मंगलवार, 23 अप्रैल 2024
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Written By WD

‘क्या गुजरात के अच्छे दिनों की कीमत मप्र के बुरे दिन हैं?’

- प्रियंका कौशल

‘क्या गुजरात के अच्छे दिनों की कीमत मप्र के बुरे दिन हैं?’ -
सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने के फैसले के बाद इस सवाल का जवाब हां की ओर झुका हुआ लगता है।

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गंगा नदी से शुरू हुआ विजय अभियान अब नर्मदा तक आ चुका है। अब वे देश की पांचवीं सबसे बड़ी नदी नर्मदा के सहारे अपने ही गढ़ गुजरात के नायक तो बन ही रहे हैं साथ महाराष्ट्र और राजस्थान को भी साधने की कोशिश रहे हैं। इस बात की पूरी संभावना है कि प्रधानमंत्री की यह कोशिश उनके लिए ‘अच्छे दिनों’ की बुनियाद बन जाए। लेकिन इसी के साथ यह तय है कि इन अच्छे दिनों की कीमत मध्यप्रदेश को अपनी 20,882, हेक्टेयर उपजाऊ जमीन और तकरीबन 45,000 हजार परिवारों के विस्थापन के साथ चुकानी होगी। पर्यावरण को जो अपूरणीय क्षति होगी सो अलग।

हाल ही में 12 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण (एनसीए) की एक बैठक हुई थी। इसी में गुजरात के केवड़िया स्थित सरदार सरोवर बांध पर 17 मीटर ऊंचे गेट लगाकर बांध की ऊंचाई 121.92 से 138.38 मीटर करने को मंजूरी दी गई है। इससे पहले यह मामला पिछले कई वर्षों से लंबित था। अब 2017 तक करीब 270 करोड़ रुपये की लागत से बांध पर 30 गेट लगेंगे। इसके बाद बांध की संग्रहण क्षमता 90 लाख घन फुट बढ़ जाएगी।

सरकार के इस फैसले पर कई बुनियादी सवाल उठाए जा रहे हैं। मसलन क्या वाकई सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने की जरूरत है? इससे किन लोगों को फायदा पहुंचेगा? सरदार सरोवर बांध किस राज्य के सौभाग्य के दरवाजे खोलेगा और किसके लिए बदहाली लाएगा? इन सब सवालों के जवाब जानने के लिए पहले सरदार सरोवर परियोजना, नर्मदा घाटी, राज्य सरकारों की मंशा और इससे जुड़े राजनीतिक नफा-नुकसान को समझना जरूरी है।

सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड की वेबसाइट के मुताबिक यह बांध अमेरिका के ग्रांड काउली के बाद दूसरा सबसे बड़ा कांक्रीट ग्रेविटी डैम (कांक्रीट से बना ऐसा बांध जो बहुत तेज बहाव और अधिक मात्रा में पानी रोक सकता है) है। वहीं यह दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा निर्वहन क्षमता (संग्रहण क्षमता) वाला बांध है। इसकी जलसंग्रहण क्षमता 5860 एमसीएम (मिलियन घन मीटर; एक मिलियन = दस लाख) है, जो 4.75 लाख एकड़ फुट (एक एकड़ के क्षेत्र में एक फुट ऊंचाई तक पानी = एक एकड़ फुट ) के बराबर है।

बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने की अनुमति मिलते ही गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने ट्वीट कर कहा था, ‘अच्छे दिन आ गए।’ लेकिन हकीकत इससे कुछ अलग है। दरअसल यह केवल गुजरात के अच्छे दिनों की शुरुआत है। मध्यप्रदेश के करीब ढाई लाख विस्थापितों, सैंकड़ों स्कूलों, मंदिरों-मस्जिदों, हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन की कीमत पर गुजरात के अच्छे दिन लाए जा रहे हैं। इन बातों के विश्लेषण से पहले यह समझना महत्वपूर्ण है इस फैसले से गुजरात को क्या फायदा पहुंचेगा। असल में नर्मदा के दायरे में आने वाले गुजरात का 75 फीसदी इलाका संभावित सूखा प्रभावित क्षेत्र माना जाता है। बांध की ऊंचाई बढ़ने से गुजरात में नर्मदा के जल की उपलब्धता बढ़ेगी, इससे ये इलाके संभावित सूखा प्रभावित की श्रेणी से बाहर निकल आएंगे। सिंचाई के मामले में भी सबसे ज्यादा फायदा गुजरात को ही होना है। नर्मदा बांध के जरिए गुजरात की 18.45 लाख हैक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध हो सकेगा। इससे प्रदेश के 15 जिलों की 73 तहसीलों के 3112 गांवों को सिंचाई के लिए पानी मिलेगा। यह बांध भरूच के 210 गांवों को बाढ़ के खतरे से मुक्ति दिलाएगा। वहीं इसका पानी सौराष्ट्र की तस्वीर बदल देगा। सरदार सरोवर बांध का पानी सौराष्ट्र के 115 छोटे बांधों और जलाशयों में पहुंचेगा। औसत से भी कम वर्षा वाले सौराष्ट्र में साल भर बनी रहने वाली पानी की समस्या खत्म हो जाएगी। गुजरात के 151 शहरी और 9,633 गांवों (जो कि गुजरात के कुल 18,144 गांवों का 53 प्रतिशत है) को पीने का पानी उपलब्ध होगा। बांध से पैदा होने वाली 1,450 मेगावॉट बिजली में से 16 फीसदी बिजली भी गुजरात को मिलेगी। यानी गुजरात की चांदी ही चांदी। इसके ठीक उलट मध्यप्रदेश को सिवाय 877 मेगावॉट बिजली के कुछ नहीं मिलेगा। यह सही है कि मध्यप्रदेश बिजली संकट से जूझ रहा है। उसे अतिरिक्त बिजली की जरूरत है। लेकिन प्रदेश में सूखाग्रस्त इलाकों, सिंचाई के पानी की कमी, पेयजल समस्या भी विद्यमान है। इस परियोजना में मध्य प्रदेश के सूखाग्रस्त इलाकों की पूरी तरह अनदेखी की गई है। सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड की वेबसाइट में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि मध्यप्रदेश को सिंचाई के लिए कितना पानी मिलेगा। जबकि पूरी परियोजना ही प्रदेश के विस्थापितों की कीमत पर खड़ी हो रही है।

अब जानते हैं कि सरदार सरोवर बांध परियोजना से मध्यप्रदेश को क्या नुकसान है। मध्यप्रदेश के एक कस्बे धरमपुरी (जिला धार) समेत 193 गांव जलमग्न होने की कगार पर हैं। सूबे की करीब 20,882 हेक्टेयर जमीन डूब क्षेत्र में आ रही है। 2001 की जनगणना के मुताबिक तीनों राज्यों के 51,000 परिवारों को प्रभावित माना गया था, जिनकी संख्या 2011 की जनगणना में बढ़कर 63,000 हजार हो गई है। इनमें अकेले मध्यप्रदेश से 45,000 हजार परिवार हैं। इन परिवारों में अधिकांश आदिवासी, छोटे-मझोले किसान, दुकानदार, मछुआरे, कुम्हार हैं, जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करते हैं।

वैसे बांध ऊंचाई बढ़ाने पर एक तकनीकी पेंच भी है। बांध की ऊंचाई बढ़ाने से जुड़े एक मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साल 2000 में कहा था कि निर्माण के पहले सभी विस्थापितों का उचित पुनर्वास होना चाहिए।  लेकिन यह अभी तक संभव नहीं हो पाया है। मध्यप्रदेश के लिए चिंता की एक बात यह भी है कि नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण के दिसंबर 1979 के पारित निर्णय के मुताबिक वर्ष 2024 तक प्रदेश को 29 बड़े, 135 मध्यम और तीन हजार छोटी सिंचाई परियोजनाएं पूरी करनी हैं। यदि प्रदेश निर्धारित अवधि में अपने हिस्से के नर्मदा जल का उपयोग नहीं कर पाया तो उसे जल उपयोग के इस अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा। मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अरुण यादव बताते हैं, ‘मध्यप्रदेश सरकार नर्मदा सिंचाई परियोजनाओं को लेकर बिलकुल गंभीर नहीं है। अभी तक केवल 10 बड़ी परियोजनाएं पूरी हुई हैं। दो पर काम चल रहा है, जबकि 17 पर काम शुरू ही नहीं हो पाया है।’
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जिस गुजरात को परियोजना से सबसे ज्यादा फायदा मिलने वाला है, उसके केवल 19 गांव डूब क्षेत्र में आ रहे हैं। कुल 9,000 हेक्टेयर जमीन प्रभावित हो रही है। जबकि महाराष्ट्र के 22 गांव और करीब 9,500 हेक्टेयर वन भूमि परियोजना से प्रभावित हो रही है। परियोजना का लंबे समय से विरोध कर रही नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं का आरोप है कि केवल 30 परिवारों को पुर्नवास के लिए जमीन मिल पाई है जबकि करीब 3,000 परिवारों को जमीन देने की प्रक्रिया भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई। इन परिवारों को हक से वंचित करने के लिए फर्जी रजिस्ट्रियों का सहारा लिया गया। नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं का यह भी आरोप है कि सरकारी अफसरों ने दलालों के साथ मिलकर हजारों फर्जी रजिस्ट्रियां कर डालीं। इन आरोपों की जांच के लिए 2008 में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने जस्टिस एसएस झा आयोग का गठन किया। आयोग की जांच अभी जारी है। आयोग जिन बिंदुओं पर जांच कर रहा है उनमें फर्जी रजिस्ट्रियों की जांच की जा रही है। जिन परिवारों को अभी तक जमीन नहीं मिली है आयोग उस पर भी तथ्य इकट्ठे कर रहा है। साथ ही आजीविका शुरू करने के लिए दी गई राशि में भी हुए भ्रष्टाचार और पुनर्वास क्षेत्रों के स्तरहीन निर्माण कार्यों और अधिक खर्च कर दी गई राशि जैसे बिंदु भी जांच में शामिल हैं। आयोग की रिपोर्ट अक्टूबर, 2014 तक आने की संभावना है।

