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Written By उमेश त्रिवेदी
Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (14:44 IST)

जश्न और जुनून में फर्क जरूरी

जश्न और जुनून में फर्क जरूरी -
जब लोग जश्न के मूड में हों, खुशियाँ लूट रहे हों, खुशियाँ लुटा रहे हों, तब यह सवाल थोड़ा अटपटा, थोड़ा सनकी लग सकता है कि जश्न और जुनून के बीच कोई लक्ष्मण रेखा होना चाहिए अथवा नहीं? उपलब्धियों और सफलताओं के अवसरों पर अंदाज और आचरण कैसा होना चाहिए?

आचरण के दायरे में समाज और सफल व्यक्ति, दोनों ही आते हैं। घटना पिछले सप्ताह की है, जब महेन्द्रसिंह धोनी की कप्तानी में टीम इंडिया ने पाकिस्तान को हराकर ट्वेंटी-20 क्रिकेट विश्व कप जीत लिया था। देश में क्रिकेट को समझने वाला शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा होगा, जिसे इस उपलब्धि पर खुशी और गर्व महसूस नहीं हुआ हो।

चौबीस साल बाद देश ने क्रिकेट विश्व कप जीता था। भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता किसी से छिपी नहीं है। लोग उन्माद की हद तक इसमें लिप्त रहते हैं। ट्वेंटी-20 विश्व कप की जीत पर कपिल देव ने कहा था कि 'यह जश्न का समय है।' देश का गौरव बढ़ाने वाली किसी भी घटना पर लोग जश्न मनाएँ, इतराएँ, इठलाएँ- इस पर किसी को भी ऐतराज नहीं होना चाहिए।

क्रिकेट के इतिहास में हासिल इन गौरवशाली क्षणों में लोगों ने पटाखे फोड़े, दिवाली मनाई, भाँगड़ा किया, सड़कों पर नाचे-गाए, वह सब कुछ किया, जो उनकी खुशियों को व्यक्त कर सकता था। हम सब इसमें सहभागी थे। सवाल इसी सहभागिता से शुरू होता है। इस विश्व विजय को जो आकार देश के मीडिया और समाज ने दिया, क्या उसमें अतिरेक अथवा फुगावा नहीं था? क्या खुशियाँ उन्माद में तब्दील नहीं हो गई थीं? जज्बात पर जुनून हावी नहीं हो गया था?

घर-वापसी के बाद मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में आयोजित स्वागत समारोह के जवाब में महेन्द्रसिंह धोनी ने जो कुछ कहा, शायद वह लोगों की आँखें खोलने के लिए पर्याप्त है। धोनी का वक्तव्य हमें हमारी अतिरंजनाओं और अतिरेक का आईना दिखाता है। धोनी का कहना था कि 'जब हमने ट्वेंटी-20 विश्व कप का खिताब जीता, तब हमें लगता था कि यह टीम-इंडिया के लिए बड़ी उपलब्धि है।

उसके बाद जब लोगों की प्रतिक्रियाएँ सुनने को मिलीं तो लगा कि हमने बड़ा काम किया है। मुंबई पहुँचने के बाद जब स्वागत में उमड़े जनसैलाब को सामने देखा तो महसूस हुआ कि यह वाकई अद्भुत है। हम में से कई लोग यह नहीं समझ पा रहे थे कि यह क्या हो रहा है? लेकिन यह जरूर समझ में आ रहा था कि इस जीत के मायने देश की जनता के लिए क्या हैं? इसे शब्दों में व्यक्त कर पाना मुश्किल है।'

महेन्द्रसिंह धोनी के कथन से जाहिर है कि जो लड़के जीते थे, उनके लिए यह स्वागत अनपेक्षित था। मानसिक तौर पर वे एक ऐसे स्वागत के लिए तैयार नहीं थे- स्वागत जो मन में भय पैदा करे... स्वागत, जो बोझ बन जाए... स्वागत, जो चिंताएँ पैदा करे... स्वागत, जो आशंकाओं से घेरे... कि भविष्य में यदि हम असफल हुए तो क्या होगा? जनता कैसे 'रिएक्ट' करेगी...? मीडिया कैसा व्यवहार करेगा? जनता और मीडिया का यह व्यवहार न तर्कसंगत है और न ही संतुलित।

क्रिकेट विश्व कप पराजय के कड़वे घूँट पीने के बाद भारतीय टीम जब वापस लौटी थी, उस वक्त जो कुछ उसके साथ घटा, उसकी यादें लोगों के जेहन में अभी भी ताजा हैं। एक ओर टीम पर कटाक्ष करते हुए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक वर्ग सचिन तेंडुलकर और सौरव गांगुली के चेहरे पर कालिख पोतकर दिखा रहा था, दूसरी ओर क्रिकेट प्रेमियों की भीड़ राँची में महेन्द्रसिंह धोनी की शवयात्रा निकाल रही थी और उनके निर्माणाधीन भवन पर तोड़फोड़ कर रही थी। वही भीड़ आज उसी महेन्द्रसिंह धोनी को देखकर सरताज खिलाड़ी मानकर सिर पर बिठाए घूम रही है।

