गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. »
  3. विचार-मंथन
  4. »
  5. विचार-मंथन
Written By WD

आंदोलन की जिद या जिद का आंदोलन

आंदोलन की जिद या जिद का आंदोलन -
-डॉ. ब्रजरतन जोश
इन दिनों राजस्थान की जनता आंदोलनों की चपेट में है। कभी पानी तो कभी बिजली तो कभी आरक्षण। इस समय प्रदेश का मन अनमना है। गुर्जर आंदोलन के कारण अपनी भग्न मनोदशा के चलते वह अपने सुनहरे इतिहास को भी बिसूर रहा है।

  सरकार का सामंतवादी और लोकतंत्र विरोधी व्यवहार और कार्यशैली इन दिनों अपने पूरे यौवन पर है। विपक्ष की भूमिका भी हैरान करने वाली है और कर्नल बैंसला भी अपने वजूद को सच साबित करने के लिए सैकड़ों जानें गँवा देने की अटल साधना पर बैठे हैं      
गुर्जर आंदोलन के जरिए की जा रही माँग कितनी जायज है और कितनी नहीं, यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि यह जानना कि ये आंदोलन है भी कि नहीं। गुर्जर जाति के द्वारा उठाए जा रहे कदमों से अगर कोई आहत, सहमा, डरा और आतंकित है तो वह केवल राजस्थान या उत्तर भारत की जनता नहीं वरन मनुष्यता भी है, जिसके माथे पर कलंक के इतिहास को फिर से फिर-फिर एक नई इबारत के जरिए लिखा जा रहा है।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है की अवधारणा इन दिनों बेमानी लगने लगी है। कहा जा सकता है कि राजनीतिक दलों और गुर्जर जाति के रवैये से यह झूठ साबित होती जा रही है। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि राज और समाज इसे झुठलाने पर तुले हैं। असल में यह आरक्षण के लिए आंदोलन नहीं वरन एक राजनीतिक और व्यक्तिगत अहम की जिद का आंदोलन है या कहा जा सकता है कि आंदोलन करने की जिद का एक बेहतर नमूना है।

सरकार का सामंतवादी और लोकतंत्र विरोधी व्यवहार और कार्यशैली इन दिनों अपने पूरे यौवन पर है। विपक्ष की भूमिका भी हैरान करने वाली है और कर्नल बैंसला भी अपने वजूद को सच साबित करने के लिए सैकड़ों जानें गँवा देने की अटल साधना पर बैठे हैं।

अगर बैंसला यह जातना चाहते हैं कि वे गुर्जर जाति के सर्वेसर्वा और सच्चे हितैषी हैं तो फिर सोचने और चौंकाने वाली बात यह है कि उन्होंने गुर्जर जाति को मुख्य धारा में लाने के लिए, उनमें शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए, इस जाति के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए, इस जाति की दशा और दिशा पर चिंतन करने के लिए, इस जाति की स्थिति और गति पर विचार करने के लिए कभी कोई आंदोलन क्यों नहीं किया।

  यह समय बड़ी-बड़ी बातें करने का नहीं है वरन यह समय मनुष्यता के लिए व्यापक मानव समुदाय के लिए कुछ कर गुजरने का है जिससे आने वाला समय अपनी मानवता पर गौरव कर सके और इतिहास को भविष्य के सामने शर्मशार न होना पड़े      
सरकार आंदोलन को महज एक पार्ट ऑफ पोलिटिक्स मानकर अपने मनमाने सफर पर है। यह सोचने वाली बात है कि एक लोकतांत्रिक सरकार सर्वधर्म सभा, सद्भावना सम्मेलन, सर्वजाति सम्मेलन जैसे उपायों पर गौर न करते हुए लाठी और गोली को अपने अस्त्र और शस्त्र क्यों बनाए है।

एक अन्य पक्ष और भी व्यथित और चकित करने वाला है कि गौरवशाली इतिहास और जाँबाजों की कुर्बानियों को अपने दामन में समेटे यह जनता इस आंदोलन को किसी आनंद प्रदान करने वाले नाटक की भाँति देख रही है। क्यों? क्या इस सबसे अंततः जनता का नुकसान नहीं हो रहा? क्या ये जनप्रतिनिधि इसी जनता के चुने हुए नहीं हैं? अन्य जाति व समाज के अगुवा चुपचाप क्यों यह सह रहे हैं? क्या इससे उनका कोई व्यक्तिगत नफा-नुकसान जुड़ा है?

अधिक गंभीर और चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि पिछले एक सप्ताह में दर्जन भर धर्मगुरुओं ने इस खेल में अपनी एक छोटी किंतु सार्थक भूमिका ढूँढ़ निकाली है, जिसके जरिए वे शांति व सद्भाव की अपील जारी कर खबरों में रहने का सुख बटोर सकते हैं।

चिंता इस बात की भी है कि इतने सारे धर्मगुरुओं की एक साथ अपील के बाद समाज के एक बहुत छोटे हिस्से पर तिनके जितना असर भी नहीं पड़ रहा है, जबकि इसी समाज में महज पचास वर्ष पहले लाठी-लँगोटी धारण किए गाँधी बाबा की एक आवाज पर पूरा समाज गौर किया करता था और इस बात की कोशिश होती थी कि उनके द्वारा सुझाए मार्ग पर चला जाए। क्या धर्म गुरूओं में गॉंधी-सी सत्यता नहीं है?

यह समय बड़ी-बड़ी बातें करने का नहीं है वरन यह समय मनुष्यता के लिए व्यापक मानव समुदाय के लिए कुछ कर गुजरने का है जिससे आने वाला समय अपनी मानवता पर गौरव कर सके और इतिहास को भविष्य के सामने शर्मशार न होना पड़े।