ऊंचाई 260 से 455 फीट तक पहुंचने का सफ

* फरवरी 1999 में सुप्रीम कोर्ट ने बांध की ऊंचाई 80 मीटर (260 फुट) से 88 मीटर (289 फुट) करने की अनुमति दी
* अक्टूबर 2000 में फिर से सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को ऊंचाई 90 मीटर (300) करने की अनुमति
* मई 2002 में नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण ने बांध की ऊंचाई 95 मीटर (312 फुट) करने के प्रस्ताव को अनुमोदित किया।
* मार्च 2004 में प्राधिकरण ने ऊंचाई 110 मीटर (360 फुट) करने की अनुमति दी।
* मार्च 2006 में प्राधिकरण ने बांध की ऊंचाई 110.64 मीटर (363 फीट) से 121.92 (400 फुट) करने की अनुमति दी। प्राधिकरण द्वारा ये अनुमति वर्ष 2003 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा बांध की ऊंचाई और बढ़ाने की अनुमति देने से इंकार करने के बाद दी गई थी।
* जून 2014 में प्राधिकरण ने ऊंचाई 455 फुट (138 मीटर) करने की अनुमति दी।

मध्यप्रदेश के पूर्व सिंचाई मंत्री डॉ रामचंद्र सिंहदेव कहते हैं कि सरदार सरोवर बांध समेत नर्मदा घाटी में जितनी भी परियोजनाओं पर काम हो रहा है, ये सभी गलत आंकड़ों पर आधारित हैं। वे बताते हैं, ‘जिस वक्त नर्मदा घाटी में नई परियोजनाओं की शुरुआत की गई, उस वक्त लिए गए आंकड़े अंग्रेजों द्वारा पुरानी पद्धति से संग्रहित किए गए थे। ब्रिटिश हुकुमत बारिश के पानी (रेन वॉटर गेज) के आधार पर नदियों में उपलब्ध जल के आंकड़े इकट्ठे करती थी। उनके मुताबिक नर्मदा में 27 एमएएफ (मिलियन एकड़ फुट) पानी था। जबकि बाद में नई पद्धति (रिवर गेजिंग स्टेशन) से आए आंकड़े बताते हैं कि नर्मदा में केवल 23.7 एमएएफ पानी है यानी जो भी परियोजनाएं बनाई गई, उनका आधार ही गलत था। मध्यप्रदेश सरकार ने कई बार नर्मदा के पानी की उपलब्धता को लेकर सवाल उठाए, लेकिन हमारी कभी नहीं सुनी गई। दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि पूरी नर्मदा घाटी भूंकप प्रभावित है। बड़े बांध बनने से यह खतरा कई गुना बढ़ गया है।

