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Written By WD

धमाके, रेड अलर्ट और मुआवजा...

धमाके, रेड अलर्ट और मुआवजा... -
- पंकज जोशी

जब भी देश में कोई आतंकी वारदात होती है तो एक जुमला सामने आता है 'रेड अलर्ट'। जनता भी अब ये जानना चाहती है कि आखिर यह रेड अलर्ट होता क्या है? किस आधार पर इसे लागू किया जाता है? इसे लागू करना किसी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए कितना मददगार साबित होता है? इस रेड अलर्ट के दौरान सरकार, जाँच एजेंसियों, पुलिस और आम जनता की क्या भूमिका होती है? क्या ये रेड अलर्ट घोषित करने से ही आतंकी हमलों के विरुद्ध एकजुट होने की इतिश्री हो जाती है?

  सरकार का काम क्या केवल रेड अलर्ट घोषित करने तक ही सीमित हो गया है। इसके बाद जो भी होता है, उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? यह सवाल अब तक उलझे हुए क्यों हैं? इस साल जयपुर धमाकों से शुरु हुआ सिलसिला खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है      
सरकार का काम क्या केवल रेड अलर्ट घोषित करने तक ही सीमित हो गया है। इसके बाद जो भी होता है, उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? यह सवाल अब तक उलझे हुए क्यों हैं? इस साल जयपुर धमाकों से शुरु हुआ सिलसिला खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। और तब ही से देश में रेड अलर्ट होने के बावजूद भी बेंगलुरू, अहमदाबाद और दिल्ली आंतकियों के निशाने से बच नहीं सके हैं।

दिल्ली में 13 सितम्बर के धमाकों का खून भी ठीक से साफ हुआ नहीं था कि 30 सितम्बर को एक बार फिर आतंकियों ने भारत सरकार की कायरता को देश की राजधानी में एक और विस्फोट करके उसके नागरिकों के सामने ला दिया है। आतंकियों ने एक बार फिर अपने हौंसलों और भारत सरकार को उसकी हैसियत का अहसास दिलाने की कोशिश की है।

सोमवार की रात गुजरात के साबरकांठा जिले में हुआ एक और विस्फोट इस बात का सबूत है कि इतने धमाकों के बाद भी भारत सरकार ने सबक नहीं सीखा है और सिमी कार्यकर्ताओं और आतंकवादियों की गिरफ्तारी के बाद भी उनके साथियों के इरादे बुलंद हैं। वे धमाके करके अपनी मौजूदगी का अहसास दिलाते जा रहे हैं।

भारत में आतंकवाद के प्रति नरम रवैये का ही ये असर है कि अब आतंकवादी समाचार चैनलों को धमाके होने की सूचना करने के बाद धमाके कर रहे हैं। और फिर खुलेआम इन धमाकों की जिम्मेदारी भी ले रहे हैं। ये बात गौर करने लायक है कि 9/11 के बाद अमेरिका में ऐसा क्यों ‍नहीं हो पाया?

यूपीए अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने 13 सितम्बर को ही आंतरिक सुरक्षा के मामले में गृह मंत्रालय की तारीफ की थी। आश्चर्य है कि उसी शाम को आतंकवादियों ने दिल्ली के भीड़ भरे इलाकों में सिलसिलेवार धमाके कर अपने जलवे दिखा दिए। गुजरे शनिवार को दिल्ली में हुआ एक और धमाका इस बात की पोल खोलता है कि दो हफ़्तों पहले हुए धमाकों से दिल्ली सरकार और पुलिस कितनी नींद में थे।

सोमवार को गुजरात के साबरकांठा के मोडासा नगर में हुआ धमाका भी रेड अलर्ट और धमाकों में हुई मौतों के एवज मिलने वाले मुवाअजों की घोषणाएँ सुनाने का एक और बहाना दे गया है। कब तक आखिर हम रेड अलर्ट और मृतकों तथा घायलों को मुआवजा देने की घोषणाएँ ही करते रहेंगे जबकि आज जरुरत है आतंकवाद के खिलाफ एक कड़े और दृढ़ शंखनाद की।

दिल्ली में चाहे मासूम संतोष की मौत हुई हो, या फिर मोडासा में निजामुद्दीन और जैनुद्दीन जैसे युवक धमाकों में बलि चढ़ गए हों। किसे फर्क पड़ता है? आतंकवादियों को तो कतई नहीं। उन्हें संतोष और जैनुद्दीन की मौत में बस साम्प्रदायिकता की आग भड़काने का एक बहाना दिखता है। न वे मंदिरों में धमाके करने से चुके हैं और न ही उन्होंने मस्जिदों को बख्शा है।

