लड़की तो पराया धन है। कलेजे पर पत्थर रखकर हर मां-बाप बेटी को विदा कर ही देते हैं, फिर वही होता है उसका अपना घर एक दिन सदियों से चली आ रही परम्परा का किया गया निर्वाह गाजे-बाजे के साथ नितांत अजनबियों के बीच वह ढूंढती रही उसका अपना घर उस घर की अलग थीं परम्पराएं निर्वाह में जब-तब कर बैठती कोई गलती पराए घर की बेटी कहकर उसे तिरस्कृत कर दिया जाता आंखों में आंसू भरे वह पूछती अपने-आप से आखिर इतनी बड़ी दुनिया में वह कहाँ खोजे अपना घर, जहां उसकी अस्मिता पर कोई न करे प्रहार सिर उठाकर वह कह सके देखो, देखो यह है मेरा अपना घर।