नया नहीं है विवाद : नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध परियोजना की अधिकारिक घोषणा 1960 में हुई थी और 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसकी आधारशिला रखी। तभी से यह परियोजना विवादों में फंसी हुई है। शुरुआती कई सालों तक तो परियोजना से जुड़े हुए तीनों राज्यों (मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र) में जल बंटवारे को लेकर आपसी सहमति नहीं बन पाने से परियोजना अटकी रही। 1979 में यह मामला नर्मदा जल विवाद प्राधिकरण में पहुंचा जहां तीनों राज्यों में सहमति बनी और1990 के दशक में विश्व बैंक ने परियोजना के लिए ऋण देने का फैसला लिया। लेकिन डूब प्रभावित लोगों ने नर्मदा बचाओ आंदोलन के तहत परियोजना का विरोध करना शुरू कर दिया। 1991-1994 में पहली बार विश्व बैंक ने किसी परियोजना की समीक्षा करने के लिए अपनी एक उच्च स्तरीय समिति बनाई। जिसने अपनी पड़ताल में यह पाया कि परियोजना से होने वाली पर्यावरणीय क्षति की पूर्ति नहीं की जा सकती इसलिए उसने परियोजना को वित्त उपलब्ध कराने से इनकार कर दिया।

इधर नर्मदा बचाओ आंदोलन के समर्थकों ने सुप्रीम कोर्ट में निर्माण रोकने के लिए जनहित याचिका लगा दी। वर्ष 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर फैसला देते हुए कहा कि बांध उतना ही बनाया जाना चाहिए, जहां तक लोगों का पुर्नस्थापन और पुनर्वास हो चुका है। परियोजना का विरोध कर रहा नर्मदा बचाओ आंदोलन शुरू से ही आरोप लगा रहा है कि ना तो परियोजना में पर्यावरणीय क्षति का ध्यान रखा गया ना ही विस्थापितों को उचित पुनर्वास मिल पा रहा है। अब फिर बांध की ऊंचाई बढ़ाई जा रही है, और एक बार फिर परियोजना विवादों में आ गई है। मध्य प्रदेश के धार, बड़वानी, निमाड़ के कई इलाके और झाबुआ के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थानीय रहवासी सड़कों पर उतरकर बांध की ऊंचाई बढ़ाने का विरोध कर रहे हैं।

सरदार पटेल की प्रतिमा से शुरू हो चुकी थी भूमिका
लोकसभा चुनाव के ठीक पहले सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा की स्थापना को लेकर पूरे देश में रन फॉर यूनिटी जैसे कार्यक्रम आयोजित किए गए थे। इसकी स्थापना उसी केवड़िया में होनी है जहां सरदार सरोवर बांध बना है। राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि प्रतिमा का एक उद्देश्य सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने की अपनी पुरानी मांग को मजबूत करना भी था। सरदार सरोवर बांध को बल्लभ भाई पटेल का सपना बताकर पूरे देश में एक माहौल बनाया जा रहा था। गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में गठित सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय एकता ट्रस्ट ने परियोजना के बारे में अपनी वेबसाइट पर जो अधिकारिक जानकारी मुहैया कराई है, उसके मुताबिक यह प्रतिमा तकनीकी तौर पर एक 182 मीटर (597 फुट) ऊंची इमारत होगी। इसे स्थापित करने में 2500 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत आएगी। जिसके अंदर से सरदार सरोवर का विस्तृत नजारा देखा जा सकेगा। अमेरिका की टर्नर कंस्ट्रक्शन कंपनी इसका निर्माण कर रही है। वहीं मीन हार्ट्ज और माइकल ग्रेव्ज एंड एसोसिएट्स डिजाइन व आर्किटेक्ट फर्म है। इस प्रतिमा को ‘एकता की प्रतिमा’ कहा गया है। नरेंद्र मोदी स्टेच्यू ऑफ यूनिटी की स्थापना के साथ ही सरदार सरोवर बांध से भरूच के समुद्री तट तक नर्मदा के दोनों किनारों पर कैनाल टूरिज्म के तौर पर अंतरराष्ट्रीय स्तर का पर्यटन स्थल विकसित करना चाहते हैं।
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मध्यप्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया कहते हैं, ‘असल में नरेंद्र मोदी सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने के लिए सरदार पटेल के व्यक्तित्व का दोहन कर रहे थे। उन्होंने एक तीर से दो निशाने साधे हैं, पहला तो गुजरात की मांग पूरी करने का, दूसरा वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के राजनीतिक कद की भी छंटाई करना चाहते हैं, ताकि वे अपने ही प्रदेश में कमजोर साबित हो जाएं।’