  बेंगलुरू और अहमदाबाद में हुए विस्फोटों के बाद दिल्ली के आंतकियों के निशाने पर होने की सूचना सरकार को दे दी थी। फिर ऐसा कैसे संभव हो सका कि 15 दिनों में एक नहीं दो-दो बार दिल्ली वालों को धमाकों की गूँज सुननी पड़ी। यह वाकई शर्मनाक है      
सुरक्षा एजेंसियों की बात मानें तो उन्होंने बेंगलुरू और अहमदाबाद में हुए विस्फोटों के बाद दिल्ली के आंतकियों के निशाने पर होने की सूचना सरकार को दे दी थी। फिर ऐसा कैसे संभव हो सका कि 15 दिनों में एक नहीं दो-दो बार दिल्ली वालों को धमाकों की गूँज सुननी पड़ी। यह वाकई शर्मनाक है कि हम जानकारी होने पर भी दिल्ली तक को सुरक्षित नहीं रख पा रहे हैं।

नवरात्र के ठीक एक दिन पहले गुजरात में किया गया धमाका इस बात की चेतावनी हो सकता है कि आने वाले त्यौहारों पर आतंकवादियों ने कुछ खास इंतजामात किए होंगे और उनसे निपटने के लिए हमें व हमारी सरकार को भी उतनी ही मुस्तैदी दिखानी होगी। ऑपरेशन BAD (बेंगलुरू, अहमदाबाद, दिल्ली) के बाद अब आतंकवादियों का अगला निशाना कोई भी स्थान हो सकता है।

आतंकवादी कश्मीर के मुद्दे को लेकर घाटी में वर्षों से आतंकवाद फैला रहे हैं। अभी घाटी अमरनाथ मसले की हिंसा को लेकर अपनी ही आग में जल रही है, जिससे आतंकवादियों को देश के अन्य शहरों में ‍आतंक फैलाने का रास्ता मिल गया है। दक्षिण में बैंगलुरू से शुरु हुए विस्फोट, पश्चिम में गुजरा‍त और फिर दिल्ली के रास्ते होते हुए आतंक के सरपरस्त लोग संभव है कि उत्तर में जम्मू कश्मीर तक का सफर तय करने की फिराक में हों।

पिछले तीन वर्षों में 2006 में वाराणासी के संकटमोचन मंदिर पर हमला, मुंबई के लोकर ट्रेन बम धमाके, 2007 में दिल्ली से अटारी जा रही समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट, अजमेर की दरगाह, हैदराबाद की मक्का मस्जिद में विस्फोट और बीते नवंबर में लखनऊ, फैजाबाद और वाराणासी के अदालत परिसरों में हुए धमाके आतंकवाद और इसके पोषकों की ताकत को बढ़ाने वाले कुछ उदाहरण हैं।

इस वर्ष जयपुर, बेंगलुरू, अहमदाबाद, और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में हुए जानलेवा धमाके आतंकवादियों के नापाक इरादों की दास्ताँ बयान करने के लिए काफी हैं। इन तीन वर्षों में हुए धमाकों में संदिग्ध लोगों व आरोपियों की धरपकड़ आज भी जारी है किंतु इन तीन वर्षों में आरोपियों के विरुद्ध एक भी फैसला अभी तक नहीं आया है। ये हमारी सरकार और राजनीति‍क इच्छाशक्ति के पंगु होने का सबूत है।

यदि इतने धमाके होने के बाद भी आम जनता की चीत्कार सरकार को नहीं सुनाई दे रही है तो ये बात स्पष्ट है कि आने वाला समय भारत और भारत की आवाम के लिए दहशत भरा होगा। कब, कैसे, किस रूप में और किसके जरिए कहाँ धमाका होगा कुछ कहा नहीं जा सकता।

हाल ही के धमाकों में भी चाहे इंडियन मुजाहिद्दीन के आरिफ और अन्य आतंकियों को गिरफ्तार कर लिया गया हो किंतु जब तक हम इन लोगों को भी मानव अधिकारों और भारत की सहिष्णुता की आड़ में अफजल की ही तरह संरक्षण देते रहेंगे तब तक और धमाके होते रहेंगे।

भारत की जनता अब रेड अलर्ट की चौकसी और मुआवजों के दबाव से ऊपर उठकर एक ऐसी ताकत चाहती है जिससे वह आतंक का सामना कर सके और खुले आम घूम सके, धमाकों से बेखौफ होकर।