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Written By उमेश त्रिवेदी
Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (14:44 IST)

'ग्लोबल विजन' में मोतियाबिंद

''ग्लोबल विजन'' में मोतियाबिंद -
मध्यप्रदेश के अखबारों में दो खबरें एक साथ छपीं। पहली खबर इंदौर में ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट के समापन समारोह से संबंधित थी। दूसरी खबर थी कि भोपाल में हिन्दूवादी संगठनों के विरोध के कारण इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) ने मध्यप्रदेश में 'मीट टेक्नोलॉजी' का कोर्स बंद कर दिया।

दोनों समाचार-कथाओं में दर्ज मानसिकता ही मुख्यमंत्री शिवराजसिंह की असली चुनौती है, क्योंकि इन घटनाओं के अंतरप्रवाह एक-दूसरे से टकराते हैं, ज्वार-भाटे पैदा करते हैं, जिन्हें बाँध पाना कई मर्तबा दुष्कर हो जाता है।

खबरों के विस्तार में यह कहानी स्वतः उभरती है कि विकास और खुशहाली की राह पर प्रदेश को आगे बढ़ाने के लिए शिवराजसिंह चौहान को कितने और कैसे-कैसे चक्रव्यूह तोड़ना होंगे।

कोई एक व्यक्ति अपनी इच्छाशक्ति, संकल्प और प्रतिबद्धता से विकास की अधोसंरचना खड़ी कर सकता है, लेकिन उसे आकार और गति देने के लिए सभी संबंधित वर्गों के सम्मिलित और ईमानदार प्रयास भी उतने ही जरूरी हैं।

कोई यह सोच ले कि अकेला मुख्यमंत्री प्रदेश को उठाकर विकास और समृद्धि की गोद में बिठा देगा, तो यह गलतफहमी होगी। सबको मिलकर काम करना होंगे। यदि विकास की महफिल में सुर (राजनीति) और साज (मशीनरी) की लय एक नहीं हुई, तो नतीजे के बारे में सोचना ही फिजूल है।

ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में सवा लाख करोड़ के एमओयू पर उद्योगपतियों ने दस्तखत किए। मध्यप्रदेश सरकार इसे आशातीत सफलता मानती है। ऊर्जा, उद्योग, आईटी, शिक्षा, फूड प्रोसेसिंग और स्वास्थ्य कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं था, जहाँ काम करने के लिए निवेशकों ने उत्साह नहीं दिखाया हो। इन करारों को लेकर सरकार के नुमाइंदों से लेकर उद्योगों के प्रतिनिधियों तक ने कसीदे काढ़े।

सवा साल पहले खजुराहो में संपन्न 'इन्वेस्टर्स समिट' के अच्छे-बुरे अनुभवों को भुलाकर आगे बढ़ने का वातावरण बना। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने समिट के समापन-समारोह में उद्योगपतियों को आश्वस्त करने और उनका विश्वास जीतने की गरज से यह वादा भी किया कि निवेशकों का काम खत्म हो चुका है।

अब सरकार के काम करने की बारी है। उनकी बातें, ये संकल्प अच्छे लगते हैं, आश्वस्त भी करते हैं, लेकिन मामला सिर्फ उन तक ही सीमित नहीं है, उन लोगों से भी जुड़ा है, जिन्हें उनका हमकदम बनना है।

तार यहीं उलझे नजर आते हैं... 'मीट टेक्नोलॉजी' के कोर्स बंद करने जैसी खबरें टोंकती हैं कि सब कुछ एकदम ठीक नहीं है। विचारों के रोशनदान मकड़ी के जालों में उलझे और अधखुले हैं। उनसे आने वाली रोशनी में अवरोध है।

इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय ने 'मीट टेक्नोलॉजी' का कोर्स प्रदेश में माँस व्यवसाय से जुड़े सभी पहलुओं पर 'थ्योरीटिकल' और 'प्रैक्टिकल' ट्रेनिंग देने के हिसाब से तैयार किया था। कोर्स में हर प्रकार के माँस को विभिन्न तरीकों से बनाना, साफ-सफाई करना और मार्केटिंग करना शामिल था।

हिन्दूवादी संगठन इसके विरोध में थे। जैन समाज के कतिपय तबकों ने भी इस पर आपत्ति दर्ज कराई थी। संगठनों को आपत्ति थी कि इससे मांस व्यवसाय को बढ़ावा मिलेगा। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह ने भी जन भावनाओं के मद्देनजर हिन्दूवादी संगठनों का साथ दिया। नतीजतन 'मीट टेक्नॉलॉजी' का कोर्स बंद हो गया।

बात सिर्फ एक कोर्स बंद करने तक ही सीमित नहीं है। इसके तार 'ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट' में हुए करोड़ों के करारों से भी जुड़ते हैं। यह छोटी-सी बात एक बड़ा खुलासा करती है कि हमारी व्यवस्थाएँ और रीति-नीतियाँ विरोधाभासों के अलग-अलग छोरों पर खड़ी हैं। हम और हमारे समाज के सोच में समग्रता के बिंदु कितने धुँधले हैं? राजनीति और सरकार के दृष्टिकोण में कितनी दरार है? दूरदृष्टि का अभाव है।

