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Written By रफीक विसाल
Last Updated : शनिवार, 1 नवंबर 2014 (16:46 IST)

मध्यपूर्व में अमेरिका विरोधी तेवर

मध्यपूर्व में अमेरिका विरोधी तेवर -
अमेरिका और अरब जगत में जो बरसों की घनिष्ठता-निकटता थी, वह अब धीरे-धीरे ध्वस्त होती जा रही है। हालिया रियाद में हुए अरब लीग शिखर सम्मेलन में सऊदी अरब के प्रमुख शासक शाह अब्दुल्लाह ने वाशिंगटन को यह कहकर आश्चर्य में डाल दिया दिया है कि इराक पर अमेरिकी अधिग्रहण पूरे तौर पर अवैध है।

अमेरिकी पत्रिका 'इकॉनॉमिस्ट' ने भी अमेरिकी पतन की तरफ संकेत करते हुए कहा है कि इराक और अफगानिस्तान सहित मध्य-पूर्व में शांति बहाल करने में अमेरिका अपना संतुलन खो चुका है। 9/11 के बाद अमेरिका ने अपने को सुपर पॉवर बनाए रखने के लिए अफगानिस्तान और इराक पर हमले किए। लेकिन बदले में उसे शर्मिंदगी उठानी पड़ी। बरसों की फौजी कार्रवाई के बाद भी दोनों मुल्कों में नतीजा सिफर है।

इराक में अब तक तीन हजार से ज्यादा अमेरिकी फौजी मारे जा चुके हैं। पचास हजार से ज्यादा जख्मी हैं। बाकी फौजी अपना मानसिक संतुलन खो चुके हैं। असंख्य फौजी पूरे तौर पर स्वस्थ होने के बावजूद अपने को बीमार बता रहे हैं। ब्रिटेन के एक चिंतक ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि अमेरिकी नेतृत्व और ब्रिटेन के सहयोग से आतंकवाद विरोधी युद्ध हर कोण से नाकामयाब रहा है। अफगानिस्तान और इराक में अमेरिकी और सहयोगी फौजों के जाने के बाद हिंसा कम होने की बजाय बढ़ती ही जा रही है। अमेरिकी पत्रिका 'इकॉनॉमिस्ट' के अनुसार इराक में जो पूँजी अमेरिका ने खर्च की है, उससे उसकी अर्थव्यवस्था को भारी धक्का पहुँचा है।

रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2003 यानी इराक पर हमले से लेकर अभी तक इस युद्ध में वह तीन खरब पचास अरब डॉलर से ज्यादा की राशि खर्च कर चुका है। अमेरिकी सदन कांग्रेस ने 2007 के लिए 70 अरब डॉलर के रक्षा बजट की स्वीकृति दे दी है, जिसमें से लगभग 50 अरब डॉलर इराक युद्ध के लिए है। एक अमेरिकी सांसद ने कहा है कि अमेरिकी रक्षा मंत्रालय इराक और अफगानिस्तान के युद्ध के लिए 1 खरब 27 अरब डॉलर अतिरिक्त देने का अनुमोदन करेगा, जबकि 2006 के आर्थिक वर्ष में 2 खरब 90 हजार डॉलर अमेरिका इराक-अफगानिस्तान में खर्च कर चुका है।

इराक पर हमला करने के बाद बुश प्रशासन ने सोच लिया था कि अब तेल की अथाह दौलत उसके कब्जे में है, लेकिन इतनी जल्दी पासा पलट जाएगा, सोचा न था। सऊदी अरब जिस पर अमेरिका को सबसे ज्यादा विश्वास था, उसी ने आँखें फेर ली हैं। कारण सीधा-सा है कि अमेरिका अरब जगत में लोकतंत्र लाना चाहता है और लोकतंत्र आ गया तो फिर शाह की बादशाहत कहाँ रहेगी।

शायद इसीलिए शाह अब्दुल्लाह निर्भीक होकर अमेरिकी गतिविधियों का विरोध कर रहे हैं। हालाँकि अरबों में पूरी एकता भी आ जाए तो वे अमेरिका का बाल भी बाँका नहीं कर सकते। यह अलग बात है कि रूस और चीन जैसे बड़े राष्ट्रों ने अमेरिका को कभी 'सुपर पॉवर' स्वीकार नहीं किया है। अमेरिकी चिंतकों, विश्लेषकों एवं स्तंभकारों का मानना है कि अमेरिका ने पहली बार जब इराक पर हमला किया था, यह उसकी बुलंदी का आरंभ था। लेकिन दूसरी बार इराक में उसकी शक्ति का सूर्यास्त हो रहा है।

अमेरिका को बिलकुल भी यकीन नहीं था कि अरब जगत उसके इतने खिलाफ हो जाएगा। शायद इसीलिए इराक के बाद उसने ईरान की तरफ रुख करना चाहा था, लेकिन ईरान और सऊदी अरब की नजदीकियों ने उसके सारे किए पर पानी फेर दिया। दूसरी तरफ अरबों के खिलाफ जिस इसराइल की अमेरिका ने परवरिश की थी, उसकी भी हिम्मत अब पस्त होती जा रही है। लेबनान में इसराइल का जो हश्र हुआ, वह जगजाहिर है। यानी इसराइल अब अरबों को परेशान तो कर सकता है, लेकिन उनसे जीत नहीं सकता। इधर ईरान की बढ़ती ताकत ने भी अमेरिका को चौकस कर दिया है।

कुछ समय पूर्व जब ईरान ने पन्द्रह ब्रिटिश नौसैनिकों को बंदी बना लिया था, तब भी लगा कि ईरान पर किसी तरह का दबाव बनाना अब मुश्किल है। दूसरी तरफ अरबों ने भी इस कोरी सचाई को स्वीकार कर लिया है कि ईरान अरब जगत की उभरती हुई शक्ति है। ...और अमेरिका से निजात पाने का ईरान ही एकमात्र हल है। अरब जगत से अमेरिका की बेदखली जहाँ इसराइल को कमजोर करेगी, तो अरब जगत के पुराने जख्म फिलिस्तीन को भी इस मरहम से थोड़ी-सी राहत मिलेगी।

पिछले डेढ़ साल से अमेरिका और यूरोपीय देशों ने फिलिस्तीन पर प्रतिबंध लगा रखा है। वहाँ फिलहाल सूखा पड़ा हुआ है। लोग खाने-पीने की चीजों से वंचित हैं। इस पर भी इसराइल की ज्यादतियों का सिलसिला जारी है। बहरहाल अरब-ईरान की साझेदारी ने अमेरिका के दाँत भले ही खट्टे न किए हों, लेकिन उसे सोचने के लिए विवश कर दिया है। यही मध्यपूर्व में अमेरिकी पतन का आरंभ है, जिसके नतीजे आने वाले दिनों में दिखाई देंगे।