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Written By स्मृति आदित्य

हरिद्वार की प्रामाणिक गाथा

मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ

Book review | हरिद्वार की प्रामाणिक गाथा
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हरिद्वार एक पवित्र तीर्थस्थली है। इस नगरी की चित्रात्मक आत्मकथा है-'मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ'। डॉ. कमलकांत बुधकर का यह एक पावन स्तुत्य प्रयास है। खूबसूरत आवरण के साथ पुस्तक जब हाथों में खुलती है तो मनभावन चित्ताकर्षक पृष्ठों के साथ मन को उसी तरह बाँध लेती है जैसे गंगा की उद्दाम लहरों में किसी भक्त का मन श्रद्धा से आपुरित होकर बंध गया हो।

एक-एक पृष्ठ को इस मनोयोग से सँवारा और सजाया गया है कि पुण्य नगरी का हर कोना आँखों के सामने थिरक उठता है। पुस्तक को जिस आत्मकथ्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है वह शैली नई तो नहीं मगर भाषागत सौन्दर्य के कारण ललित अवश्य लगती है।

विशिष्ट प्रामाणिक तथ्यों एवं ऐतिहासिक चित्रों को संजोकर तैयार की गई इस पुस्तक को ना सिर्फ धर्मप्रेमी वरन युवा शोधकर्ता, कलाकार, छायाचित्रकार, जिज्ञासु पर्यटक और शौकीन घुमक्कड़ भी सहेज कर रखना चाहेंगे। पिछले दिनों संपन्न हुए कुंभ के दौरान इस अनूठे दस्तावेज का प्रकाशन हुआ और यही वजह है कि इसका महत्व अगले कई कुंभ महापर्व के लिए सुनिश्चित हो गया है।

पुस्तक में हरिद्वार के कुंभ की सदियों पुरानी गाथा को चित्रमय प्रस्तुत किया गया है। लेखक की असीम लगन और अथक प्रयास पुस्तक की बेहतरीन प्रस्तुति में स्पष्ट नजर आता है। विशेषकर चित्रों के संयोजन में लेखक ने अपनी कलात्मक रूचि और गहन रचनात्मकता का बखूबी परिचय दिया है।

हरिद्वार जब अपनी कहानी प्रथम शीर्षक 'मेरी वाणी कल्याणी है' के माध्यम से कहता है तो लगता है कहीं से आकाशवाणी हो रही है और हम स्तब्ध से बस सुन रहे हैं। बीच में खूबसूरत पेंटिंग्स और पुरातन लाल-भूरे चित्र मानों उस आकाशवाणी के समर्थन में खड़े मौन ऋषि-मुनि हैं। पन्नों पर सजे वैदिक ऋचाएँ, मंत्र और श्लोक पाठक के समक्ष सुगंधित पावन वातावरण उपस्थित कर देते हैं।

दूसरे शीर्षक'गंगा है मेरी पहचान' में कलकल-छलछल करती गंगा की शीतल लहरें शब्दों पर सवार होकर कुछ यूँ आलोड़‍ित होती है कि रोम-रोम को तरंगित कर जाती है। गंगा की स्तुति में पुराणों में वर्णित मंत्रों और ऋषि-मुनि द्वारा उच्चारित पवित्र वाणियों को शब्दबद्ध किया है। यहाँ गंगा के जलरंगों से निर्मित सजीव चित्रों को सजाया गया है। साथ में चित्रकार का नाम भी है, सन् भी और सौजन्य भी।

पवित्र धार्मिक प्रतीक चिन्हों (जैसे शंख, घंटे, चरण, हल्दी, कुंकुम और संत-समागम) के साथ हर भाग का आरंभ करना लेखक की विलक्षण कल्पनाशीलता का उदाहरण है। 'गरिमामय अतीत का दर्पण', 'कुंभ है विकास की पौड़ी', 'संत महंतों की मंजिल मैं', 'तीरथ का मतलब है पण्डा', 'रूप बदलती हर की पौड़ी' तथा 'इनसे रोशन है मेरा नाम' जैसे शीर्षकों के साथ हरिद्वार अपनी गाथा किसी चलचित्र की भाँति अनवरत सुनाता और दिखाता चलता है।

हर शीर्षक यह बताने में सक्षम है कि उसमें निहित विषयवस्तु क्या होगी। हरिद्वार जो नहीं गए वे इसे देख-पढ़कर लालायित हो सकते हैं, और जो हरिद्वार के दर्शन लाभ ले चुके हैं वह इस पुस्तक के माध्यम से पुन: गंगा स्नान और नगरी का सौन्दर्य लाभ ले सकते हैं। जिन्हें इन सबसे अलग ऐतिहासिक तथ्यों में दिलचस्पी है वे इसे पाकर धन्य हो सकते हैं। एक अदभुत संग्रहणीय दस्तावेज है'मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ'।

पुस्तक : मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ
लेखक : डॉ. कमलकांत बुधकर
प्रकाशक : हिन्दी साहित्य निकेतन
मूल्य : 395 रुपए