गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By स्मृति आदित्य

गंगा-यमुनी संस्कृति की मधुरता कायम रहे

एक-दूसरे के धर्म को जानिए

Ayodhya Conflict | गंगा-यमुनी संस्कृति की मधुरता कायम रहे
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एक फैसला। एक निर्णय। न्यायालय के एक फैसले के साथ ही क्या हम फिर बँट जाएँगे हिन्दू-मुस्लिम अलग-अलग कौम में। यह एक कुशंका सतह के नीचे डर-डर कर साँस ले रही है। परत-दर-परत मामला संगीन है। हर कोई इस पर बात करना चाहता भी है और हर कोई इस पर कुछ कहने से डरता भी है। सवाल यह नहीं है कि होगा क्या और होना क्या चाहिए। सवाल यह है कि उस पर देश की प्रतिक्रिया क्या होगी?

एक आम जनमानस में इस सारे प्रकरण पर मिलीजुली सुगबुगाहट है। वास्तव में जो जख्म दिसंबर 1992 के दंगे और उसके बाद उपजे भयावह मंजर ने दिए हैं उनके चलते इस बार फैसला देश की अवाम के ही हाथों में है। इस बार परीक्षा भी जनता की है और परिणाम भी वही देगी। संयम और शालीनता हो या स्नेह और सम्मान। उपद्रवी तत्व से सख्ती से निपटना हो या स्वयं पर हर स्थिति में सख्ती रखना। हर हाल में जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन ही परीक्षा की कसौटी पर है। लोकतं‍त्र की यह परिभाषा हर हाल में अपनी गरिमा बनाए रखे, इसे परखने का इससे बड़ा और क्या अवसर होगा।

अब अलग होना मुमकिन नहीं
कोई भी देश उसकी भौगोलिक सीमाओं से बनता है, जमीन, जंगल, नदी, पहाड़ और जलवायु से बनता है मगर एक राष्ट्र तब बनता है जब उसमें रहने वाले लोग प्रतिदिन एक-दूसरे के साथ रहकर एक साथ जीने-रहने और मरने का संकल्प लेते हैं। उनके हर सुख-दुख साझे होते हैं उनके हर सपने साथ में आकार लेते हैं। उनकी राहें चाहे अलग हो लेकिन मंजिल एक ही होती है। शांति, सुकून, प्यार, खुशी और उन्नति की मंजिल। इन सपनों में या इन मंजिलों में हम सब, बस मानव होते हैं। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख‍, ईसाई या कुछ और नहीं।

जब हमें साथ ही रहना है इसी जमीं पर इसी आकाश के नीचे तो साथ की शांति हम अपने ही हाथों से किसी और के कहने पर भंग क्यों करें? कल तक जो हमारा पड़ोसी या मित्र था अचानक किसी मुद्दे के उछलते ही 'संप्रदाय विशेष' का क्यों हो जाता है?एक हिन्दू और एक मुस्लिम अपनी धार्मिक पहचान के अलावा भी एक पहचान रखता है बस इतना ही तो याद रखना है। उसकी एक पहचान व्यवहारगत होगी, एक पहचान रिश्ते से होगी। एक पहचान व्यवसायगत होगी और एक पहचान विचारों से होगी।

हम धार्मिक होना बड़ा अच्छा मानते हैं मगर किसी का, किसी समय विशेष में धर्म के प्रति स्नेह हमें धर्मांधता या कट्टरपन लगने लगता है। बात दोनों धर्मों के लिए हो रही है। इस सच को खुले मन से स्वीकारें कि हमारा अस्तित्व एक-दूजे के बिना अधूरा है। हमें दूसरे धर्म के प्रति पूर्वाग्रहों का त्याग करना होगा, दुराग्रहों से बचना होगा और परस्पर आग्रह को समझना होगा।

कहाँ-कहाँ से किसे निकालोगे? हम तो वस्तुओं का संग्रह करते हैं इंसानों के अलग करने की बात सोच भी कैसे सकते हैं। मुद्दा यही कि फैसला चाहे जो हो छोटी सोच के पोषण से बचें और मन की उदारता को थोड़ा-सा विस्तार दें। यह आजकल का नहीं पीढ़ी-दर-पीढ़ी का साथ है और रहेगा।

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एक-दूसरे के धर्म को जानिए
किसी धर्म के प्रति अपनी परंपरागत सोच को पलने देने से कई गुना बेहतर है कि उस धर्म के अतीत, आदर्श, नैतिकता, ऐतिहासिक साक्ष्य, ग्रंथ और विचारों को अधिक से अधिक अध्ययन करें। मंशा यह नहीं है कि आप उस धर्म के गुणगान गाने लगे और अपने धर्म को भूल जाएँ बल्कि यह खुद के धर्म को समझने का भी सबसे सही नजरिया हो सकता है। यह हमारा सौभाग्य है कि हमें इस गंगा-यमुनी संस्कृति को करीब से देखने और जानने का अवसर मिल रहा है।

हमें इतने धर्मों के आदर्श और दर्शन को समझने का मौका है और हम हैं कि अपने ही कुएँ को अपना सच और अपनी दुनिया मान बैठें हैं। फिर कहती हूँ कि यह बात हर धर्म के हर कट्टर और उदार अनुयायी के लिए है कि इस मिलीजुली संस्कृति को प्यार से सहेजिए इसे इस तरह अपने ही हाथों से नष्ट ना कीजिएगा।

सबक दंगों के बाद के मंजर से लीजिए कि चीख, सन्नाटा, दहशत, आतंक, मौत, खून, कर्फ्यू, पुलिस, सायरन इनसे किसको सुख मिला है? क्या आने वाली पीढ़ी के हिस्से में हम यही छोड़कर जाएँगे?