शुक्रवार, 29 मार्च 2024
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Written By रवींद्र व्यास

वह चुपचाप सिरहाने फूल रख जाता है

पिकासो की विश्वविख्यात पेंटिंग गुएर्निका के बहाने

Manch Apna | वह चुपचाप सिरहाने फूल रख जाता है
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दुनिया के मशहूर चित्रकार पिकासो की गुएर्निका विश्वविख्यात पेंटिंग है। उस पेंटिंग को असल रूप में देखने का सौभाग्य तो इस जनम में नहीं मिलेगा लेकिन मैंने उसके अलग-अलग जगहों पर कुछ फोटो देखे हैं, कुछ प्रतिलिपियाँ देखी हैं।

कहते हैं इसमें स्पेन के गृहयुद्ध को एक नई अभूतपूर्व निगाह से देखा गया है। यह पेंटिंग इतनी ताकतवर है कि इसमें हिंसा के अलग-अलग रूप हैं बल्कि बर्बरता के, फ्रेंको के भी। लेकिन कहीं पढ़ा था कि इस विलक्षण चित्रकार ने पेंटिंग में नीचे एक टूटी तलवार के हत्थे के सामने एक छोटा-सा फूल बना दिया है।

मैं कई बार इस पेंटिंग के फोटो को देख चुका हूँ लेकिन पहली बार जब मेरी नजर उस फूल पर गई तो दंग रह गया। ऐसे हिंसक और बर्बर समय में एक चित्रकार या रचनाधर्मी क्या कर सकता है। यह कतई राजनीतिक पेंटिंग नहीं है बल्कि अपनी मानुषिकी में एक अत्यंत अर्थवान पेंटिंग है।

एक फूल से बर्बर समय के खिलाफ प्रतिरोध पैदा करने की ताकत कैसे पैदा हो सकती है, इसकी नायाब मिसाल है पिकासो की गुएर्निका। रक्तरंजित समय के सिरहाने रखा एक कलाकार का फूल। मुझे नहीं पता दो भिन्न माध्यमों में अपने को, अभिव्यक्त करते इन दो (दूसरे लोर्का ) महान स्पेनिश रचनाकारों के बीच क्या अंतर्संबंध हो सकता है, लेकिन मुझे कई बार लगता है कि लोर्का भी अपने बर्बर समय में लिरिकल होकर ही रक्तरंजित समय के सिरहाने फूल ही रख रहे थे।

इस एक फूल के जरिये ही वे अपने लोगों और नष्ट होती धरती को बचा सकते थे। वही उन्होंने किया। पहल पत्रिका ने बरसों पहले लोर्का की कविताएँ छापी थीं। उन्हें पढ़ें तो लगता है उनके शब्द किसी मिथक की आत्मा के आलोक में नहाकर निकले हैं या फिर अपनी ही मिट्टी में मचल मचल जाते हैं, हम उन शब्दों के चेहरों पर वहाँ की मिट्टी झरती देख सकते हैं।

उन्हें मार दिया गया लेकिन देखो यह कवि की ही ताकत है कि वह सब कुछ झाड़ता-पोंछता फिर फिर अपनी कविताओं में जिंदा होकर हमारे सामने जीवन का उत्स बताता है और जीवन का उत्सव भी मनाता है। कवि यही करता है, जब हम रक्तरंजित समय में घायल होकर कराहते हैं, वह चुपचाप हमारे सिरहाने एक फूल रख जाता है। अपने गीतों का, अपनी कविताओं का, किसी बिम्ब या मिथक का, किसी रंग या स्वप्न का...!