उल्लेखनीय है कि इंदौर की 'ग्लोबल-इन्वेस्टर्स-समिट' में 'फूड-प्रोसेसिंग' उद्योगों के लिए भी 2227 करोड़ के पंद्रह करार हुए हैं। 'मीट-टेक्नोलॉजी' भी फूड-प्रोसेसिंग उद्योगों में रोजगार की राह बनाने वाली आवश्यक गतिविधि है। यह राह क्यों बंद की जाना चाहिए।

इसमें कोई शक नहीं कि इंदौर के 'ग्लोबल समिट' के कारण मध्यप्रदेश में औद्योगिक विकास के लिए सकारात्मक वातावरण बना है। उद्यमियों में विश्वास जागा है कि मध्यप्रदेश भी औद्योगिक क्रांति के लिए तैयार है। मानसिक जड़ता टूटी है। लेकिन जब औद्योगीकरण की बात होती है, तो यह मात्र पूँजी-निवेश तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए।

मध्यप्रदेश में पूँजी-निवेश से कितने रोजगार पैदा होंगे, यह देखना भी जरूरी है। उससे भी ज्यादा जरूरी यह देखना है कि कितने लोगों को रोजगार मिला? यदि इतने बड़े पूँजी-निवेश के बाद भी मध्यप्रदेश के लोगों को रोजगार नहीं मिला तो क्या समूची कसरत कारगर होगी?

रोजगार से जुड़े इस मुद्दे में आगे एक और बड़ा सवाल अंतरनिहित है कि पूँजी-निवेश की पृष्ठभूमि के मद्देनजर हम प्रदेश के कितने लोगों को रोजगार के लिए तैयार कर रहे हैं।

नेस्कॉम ने कहा है कि देश के आईटी क्षेत्र में आने वाले समय में 40 लाख लोगों की जरूरत होगी। केंद्र सरकार ने देश में टेक्सटाइल उद्योगों के एक करोड़ बीस लाख, फूड-प्रोसेसिंग में 3 करोड़, ऑटो काम्पोनेंट में 50 लाख, जेम्स ज्वेलरी में 50 लाख रोजगार के अवसर उपलब्ध बताए हैं।

आबादी के अनुपात में आईटी क्षेत्र में 2.40 लाख, टेक्सटाइल में 2.20 लाख, फूड प्रोसेसिंग में 18 लाख, ऑटो काम्पोनेंट में 3 लाख रोजगार के अवसर मध्यप्रदेश के हिस्से में आना चाहिए।

मोटा सवाल यह है कि इन अवसरों का फायदा उठाने के लिए हम क्या कर रहे हैं। गाँव में गड़रिए भेड़-बकरी पालकर जीवन-यापन करते हैं। मुर्गी-पालन को बढ़ावा देने के लिए सरकार कई योजनाएँ चला रही है। 'कुक्कुट विकास निगम' है। एनिमल हस्बेण्डरी बोर्ड है।

'मीट टेक्नोलॉजी' का कोर्स गाँव के गड़रियों और पशुपालकों को बेहतर आर्थिक लाभ दिला सकता है, लेकिन हम उसे बंद करने पर उतारू हैं। जाहिर है विकास की बुनियादी जरूरतों को दरगुजर करके संपन्नाता के सपने देखना मुनासिब नहीं है। यदि धीरूभाई अंबानी ने कहा था कि व्यक्ति को सपने खुली आँखों से देखना चाहिए, तो हमारी सरकार को भी आँखें खुली रखकर चौकस नजरों के साथ काम करना चाहिए।

मुख्यमंत्री शिवराजसिंह की असली लड़ाई तो अब शुरू हुई है। नए उद्योगों के लिए जमीन तैयार करने के साथ उन्हें पुराने उद्योगों को संरक्षण देने के लिए छत बनाना होगी। अन्यथा 'आगे पाठ, पीछे सपाट' जैसी स्थितियाँ बन जाएँगी। मालनपुर से जेके टायर 1100 करोड़ का 'इन्वेस्टमेंट' करके बाहर अपना विस्तार करने की योजना बना रहा है। जो उद्योग मध्यप्रदेश में सात सौ करोड़ खर्च कर चुका है, उसके सामने बाहर जाने की नौबत क्यों आई, वह यहीं अपना विस्तार क्यों नहीं करना चाहता?

उद्योग, वन अथवा राजस्व विभाग उद्योगों के मामले में एक-दूसरे के विपरीत जाकर उद्योगों के साथ दुश्मनी का व्यवहार क्यों करते हैं? यह जाँचना दिलचस्प होगा कि मंडीदीप के कोई दर्जन भर उद्योगों को वर्षों बाद वन विभाग क्यों नोटिस जारी कर रहा है। 'ग्लोबल समिट' के बाद मुख्यमंत्री शिवराज के सामने ऐसे अनेक सवाल आएँगे, क्योंकि लोगों को लगने लगा है कि अब उनकी सुनवाई के दिन आ गए हैं। उनके साथ न्याय की संभावना बढ़ी है।

प्रदेश की भाजपा सरकार को अब सोचना होगा कि भविष्य में होने वाले चुनाव में मतदाता बिजली, सड़क, पानी जैसे मसलों पर ही उनसे सवाल-जवाब नहीं करेंगे।

उद्योगों के साथ एमओयू करके उन्होंने जो विकास का खाका सामने पेश किया है उसकी जवाबदेही भी सुनिश्चित की जाएगी। सपनों की सौदागिरी से बात नहीं बनेगी। जाहिर है ग्लोबल समिट के बाद शिवराजसिंह चौहान ने स्वतः अपने कंधों पर जवाबदेही का बोझ बढ़ा लिया है।