जाहिर है सफलता और असफलताओं के दरमियान देश की जनता और मीडिया- दोनों के व्यवहार के संतुलन के बिंदु अक्सर नदारद रहते हैं। 'मीडिया-हाइप' और जनता के उन्माद से जुड़े ये मुद्दे सिर्फ क्रिकेट तक ही सीमित नहीं हैं। किसी भी जीत, सफलता या उपलब्धि के क्षणों में लोग इतने उन्मादी हो जाते हैं कि जैसे उसके बाद हासिल करने के लिए कुछ भी शेष रहता नहीं है।

प्रतिक्रियाओं के इस भावनात्मक असंतुलन के कारण ही राजनीति और प्रशासन के क्षेत्रों में भी लोग ऐसा ही व्यवहार करते नजर आते हैं। नतीजतन व्यवस्थाएँ वस्तुनिष्ठता और तार्किकता के बजाए उन्मादी तत्वों से प्रभावित होकर आगे बढ़ने लगती हैं। चाहे खेल हो अथवा राजनीति-प्रशासन, सभी किसी न किसी रूप में आम लोगों को प्रभावित करते हैं अथवा आकर्षित करते हैं? भावनात्मक असंतुलन से होने वाली क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं का उपचार जरूरी है, क्योंकि ये आम लोगों को सीधे प्रभावित करती हैं और आम जन ही इसका सबब होते हैं।

केंद्र में जब भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार थी और लालकृष्ण आडवाणी गृहमंत्री थे, तब भाजपा शासित राज्यों की सरकारों के एक प्रशिक्षण शिविर में उन्होंने भावनात्मक असंतुलन का यह मामला अलग तरीके से उठाया था। कार्यकर्ताओं की शिकायत थी कि भारतीय जनता पार्टी ने राम मंदिर और धारा 370 जैसे मुद्दों को हाशिए पर धकेल दिया है। उनकी सरकारों में ही उनके काम नहीं हो पाते हैं।

दोनों बातों को लेकर कार्यकर्ताओं में असंतोष था। आडवाणी ने उस वक्त समझाइश देते हुए कहा था कि सार्वजनिक जीवन में आईक्यू (इंटेलिजेंस-कोशियंट) का जितना महत्व है, उतना ही महत्व ईक्यू (इमोशनल कोशियंट) का है। उससे भी ज्यादा जरूरी है कि लोगों के आईक्यू और ईक्यू में सामंजस्य हो।

उनका कहना था क्योंकि बुद्धि, विवेक और भावनाओं को ध्यान में रखकर जो व्यवस्थाएँ बनाई जाती हैं, वही कारगर और स्थायी होती हैं, क्योंकि उसमें व्यक्ति और विचार दोनों का जुड़ाव होता है। हमारे यहाँ यह संतुलन कम ही नजर आता है। यदि शासन-प्रशासन बुद्धिकौशल के सहारे उसकी गाड़ी खींच रहे हैं तो राजनीति या अन्य सार्वजनिक जीवन भावनात्मकता का सहारा लेकर बढ़ रहे हैं।

दिक्कत यह है कि आम लोगों की भावनात्मकता इतनी विवेकपूर्ण नहीं है कि वह रोजमर्रा के जीवन में सामान्य व्यवहार कर सके। इसीलिए हमारे यहाँ कोई भी घटना सामान्य घटना नहीं होती... कोई भी उपलब्धि सामान्य उपलब्धि नहीं होती... कोई भी सफलता सामान्य सफलता नहीं होती... कोई भी हादसा सामान्य हादसा नहीं होता...।

यदि रामसेतु का मुद्दा आता है तो पूरा देश मचल उठता है... बाबरी मस्जिद टूटती है तो देश आग के हवाले हो जाता है... ट्वेंटी-20 विश्व कप जीतता है तो देश थिरक उठता है... विश्व कप पिटता है तो मातम छा जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब लोगों ने भावनाओं में बहकर फैसले किए... एकतरफा फैसले लिए... जिसका समर्थन किया, शत-प्रतिशत समर्थन किया..। जिसका विरोध किया... उसे मिट्टी में मिला दिया।

लगता है प्यार और नफरत के बीच यहाँ सिर्फ अंगारे ही हैं, और कुछ नहीं। इसीलिए देश में भावनाओं के साथ खिलवाड़ होता रहता है। जाहिर जब तक लोगों का ईक्यू यानी भावनात्मकता या भावनात्मक कौशल ऊँचा नहीं होगा, ऐसी विरोधाभासी परिस्थितियाँ सामने आती रहेंगी। लोगों को जश्न और जुनून में फर्क करना सीखना होगा।