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Written By आलोक मेहता

कैसे बिगड़ गए समाजवादी

कैसे बिगड़ गए समाजवादी -
समाजवादियों के भारतीय प्रणेता राममनोहर लोहिया ने 14 सितंबर 1957 को अपनी एक प्रिय मित्र ऐली को पत्र में लिखा था- 'वह व्यक्ति जो हिंसक मनुष्य के जीवन को पसंद करने लगता है, कभी नुकसान में नहीं रहता। वो मृत्यु को प्राप्त हो सकता है, लेकिन वो हारेगा नहीं। मैं जीवन में हिंसक मनुष्य की तरह रहना चाहूँगा, कम से कम राजनीति के संबंध में और इसमें कोई गलती नहीं होगी।' लोहिया का दृष्टिकोण था कि 'समझदार राजनीतिज्ञ को सरकार में नहीं, विरोध में होना चाहिए।'

उनका तर्क था- 'भीष्म ने जब द्रौपदी की बात को स्वीकारा, तो उसके साथ कहा कि
  राममनोहर लोहिया क्या सही अर्थों में देश को कोई लाभदायक दिशा दे पाए? जिन लोगों को उन्होंने अपने साथ जोड़ा, क्या वे सही अर्थों में समाजवादी आदर्शों पर चल पाए?      
जिसका नमक मैंने खाया, उससे मेरी बुद्धि भ्रष्ट हुई। दूसरी बात बुद्धिमान आदमी को सरकारी जगह नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि सरकार शक्ति की जगह है। जब बुद्धि और शक्ति का मिश्रण हो जाए तो जनता का कोई बचाव नहीं।'

इस समय राममनोहर लोहिया की चर्चा इसलिए आवश्यक हो गई है, क्योंकि इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा की तरह समाजवादियों का भविष्य भी दाँव पर लगा है। यहाँ समाजवादी से मतलब केवल समाजवादी पार्टी से नहीं है। लोहिया-जयप्रकाश की परंपरा के समाजवादी आज भी यहाँ-वहाँ बिखरे हुए हैं। राजपूत शिरोमणि के ताज से अपने को गौरवान्वित समझने वाले अमरसिंह के खजाने की छत्रछाया में मुलायमसिंह यादव की एक समाजवादी फौज चुनावी मैदान में है।

दूसरी तरफ देश के सभी मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने जैसी घृणित राष्ट्रद्रोही हुँकार लगाने वाले बैकुंठलाल शर्मा 'प्रेम' की भारतीय जनता पार्टी का झंडा उठा रहे शरद यादव का जनता दल (यू) है। लोहिया और जयप्रकाश के ही तीसरे मानस पुत्र लालूप्रसाद यादव करीब नौ सौ करोड़ रुपए के चारा घोटाले और बिहार के तबाह चित्र को सिर पर ढोते हुए राष्ट्रीय जनता दल के टूटे 'जनता रथ' को धक्का लगा रहे हैं। लोहिया के चौथे झंडाबरदार जॉर्ज फर्नांडीस फटे कुर्ते की राजनीति से 53 करोड़ की निजी संपत्ति की घोषणा करते हुए बिहार में राजनीतिक डाइनामाइट लगा रहे हैं। इसलिए यह मानना होगा कि लोहिया के अन्य आदर्शों को भले ही उनके चेलों ने भुला दिया हो, हिंसक रहने तथा हर परिस्थिति में सत्ता का विरोध करने के आदर्श को वे अपनाए हुए हैं।

लोहिया और समाजवादियों पर विस्तृत चर्चा इसलिए भी करनी पड़ रही है, क्योंकि 'नईदुनिया' के एक प्रबुद्ध पाठक ने मप्र से दिल्ली पत्र भेजकर राय दी है कि 'गाँधी के अनुयायियों में लालबहादुर शास्त्री को आदर्श बताने के बजाय राममनोहर लोहिया की महत्ता को समझना और लिखना चाहिए।' मैं और मेरा अखबार सदा लोकतांत्रिक असहमतियों को सुनने और जगह देने के लिए तैयार रहता है। निश्चित रूप से एक समय में राममनोहर लोहिया भी महात्मा गाँधी के प्रिय शिष्यों में थे।

लोहिया के जीवन का अध्ययन करने वालों को साथ में यह भी ध्यान रहता होगा कि 29 जनवरी 1948 को एक संवाद के दौरान महात्मा गाँधी ने उनके उग्र तेवर देखते हुए पूछा था- 'क्यों, बर्मा में जैसे आंगसांग को बम फेंककर उड़ा दिया, वैसे ही पटेल-नेहरू को बम से उड़ाने का इरादा है क्या?' लोहिया पानी-पानी हुए और उत्तर दिया कि न पहले ऐसा इरादा था और न ही अब है। फिर गाँधी ने लोहिया को नेहरू के नेतृत्व में जिम्मेदारी लेते हुए सूचना प्रसारण मंत्री बनने का सुझाव दिया था। बातचीत का कोई निष्कर्ष नहीं निकला और अगले दिन 30 जनवरी को फिर मिलना तय हुआ लेकिन वह मुलाकात फिर कभी नहीं हो पाई।

