शनिवार, 20 अप्रैल 2024
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Written By रवींद्र व्यास

छोटी-छोटी ख्वाहिशें हैं कुछ उसके दिल में

गुलज़ार की नज्म दरिया और उस पर बनी कलाकृति

छोटी-छोटी ख्वाहिशें हैं कुछ उसके दिल में -
Ravindra VyasWD
गुलज़ार की शायरी छोटी-छोटी ख्वाहिशों की शायरी है, लेकिन ये ख्वाहिशें उनकी शायरी में कभी किसी बिम्ब या लैंडस्केप के जरिए अभिव्यक्त होती हैं। कभी अपने में बिलकुल अकेली रात के जरिए तो कभी अपने में ही जलते या घुलते चाँद में।

कभी सिमटते हुए किसी कोहरे में तो कभी बुड़बुड़ करते किसी दरिया में। यह उनकी अपनी ईजाद की गई ठेठ गुलजारीय शैली है। इसी शैली की एक बेहतरीन नज्म है-दरिया।

इस नज्म की पहली ही लाइन में गुलज़ार एक ऐसे दरिया का ज़िक्र करते हैं जो छोटी-छोटी ख्वाहिशों के लिए तरसता बहता रहता है। लगता है लंबा वक्त बीत जाने के कारण उसकी ये ख्वाहिशें उसके बड़बड़ाने में बदल गई हैं। अब वह कमजोर हो चला है लेकिन दिल में अब भी पुल पर चढ़ के बहने की ख्वाहिश धड़कती रहती है।

मुँह ही मुँह, कुछ बुड़बुड़ करता, बहता रहता है ये दरिय
छोटी-छोटी ख्वा़हिशें हैं कुछ उसके दिल में-
रेत पर रेंगते-रेंगते सारी उम्र कटी है,
पुल पर चढ़ के बहने की ख्वाहिश है दिल में!

इसके बाद वही गुलजार का जादू है। एक खास मौसम है और उस मौसम का एक खास दृश्य है। एक खूबसूरत लैंडस्केप।

जाड़ों में जब कोहरा उसके पूरे मुँह पर आ जाता है,
और हवा लहरा के उसका चेहरा पोंछ के जाती है-

लेकिन इन दो लाइनों के दिलकश लैंडस्केप के जरिए यह शायर फिर उसकी ख्वाहिशों की ओर लौटता है। जैसे रेत पर रेंगते-रेंगते रहने से वह बेजार हो चुका है, अपनी इस एक रस ज़िंदगी से आज़िज़ आ चुका है और अपने भीतर किसी फाँस की तरह गड़ी ख्वाहिश को पूरी करना चाहता है।

  इन पंक्तियों में ख्वाहिश तो है, स्मृति भी है। बरसों से धड़कती कोई स्मृति। इससे एक रिश्ता बनता है। जाना-अंजाना। किसी पल बन गए रिश्ते में उस लड़की का अक्स देखने की चाहत जिसने फूल और तुलसी उसको पूज के अपना वर माँगा था।      
अपनी पूरी जिंदगी में सिर्फ एक दफ़ा। यह एक दफ़ा पूरी नज्म को मारक बनाता है। एक सादा लफ्ज क्या गजब ढा सकता है, ये गुलज़ार बखूबी बता-जता जाते हैं। गौर फरमाएँ-

ख्वाहिश है कि एक दफ़ा तो
वह भी उसके साथ उड़े और
जंगल से गायब हो जाए!!

यहाँ से नज्म एक नया मोड़ लेती है। एक बेहद ही खूबसूरत और मार्मिक मोड़। इस मोड़ में जिंदगी का एक लम्हा है। इस लम्हे में धड़कती रूह है। यह रूह ही इस जिंदगी को जैसे मानी देती है। जैसे कुछ सहने लायक बनाती है। जैसे कि जीने लायक बनाती है। इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। महसूस कीजिए-

कभी-कभी यूँ भी होता है,
पुल से रेल गुजरती है तो बहता दरिया,
पल के पल बस रुक जाता है-
इतनी-सी उम्मीद लिए-
शायद फिर से देख सके वह, इक दिन उस
लड़की का चेहरा,
जिसने फूल और तुलसी उसको पूज के अपना वर माँगा था-
उस लड़की की सूरत उसने,
अक्स उतारा था जब से, तह में रख ली थी!!

इन पंक्तियों में ख्वाहिश तो है, स्मृति भी है। बरसों से धड़कती कोई स्मृति। इससे एक रिश्ता बनता है। जाना-अंजाना। किसी पल बन गए रिश्ते में उस लड़की का अक्स देखने की चाहत जिसने फूल और तुलसी उसको पूज के अपना वर माँगा था। यहाँ उनकी कविता लोक से जुड़ती है। लोक विश्वास से भी जुड़ती है। परंपरा से भी जुड़ती है।

और हमारा उस रिश्ते से रिश्ता जोड़ती है जो दरिया ने तह करके रख लिया था। उसी का अक्स देखने के लिए वह पुल से गुजरती रेल को देख पल के पल रुक जाता है। यहाँ स्मृति एक कौंध है। इसी कौंध में उस रिश्ते का मर्म हमें बहता दिखाई देता है।

यही इस शायर की खूबी है। वह एक दृश्य से शुरू करता है और हमें किसी जाने-अजाने लेकिन जीवन के किसी धड़कते अर्थ से जोड़ देता है।
ये छोटी-छोटी ख्वाहिशें दरिया से बहती हुई जैसे हमारी ही जिंदगी के किसी दरिया से मिल जाती हैं और हम पाते हैं कि ऐसा ही दरिया, उसकी ऐसी ही छोटी-छोटी ख्वाहिशें हमारे भीतर में ज़िंदा हैं। बरसों से। साँस लेती हुई।

हम शायद उन्हें कई बार सुन नहीं पाते। अनसुनी कर देते हैं। गुलज़ार अपने दरिया से इन ख्वाहिशों को फिर हरा-भरा बनाते हैं। हम उनके इस दरिया में अपना ही अक्स देखते हैं और पाते हैं कि ये ख्वाहिशें हमारी अपनी हैं और हम भी शायद किसी के साथ उड़ जाना चाहते हैं, बह जाना चाहते हैं, किसी पल रुककर उस अक्स को देखना चाहते हैं जिसे हमने पता नहीं कब तह करके रख लिया था।


इस दरिया के जरिए वे हमें अपनी ख्वाहिश का चेहरा दिखाते हैं। इसे देखिए। इसे धड़कता महसूस कीजिए। आप पाएँगे आपके भीतर भी कुछ है, जो पुल पर चढ़के बहना चाहता है।