राजनीति का बांध :
सरदार सरोवर बांध से कई राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी जुड़ी हुई हैं। बांध की ऊंचाई बढ़ने से जहां नरेंद्र मोदी और उनके गुजरात को कई लाभ हैं। वहीं मध्य प्रदेश की राजनीति के तीन सितारों (शिवराजसिंह, उमा भारती और थावरचंद गहलोत) को इस बांध की ऊंचाई में डूबने का खतरा पैदा हो गया है। सबसे पहले मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की बात करें तो वे इस मुद्दे पर बोलने से बचते रहे हैं। जिस वक्त बांध की ऊंचाई बढ़ाने का फैसला हुआ, वे दक्षिण अफ्रीका में मध्यप्रदेश में उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए नए निवेशक तलाश कर रहे थे। शिवराज ने विदेश यात्रा के दौरान ही ट्वीट कर मोदी के फैसले का स्वागत किया। उन्होंने यह भी ट्वीट किया, ‘हमें शून्य लागत पर बिजली मिलेगी।’ लेकिन वे जैसे ही भोपाल पहुंचे तो मीडिया के सामने नए तेवर में नजर आए। पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि विस्थापितों के साथ अन्याय नहीं होने दिया जाएगा और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का ध्यान रखा जाएगा। यह बयान देते वक्त वे भूल गए कि पहले ही ट्‍विटर पर कह चुके हैं, ‘2008 में ही विस्थापितों को मुआवजा बांट दिया गया। अब तत्काल कोई क्षेत्र डूब से प्रभावित नहीं होने वाला।’ सरदार सरोवर बांध पर विरोधाभासी बयान देने वाले शिवराजसिंह चौहान भूल गए कि आने वाले दिनों में यही मुद्दा उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं में सबसे बड़ा रोड़ा बनेगा। दूसरे स्थान पर केंद्रीय जलसंसाधन मंत्री उमा भारती का नाम आता है। मूलतः मध्यप्रदेश की रहने वाली उमा भारती अच्छी तरह जानती होंगी कि सूबे में पुर्नवास की स्थिति क्या है। इसके बावजूद भी उन्होंने अपने बयान में कहा, ‘विस्थापितों को ध्यान में रखकर दिए गए सुझावों के बाद सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने की मंजूरी दी गई है। सामाजिक न्याय मंत्रालय विस्थापितों के लिए उठाए गए कदमों से संतुष्ट है।’ केंद्रीय जल संसाधन मंत्री रहते हुए उमा का बांध की ऊंचाई बढ़ाने का समर्थन करना उनकी स्थिति को आने वाले दिनों में कमजोर करेगा। जिस परियोजना से मध्यप्रदेश को सिवाय नुकसान के कुछ नहीं मिल रहा है, उसका समर्थन कर उमा ने अपने विरोधियों को एक नया मुद्दा दे दिया है। चूंकि सरदार सरोवर बांध की पूरी कहानी सामाजिक न्याय मंत्रालय का हवाला देकर लिखी जा रही है, ऐसे में प्रदेश की राजनीति से राज्यसभा सांसद के रूप में केंद्र में पहुंचे केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गहलोत के लिए भी यह अच्छे दिनों की शुरुआत तो कतई नहीं मानी जा सकती। गहलोत भी मध्यप्रदेश से हैं। वे 1990-92 में प्रदेश के सिंचाई, नर्मदा घाटी विकास विभाग के मंत्री रह चुके हैं यानी यह माना जा सकता है विस्थापितों के दर्द को उन्होंने करीब से देखा और समझा होगा। लेकिन उनके ही मंत्रालय को ढाल बनाकर सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाई जा रही है। ऐसे में मध्य प्रदेश में विस्थापन के लिए वे भी उतने ही दोषी माने जाएंगे जितने कि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और उमा भारती। आने वाले समय में मध्य प्रदेश में तीनों को ही बांध की ऊंचाई का समर्थन करना राजनीतिक रूप से बहुत मंहगा पड़ सकता है।

मध्य प्रदेश की राजनीति के तीन सितारों (शिवराज सिंह, उमा भारती और थावरचंद गहलोत) को इस बांध की राजनीति से ज्यादा नुकसान हो सकता है।