गाँधी के बाद तो लोहिया ने संघर्ष के तेवर कड़े कर दिए, जेल जाते रहे, पार्टी बनाते और तोड़ते रहे। पूरी ईमानदारी और सिद्धांतवादिता के बावजूद राममनोहर लोहिया क्या सही अर्थों में देश को कोई लाभदायक दिशा दे पाए? 1952 से 1967 तक जिन लोगों को उन्होंने अपने साथ जोड़ा, क्या वे सही अर्थों में समाजवादी आदर्शों पर चल पाए? राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल, लालबहादुर शास्त्री ने तो राष्ट्र निर्माण और भारतीय जनता को दिशा दिखाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया लेकिन समाजवादियों ने क्या सदा भ्रम और अराजक स्थिति बनाने की कोशिश नहीं की?

महात्मा गाँधी ने दलितों के लिए सबसे ऊँची आवाज उठाई, जबकि लोहिया ने पिछड़ी जातियों के उत्थान को बड़ा मुद्दा बनाया। उन्होंने जाति-प्रथा को संगठनात्मक राजनीति से जोड़ा। लोहिया मानते थे कि जाति की बात बंद करने का मतलब हिन्दुस्तान की वास्तविकता से आँखें मूँद लेना है। 'जाति-प्रथा' नाम की पुस्तिका में लोहिया ने लिखा-

'दुनिया में सबसे अधिक उदास हैं हिन्दुस्तानी लोग। वे उदास हैं, क्योंकि वे ही सबसे ज्यादा गरीब और बीमार भी हैं। लेकिन उतना ही बड़ा एक कारण यह भी है कि उनकी प्रकृति में एक विचित्र झुकाव आ गया है। बात तो वे निर्लिप्तता के दर्शन की करते हैं, जो तर्क में और विशेषतः अंतर्दृष्टि में निर्मल है पर व्यवहार में वे भद्दे ढंग से लिप्त रहते हैं। उन्हें प्राणों का इतना मोह है कि किसी बड़े प्रयत्न का जोखिम उठाने की बजाय वे दरिद्रता के निम्नतम स्तर पर जीना ही पसंद करते हैं और उनके पैसे तथा सत्ता की लालच का क्या कहना कि दुनिया में कोई और लोग उस लालच का इतना बड़ा प्रदर्शन नहीं करते। आत्मा के इस पतन के लिए मुझे यकीन है, जाति और औरत के दोनों कटघरे मुख्यतः जिम्मेदार हैं। इन कटघरों में इतनी शक्ति है कि साहसिकता और आनंद की समूची क्षमता को ये खत्म कर देते हैं। जो लोग ये सोचते हैं कि आधुनिक अर्थतंत्र द्वारा गरीबी मिटाने के साथ ही साथ ये कटघरे अपने आप खत्म हो जाएँगे, बड़ी भारी भूल करते हैं। गरीबी और ये दो कटघरे, एक-दूसरे के कीटाणुओं पर पलते हैं।'

लोहिया के जातीय मुद्दों को ध्यान में रखकर ही केंद्र में पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनने पर 1978 में मंडल आयोग की नियुक्ति हुई। दो वर्ष के कामकाज के बाद दिसंबर 1980 में मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को दी। यों इससे पहले पं. जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में 1953 में भी काका कालेलकर की अध्यक्षता में समाज की छोटी जातियों के पिछड़ेपन की समस्या का निदान सोचने के लिए एक आयोग बना था।

इस आयोग के सदस्यों की असहमतियों के बावजूद अंतिम रिपोर्ट में जाति के आधार पर पिछड़ेपन और नौकरियों में आरक्षण की बात कही गई थी लेकिन काका कालेलकर ने तभी राष्ट्रपति को अलग से पत्र भेजकर लिखा था कि 'समानता वाले समाज में हमारी प्रगति की सबसे बड़ी बाधा जाति-प्रथा है। कुछ निश्चित जातियों को पिछड़ा मानने से यह हो सकता है कि हम जाति-प्रथा के भेदभाव को कायम रखें और सदा के लिए बनाए रखें।'

बहरहाल, उस समय केंद्र सरकार ने जाति के अलावा अन्य कसौटियों पर पिछड़ापन निर्धारित कर समस्या के समाधान की कोशिश की। लगभग चार दशक बाद सोशलिस्ट पृष्ठभूमि वाले विश्वनाथ प्रतापसिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों का पुलिंदा खोलकर भारतीय राजनीति की दिशा बदल दी। लोहिया ने सत्ता के सपने नहीं बुने थे लेकिन उनके अनुयायियों को पहले जेपी, फिर वीपी का वरदान मिला तथा सत्ता सुख का सागर उमड़ पड़ा। लोहिया और उनके समर्थकों ने कांग्रेस को प्रतिक्रियावादी संगठन करार दिया।

