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महिलाएं 'साइलेंट क्रूसेडर' होती हैं : महाश्वेता देवी

महिलाएं 'साइलेंट क्रूसेडर' होती हैं : महाश्वेता देवी - Mahasweta Devi
महाश्वेता देवी का आलेख

अक्सर जब भी महिलाओं की बात होती है, हम सफलता के तय मानदंडों के आधार पर आकलन करते हैं। हमें मशहूर और सफल रहीं शख्सियतों की याद आती है। सरोजिनी नायडू, इंदिरा गांधी जैसी महिलाओं ने नए मुकाम गढ़े हैं। ऐसी महिलाएं मजबूती और दृढ़ निश्चय की प्रतीक हैं। समाज के लिए महान प्रतीक। मुझे लगता है कि महिलाएं  खामोश क्रांति करती हैं। वे 'साइलेंट क्रूसेडर' होती हैं। 
 
महिलाएं स्वयंसिद्धा हैं। वे दृढ़ निश्चयी और बलिदानी होती हैं! वे समाज-समूह के कल्याण का काम आसानी से कर जाती हैं। चुपके से अपने मिशन में जुटी रहती हैं। मैं अखबारों में समाज को बदलने वाली आम लोगों के बीच से आने वाली कुछ खास महिलाओं के बारे में लिखने की कोशिश करती हूं। वे गुपचुप बदलाव ला रही हैं। वे जो कर रही हैं, उसके एवज में कुछ पाने की आकांक्षा नहीं है। मैं कर्मी सोरेन की बात बताऊं। मेदिनीपुर के एक गांव में अकेली रहती है। 
 
उसके पास छोटी-सी एक जमीन थी, जिस पर वह धान उगाती थी। उसकी रोजी का वही एक साधन था। कर्मी सोरेन ने अपने गांव में जूनियर हाईस्कूल बनाने के लिए अपनी वही जमीन दान कर दी। कहा जाए तो उसने अपनी पूरी संपत्ति दान कर दी। यह उसका बलिदान ही तो है। कर्मी सोरेन जैसों की बात कोई नहीं करता। 
 
उस जैसी महिलाओं के बारे में कोई जानता ही नहीं। कल्याणी में लक्ष्मी ओरांव रहती है। ट्राइबल लड़की है। बड़ा अच्छा काम कर रही है। अकेले दम पर उसने 22 गांवों में लोगों को साक्षर कर दिया है। वह सरकार में नौकरी नहीं करती। उसका जज्बा उसे उसके अभियान से जोड़े हुए है। 
 
बहुत पहले मेरे साथ पुरुलिया में चुन्नी कोटाल नाम की आदिवासी लड़की काम करती थी। शबर जनजाति की वह लड़की। उसने जब मैट्रिक किया, तब उसके समाज का कोई दूसरी-तीसरी से आगे का दर्जा नहीं देख पाया था। उसने पीएचडी की। 92 में वह रिसर्च कर रही थी। लेकिन उसका समाज उसे परंपरा तोड़ने का अपराधी मानने लगा। उसके खिलाफ हो गया। असमय एक प्रतिभा का हनन हो गया। समाज के दबाव के चलते उसने आत्महत्या कर ली। लेकिन अब उसका वही समाज शिक्षा की अहमियत समझने लगा है। उसके समाज में काफी बदलाव है। 
 
चुन्नी कोटाल ने खुद की प्रेरणा से आसमान छू लिया था। उसके उदाहरण से हमें सीखना चाहिए-समाज महिलाओं के दृष्टिकोण को समझे तो सही। यह समाज को देखना चाहिए कि चुन्नी कोटाल जैसी प्रतिभाओं का असमय हनन न हो। 
 
कुछ महान महिलाओं का उदाहरण सामने रखने से ही हमारे कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती। हम जो लोग समाज के लिए सोचते हैं, उन्हें बड़ा काम कर रही आम महिलाओं का योगदान भी याद रखना होगा। मेरे विचार में ऐसी महिलाएं 'साइलेंट क्रूसेडर' हैं। हमें चाहिए कि उन्हें खोजें और उनके योगदान के बारे में समाज को बताएँ। यह सिर्फ कहने की बात नहीं है कि बच्चे को पहली शिक्षा उसके मां और नानी-दादी की गोद में मिलती है। 
 
घर में मां और दादी बच्चे में संस्कार भरती हैं। दादी-नानी की कहानियों, उनके पुचकार में शिक्षा होती है। बच्चे को जीवनशैली का ज्ञान महिलाएं ही कराती हैं। आम महिलाओं की कामयाबी बहुत बड़ी है। महिला दिवस पर ऐसी ही कामयाबियों को देखने का दृष्टिकोण विकसित करनी चाहिए। मैंने देखा है कि जो महिलाएं घरों में बर्तन मांजने का काम करती हैं, वे भी दो पैसा बचाकर अपने बच्चों को पढ़ा रही हैं। पढ़ाई से खुद वंचित रह जाने का उन्हें मलाल है। वे चाहती हैं कि उनके बच्चों को यह मलाल न रहे। शिक्षा से समाज को बदला जा सकता है। महिलाएँ शिक्षा से जुड़ती हैं तो आपकी पीढ़ियों को लाभ होता है। 
 
मैं कई प्रदेशों में गई हूं। 14-14 मील पैदल चली हूं। समाज को समझने की कोशिश की है। खासकर आदिवासियों के समाज को। मैंने देखा है कि अक्सर महिलाओं ने ही सामाजिक बुराई खत्म करने की दिशा में पहल की है। मैंने पुरुलिया के आदिवासी शबर समुदाय के बीच 30 साल तक काम किया है। पहले उस समुदाय में डायन बताकर जुल्म ज्यादा होते थे। 
 
डायन के नाम पर बुजुर्ग महिलाओं पर अत्याचार ज्यादा होते थे। इसके पीछे लोगों का निजी स्वार्थ भी हुआ करता था। अंधविश्वास के चलते डायन का डर भी हावी रहता था। लेकिन जब से इस समुदाय की औरतों के बीच शिक्षा का प्रसार हुआ, लोगों में से कुरीतियों का डर निकलने लगा।