‘बांध की ऊंचाई बढ़ाया जाना सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन है
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सरदार सरोवर परियोजना में विस्थापितों की पूरी तरह अनदेखी की गई है। गुजरात सरकार ने अभी तक नहरों का काम ही पूरा नहीं किया है, फिर उसे और केंद्र सरकार को सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने की जल्दी क्यों है। यह समझ नहीं आता। पिछले 30 सालों में नहरों का काम 30 फीसदी भी पूरा नहीं हो पाया है। बांध की ऊंचाई बढ़ने से गुजरात के कच्छ और सौराष्ट्र को इसका तत्काल कोई लाभ नहीं मिलेगा। इन इलाकों में सिंचाई के लिए पानी तब ही मिल पाएगा, जब नहरों का काम पूरा होगा। सबसे गौर करने वाली बात यह भी है कि किसान गुजरात सरकार को अपनी जमीन तक नहीं देना चाहते, तो फिर नहरें बनेंगी कहां पर। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि जहां तक पुर्नवास हुआ हो, वहीं तक काम को आगे बढ़ाया जाना है, लेकिन किसी भी प्रभावित प्रदेश में पुनर्वास हुआ ही नहीं है तो फिर बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाना न्यायालय की अवमानना के तहत आता है। आप सोचिए कि योजना आयोग ने 2012 में परियोजना की अनुमानित लागत 70 हजार करोड़ रुपये बताई थी। इसपर अब तक 63 हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं और यह खर्च 90 हजार करोड़ रुपये तक जाने की उम्मीद है। हमने परियोजना से जुड़े तथ्यों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र भी लिखा है। यह लाखों लोगों के जीवन का प्रश्न है। इस पर सरकार को जवाब देना ही होगा। जैसे ही गेट लगाने की कार्रवाई शुरु होगी, वैसे वैसे बैक वॉटर के कारण पानी का स्तर बढ़ेगा। इसके परिणामस्वरूप अभी तक जो बस्तियां डूब क्षेत्र में चिन्हित हुई हैं। वहां पानी भर जाएगा। बारिश में यह स्थिति और भी ज्यादा चिंताजनक होगी।

मोदी को फायदा ही फायदा
बांध की ऊंचाई बढ़ने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राजनीतिक फायदा तीन गुना हो जाएगा। पहला तो यह कि गुजरात में उन्होंने साबित कर दिया कि वे अपने प्रदेश के कितने बड़े हितैषी हैं। खुद नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए लंबे समय से बांध की ऊंचाई बढ़ाने की मांग कर रहे थे। 2006 में उन्होंने 51 घंटे का उपवास भी रखा था। प्रधानमंत्री बनते ही सबसे पहले उन्होंने गुजरात के हित में फैसला लेते हुए सरदार सरोवर बांध में 17 मीटर ऊंचे दरवाजे लगाने की अनुमति दे दी। इससे गुजरात में उनका कद और बढ़ गया। गुजरात में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही खुलकर उनके निर्णय का स्वागत कर रही हैं। सरदार सरोवर बांध के द्वारा उन्होंने महाराष्ट्र और राजस्थान को साधने की भी कोशिश की है। महाराष्ट्र में कुछ समय बाद विधानसभा चुनाव होने हैं। सरदार सरोवर परियोजना से महाराष्ट्र को भी फायदा होना है। यहां पैदा होने वाली 1,450 मेगावॉट बिजली में से 27 फीसदी बिजली महाराष्ट्र को मिलेगी। महाराष्ट्र के पहाड़ी इलाकों की 37 हजार पांच सौ हैक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए जल उपलब्ध हो जाएगा।

बांध की ऊंचाई बढ़ने से राजस्थान को अच्छे दबाव से पानी मिल सकेगा, इससे वहां के रेगिस्तानी जिले बाड़मेर और जालौर की दो लाख 46 हजार हैक्टेयर भूमि की सिंचाई हो सकेगी। इसके अलावा राजस्थान के तीन शहरों और 1336 गांवों के चार करोड़ लोगों को पेयजल भी उपलब्ध हो सकेगा। अपने इस फैसले मोदी गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र में हीरो के रूप में उभरेंगे।