जॉर्ज फर्नांडीस नारा लगाते रहे- 'कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के लिए हम शैतान से भी सहयोग कर सकते हैं।' और उन्होंने ऐसा किया भी। इमरजेंसी के बाद सत्ता में हिस्सेदारी के लिए पुराने कांग्रेसी मोरारजी देसाई और चरणसिंह के अलावा आरएसएस के शिक्षित-दीक्षित अटल-आडवाणी के साथ हाथ मिलाया। झगड़े की आदतन मजबूरी के कारण संघ से रिश्तों को लेकर जनता पार्टी की सरकार उखाड़ दी, लेकिन 25 साल बाद उन्हें ही अपना 'पालनहार' स्वीकार कर संघी से बड़े संघी हो गए।

लोहिया भी धर्म और राजनीति के अटूट संबंध को स्वीकारते थे। उनका मानना था कि 'धर्म और राजनीति, ईश्वर और राष्ट्र या कौम हर जमाने में और हर जगह मिलकर चलते हैं।'

लोहिया की माला जपने वाले समाजवादियों ने पुरानी 'लाल टोपी' को चुनावी मौसम के
  दूसरी तरफ लोहिया के ईमानदार रहने तथा गरीबों के लिए निरंतर संघर्ष करने के आदर्शों को समाजवादी कहीं ऊँची ताक पर रखकर भूल गए हैं। अब समाजवादियों के जीवन और राजनीति की धारा बदल गई है      
लिए सँजोकर रखा हुआ है, लेकिन सत्ता की राजनीति के लिए उन्हें पूँजीपतियों की पूँजी सर्वाधिक प्रिय है। यह बात अलग है कि कांग्रेसियों की तरह भ्रष्ट होने की इच्छा पूरी करते समय वे गड़बड़ा जाते हैं। रक्षा-सौदों में दलाली की रकम अपनी किसी संगिनी या दलाल की कंपनी को दिलाने के बाद भंडाफोड़ होने पर वे तड़पने लगते हैं। भाजपा नेतृत्व में विमानों की खरीदी में दलाली का हिस्सा ठीक से तय न होने के बाद समाजवादी का विमानन मंत्रालय छिन जाने पर विद्रोह नहीं होता।

दाल-चावल के धंधे का मंत्रालय मिलने से मुँह बंद हो जाता है। आखिर राजनीति में अब करोड़ों की जरूरत हो गई है। 1989 और 1991 के चुनावों में मैंने बिहार में ऐसे ही बड़े समाजवादियों को लाखों रुपया लेते-देते देखा, लेकिन जब सत्ता मिली, तो वे भी साथ नहीं रह सके। लालूप्रसाद ने सबको अँगूठा दिखा दिया और पूरे बिहार को भ्रष्ट कुशासन से और अधिक कंगाल तथा पिछड़ा बना दिया। शर्मनाक स्थिति तो 2004 में हुई, जब एक-दूसरे के खून के प्यासे लालू बिरादरी वाले समाजवादी भी कांग्रेस की जय-जयकार करने के लिए आगे आए। इसी तरह नेहरू और इंदिरा गाँधी के नाम पर रंक से राजा बने कांग्रेसियों ने भ्रष्ट डिब्बों को कांग्रेसी चादर से ढँककर पाँच साल तक खुलकर लूट-खसोट की छूट दी।

लोहिया के अनुयायियों-समर्थकों ने पिछले 20 वर्षों में बाबरी मस्जिद गिराने और गुजरात में भयावह नरसंहार करने वाले गुनाहगारों को दंडित करवाने के लिए कोई बड़ी पहल नहीं की। इसके विपरीत विध्वंस और नृशंस हत्याओं का षड्यंत्र करने वालों के रथ जोतकर सत्ता की पालकियों को मजबूत कंधे दिए। जॉर्ज जैसे समाजवादियों ने तो कश्मीर में सक्रिय आतंकवादियों और श्रीलंका के लिट्टे से संबद्ध आतंकवादियों को घर में पनाह देने में भी कोई संकोच नहीं किया। शायद उन्हें भ्रम रहा है कि 'हिंसक मनुष्य' होने का लोहियावादी आदर्श में आतंकवादी भी 'स्नेह का पात्र' है।

दूसरी तरफ लोहिया के ईमानदार रहने तथा गरीबों के लिए निरंतर संघर्ष करने के आदर्शों को समाजवादी कहीं ऊँची ताक पर रखकर भूल गए हैं। अब समाजवादियों के जीवन और राजनीति की धारा बदल गई है। समय-चक्र के साथ वे सत्ता के लिए पार्टियाँ और गठबंधन तोड़ते-बनाते रहेंगे। चुनावी यज्ञ की पावन बेला में आप और हम केवल महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और राममनोहर लोहिया के नाम को नमन ही कर सकते हैं।