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Written By विशाल डाकोलिया

ये होता है अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना

ये होता है अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना -
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नरेंद्र मोदी को सावधान होना होगा। पिछले कुछ दिनों की गतिविधियों से लग रहा है कि आडवाणी और उनके विश्वस्त सिपहसालार नरेंद्र मोदी को सेबोटाज़ करने में जुट गए हैं। छोटे-छोटे अंतर्कलह और विवाद, कई स्थानों पर कमजोर उम्मीदवार, पार्टी के प्रमुख नेताओं की निष्क्रियता, दागियों को पार्टी की सदस्यता आदि घड़े में छोटे-छोटे छेद कर रिसाव की तैयारी लग रहे हैं।

मोदी, राजनाथ, जेटली और संघ को त्वरित कार्रवाई करनी होगी अन्यथा भारत की जनता के हाथ से एक और सुनहरा अवसर छिन जाएगा। किसी की निजी महत्वाकांक्षा का प्रतिफल अगले बीस सालों तक हिंदुस्तान की जनता भोगेगी। एक-एक गलती एक-एक सीट के लिए भारी पड़ सकती है। क्या खूब होता अगर पार्टी का वरिष्ठ नेता पद की लालसा छोड़ इस समय चुनाव में एकजुट होकर मोदी सरकार गठन के लिए काम करते। जीतने पर क्या सरकार अकेले नरेंद्र मोदी की बनेगी? भाजपा और सहयोग देने वाले सभी लोग ही तो महत्वपूर्ण पदों पर आसीन होंगे। तब फिर भीतरघात क्यों?

भीतरघात करने वाले आज खुश हो लें पर यह भी ताकीद कर लें कि 2014 में भाजपा की सरकार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में न बन सकी तो फिर कांग्रेस कभी भाजपा को सत्ता में नहीं आने देगी। दूसरा अगर भाजपा यथोचित सीटें न ला सकी तो फिर दिल्ली के सिंहासन पर बंदरबांट होगी, कोई नौसिखिया, कांग्रेस का खरीदा भाड़े का मुलाजिम सिंहासन पर काबिज होगा।

जब तक कांग्रेस चाहेगी कठपुतली राज करेगी और फिर मध्यावधि चुनाव। इसका मतलब होगा अपने पैरों पे कुल्हाड़ी मारना। एक बार फिर जनता के खून-पसीने की कमाई के पैसों से फिर चुनाव होंगे। नेता फिर अमीर होंगे, गरीब और गरीब होंगे। जो पैसा भारत की जनता के भविष्य को संवारने में लगना चाहिए वह दोबारा चुनावों के ज्वालामुखी की भेंट चढ़ जाएगा।

जनता याद रखे, सुनहरे मौके बार-बार नहीं आते, परिवर्तन की जमीन और परिवर्तन के नुमाइंदे बार-बार नहीं आते। इतिहास गवाह है, परिवर्तन करने वाले को, वर्षों से जमी धुंध हटाने वाले को विरोध तो सहना ही पड़ा है परंतु विरोध की यह अति कहीं उन्माद में बदलते-बदलते अवसर को खा गई तो हाथ मलने के सिवा कुछ नहीं बचेगा।

या तो अपने देश को ऐसा बनाओ जहां किसी नेता, राजा या चेहरे की हमें जरूरत न हो या फिर जो दृढ़ इच्छाशक्ति हमें दिखाई दे रही है उसका समर्थन करो। बिखरा हुआ देश, जनमत और लड्‍डू किसी की तृप्ति का कारण नहीं बन सकता। अगर ऐसा नहीं कर सकते तो फिर मनमोहन सिंह की आलोचना करना बंद कर दें क्योंकि दृढ़ इच्छाशक्ति और मजबूत नेतृत्व हमें मंजूर नहीं और ऐसे में तो फिर कोई मनमोहनजी या भगोड़े ही मिलेंगे।

देश टीवी की रंगबिरंगी चमकती दीवारों पर टंगा मफलर नहीं, देश तो उस मेहनतकश किसान के पसीने की चमक है, मजदूर की मजदूरी है, देश उद्यम के असीम पनघटों में है, देश हर एक नागरिक को स्वावलंबी बनाने में है, देश अपने बेटों को विदेश भागने से बचाने में है। अगर चाहते हैं कि हर नागरिक गरीबी के पोलियो से मुक्त हो, देश की सम्पदा से लाभांवित हो तो इस अवसर को मत जाने दो, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मत मारो।