नर्मदा घाटी से जुड़े कुछ तथ्य
* जुलाई 1993 टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस ने सात वर्षों के अध्ययन के बाद नर्मदा घाटी में बनने वाले सबसे बड़े सरदार सरोवर बांध के विस्थापितों के बारे में अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया। इसमें कहा गया कि पुनर्वास एक गंभीर समस्या रही है। इस रिपोर्ट में ये सुझाव भी दिया गया कि बांध निर्माण का काम रोक दिया जाए और इस पर नए सिरे से विचार किया जाए।
* अगस्त 1993 परियोजना के आकलन के लिए भारत सरकार ने योजना आयोग के सिंचाई मामलों के सलाहकार के नेतृत्व में एक पांच सदस्यीय समिति का गठन किया।
* दिसंबर 1993 केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय ने कहा कि सरदार सरोवर परियोजना ने पर्यावरण संबंधी नियमों का पालन नहीं किया है।
* जनवरी 1994 भारी विरोध को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने परियोजना का काम रोकने की घोषणा की।
* मार्च 1994 मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मामले में हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इस पत्र में कहा कि राज्य सरकार के पास इतनी बड़ी संख्या में लोगों के पुनर्वास के साधन नहीं हैं।
* अप्रैल 1994 विश्व बैंक ने अपनी परियोजनाओं की वार्षिक रिपोर्ट में कहा कि परियोजना में पुनर्वास का काम ठीक से नहीं हो रहा है।
* जुलाई 1994 केंद्र सरकार की पांच सदस्यीय समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंपी लेकिन अदालत के आदेश के कारण इसे जारी नहीं किया गया। इसी महीने में कई पुनर्वास केंद्रों में प्रदूषित पानी पीने से दस लोगों की मौत हुई।
* नवंबर-दिसंबर 1994 बांध बनाने के काम दोबारा शुरू करने के विरोध में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने भोपाल में धरना देना शुरू किया।
* दिसंबर 1994 मध्य प्रदेश सरकार ने विधानसभा के सदस्यों की एक समिति बनाई जिसने पुनर्वास के काम का जायज़ा लेने के बाद कहा कि भारी गड़बड़ियां हुई हैं।
* जनवरी 1995 सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि पांच सदस्यों वाली सरकारी समिति की रिपोर्ट को जारी किया जाए। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने बांध की उपयुक्त ऊंचाई तय करने के लिए अध्ययन के आदेश दिए।
* मार्च 1995 विश्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में स्वीकार किया कि सरदार सरोवर परियोजना गंभीर समस्याओं में घिरी है।
* जून 1995 गुजरात सरकार ने एक नर्मदा नदी पर एक नई विशाल परियोजना-कल्पसर शुरू करने की घोषणा की।
* नवंबर 1995 सुप्रीम कोर्ट ने सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने की अनुमति दी।
* 1996 उचित पुनर्वास और ज़मीन देने की मांग को लेकर मेधा पाटकर के नेतृत्व में अलग-अलग बांध स्थलों पर धरना और प्रदर्शन जारी रहा।
* अप्रैल 1997 महेश्वर परियोजना के विस्थापितों ने मंडलेश्वर में एक जुलूस निकाला जिसमें ढाई हज़ार लोग शामिल हुए। इन लोगों ने सरकार और बांध बनाने वाली कंपनी एस कुमार्स की पुनर्वास योजनाओं पर सवाल उठाए।
* अक्तूबर 1997 बांध बनाने वालों ने अपना काम तेज़ किया जबकि विरोध जारी रहा।
* जनवरी 1998 सरकार ने महेश्वर और उससे जुड़ी परियोजनाओं की समीक्षा की घोषणा की और काम रोका गया।
* अप्रैल 1998 दोबारा बांध का काम शुरू हुआ, स्थानीय लोगों ने निषेधाज्ञा को तोड़कर बांधस्थल पर प्रदर्शन किया, पुलिस ने लाठियां चलाईं और आंसू गैस के गोले छोड़े।
* मई-जुलाई 1998 लोगों ने जगह-जगह पर नाकाबंदी करके निर्माण सामग्री को बांधस्थल तक पहुंचने से रोका।
* नवंबर 1998 बाबा आमटे के नेतृत्व में एक विशाल जनसभा हुई और अप्रैल 1999 तक ये सिलसिला जारी रहा।
* दिसंबर 1999 दिल्ली में एक विशाल सभा हुई जिसमें नर्मदा घाटी के हज़ारों विस्थापितों ने हिस्सा लिया।
* जून 2014 बांध की आखिरी ऊंचाई बढ़ाने की घोषणा होते ही मध्यप्रदेश के बडवानी, अंजड, कुक्षी, मनावर, धरमपुरी रैलियां निकालकर विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है।
साभार : तहलका डॉट कॉम