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Written By संदीप तिवारी
Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (19:12 IST)

अमेरिकी चालबाजी या हमारी विचारहीनता

अमेरिकी चालबाजी या हमारी विचारहीनता -
वियना में गुरुवार और शुक्रवार को दो दिनों तक भारत को एटमी सामग्री, तकनीक की आपूर्ति पर परमाणु आपूर्तिकर्ताओं के समूह (एनएसजी) की बैठक हो रही है जिसमें परमाणु करार के मुद्‍दे पर बुश-मनमोहन समझौते के प्रावधानों को पूरी तरह से लागू किए जाने पर समूह के देशों द्वारा बिना शर्त समर्थन देने की बात पर विचार किया जाएगा।

  एनपीटी (परमाणु अप्रसार संधि) और सीटीबीटी (समग्र परमाणु परीक्षणों पर रोक की संधि) पर हस्ताक्षर न करने के बाद भी अमेरिका, एनएसजी में यह सुनिश्चित कराने का प्रयास करेगा कि भारत को बिना किसी नई शर्त को पूरा करने की बाध्यता से छूट मिले      
उम्मीद की जा रही है कि एनपीटी (परमाणु अप्रसार संधि) और सीटीबीटी (समग्र परमाणु परीक्षणों पर रोक की संधि) पर हस्ताक्षर न करने के बाद भी अमेरिका, एनएसजी में यह सुनिश्चित कराने का प्रयास करेगा कि भारत को बिना किसी नई शर्त को पूरा करने की बाध्यता से छूट मिले। पर क्या वास्तव में ऐसा ही हो रहा है? सबसे पहली बात है कि एनएसजी में भारत शामिल नहीं है और इस मामले पर मोर्चा संभालने ‍की जिम्मेदारी अमेरिका पर निर्भर है लेकिन क्या अमेरिका पूरी तरह से भारत के साथ है?

पहले भी अगर पूरा अमेरिकी समर्थन होता तो क्या एनएसजी की पहली बैठक में ऑस्ट्रिया, न्यूजीलैंड, नीदरलैंड्‍स जैसे देश अमेरिका का विरोध करते ? अगर ऐसा न होता तो क्या समझौता प्रस्ताव में 50 तक संशोधन तक करने की बात उठती?

इन संशोधनों को लेकर अमेरिकी मौन क्या यह नहीं दर्शाता कि 4-5 सितम्बर की बैठक में जो संशोधन प्रस्ताव करने को कहा गया है ‍वे भारत के लिए गले की फांस बन सकते हैं? अमेरिका का रुख क्या नहीं दिखाता कि हाइड एक्ट भी पूरी सुविचारित नीति के तहत समझौते में डाला जा रहा है और क्या मनमोहन सरकार सारे प्रयासों के बावजूद इस समझौते को बचा पाएगी ?

हाल ही में अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता रॉबर्ट वुड ने कहा है कि करार में बदलाव की कोई योजना नहीं है लेकिन आप जीवन में किसी बात की संभावना से इनकार नहीं कर सकते। इस बयान से क्या अर्थ निकाला जा सकता है? उनका आगे यह भी कहना था कि अगर बदलाव होते हैं तो वह निश्चित तौर पर भारत और अमेरिका की सहमति से ही होंगे। पर सवाल यह है कि 45 देशों के इस समूह में समझौते के मसौदे पर करीब 6 देशों की आपत्तियों के उत्तरों में क्या भारत की सहमति होगी?

क्या एनएसजी से जुड़े देश पूरी तरह से निष्पक्ष रवैया अपनाएँगे ? क्या भारत का विरोध करने वाले देश यह नहीं जानते हैं कि दुनिया की आबादी के छटवें भाग वाले इस देश ने कभी भी परमाणु प्रसार को बढ़ावा नहीं दिया और यह परमाणु शक्ति के दोहन को लेकर जिम्मेदार रहा है ?

क्या उन्हें यह नहीं पता कि पूर्णत: परमाणु निशस्त्रीकरण की नीति भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का ही विचार था जोकि बड़े और शक्ति सम्पन्न देशों की दोहरी नीतियों के कारण कभी भी अमल में नहीं लाया जा सका ? क्या परमाणु ताकतों की वैश्विक व्यवस्था भारत को पाकिस्तान, ईरान और उत्तरी कोरिया जैसे देशों के साथ जोड़कर नहीं देखती? क्या भारत की आर्थिक विकास की जरूरतें इन देशों से ज्यादा बड़ी नहीं हैं?

लेकिन भारत पर प्रतिबंध लगाए रखे जाने के पक्षधर एड मार्की, एलन तौशर और अन्य विचारक यह नहीं जानते कि एक ओर वे भारत पर परमाणु प्रतिबंध लगाए रखने का गुणगान करते नहीं थकते और दूसरी ओर यह भी नहीं देख पाते कि दुनिया की अधूरी परमाणु शक्ति व्यवस्था में ईरान और उत्तर कोरिया जैसे देश अपने परमाणु कार्यक्रम दबावों के बावजूद आगे बढ़ाने से नहीं डरते?

इन देशों के साथ साथ चीन और इसके आयातित पाकिस्तानी परमाणु कार्यक्रम पर रोक लगाने के लिए एनएसजी, अमेरिका या विश्व की अन्य शक्तियों ने क्या कारगर कदम उठा लिए? इसलिए अगर यह कहा जाए कि भारत के प्रति दोहरी नीति अपनाते हुए अमेरिका ने एनएसजी देशों को भी इस्तेमाल किया है तो इसमें क्या गलत है? इसका नतीजा यह हो रहा है कि भारत अब 'स्पष्ट और बिना शर्त छूट' के स्थान पर 'स्पष्ट रियायत' चाहने लगा है।

जिन नई शर्तों को अमेरिका एनएसजी के विरोधी सदस्यों के नाम पर मनवा लेगा उनका सार तत्व भी इसी में निहित होगा कि वे अपने कार्यकारी स्वरूप में हाइड एक्ट की तरह हों लेकिन स्पष्ट रूप से उन्हें वर्णित भी नहीं किया जाए। संभवत: यही कारण है कि भारत के परमाणु परीक्षण पर रोक लगाने की जो बात अप्रत्यक्ष रूप से कही गई थी अब वह वाशिंगटन पोस्ट में अमेरिकी प्रशासन की चिट्‍ठी से पूरी तरह साबित हो गई है।

सच बात तो यह है कि भारत की केन्द्र सरकार के एकसूत्री परमाणु समझौता कार्यक्रम के चलते यह हालत पैदा हो गई है कि सुरक्षित परमाणु सुविधाओं के नाम पर ऐसी सभी गतिविधियों को छोड़ने को भी कह दिया गया जोकि किसी भी गैर-परमाणु हथियार सम्पन्न देश के लिए जरूरी नहीं हैं।

पर एनएसजी में विरोध के नाम पर अब अमेरिका को हाइड कानून की धारा 106 को प्रभावी बनाने का जरिया मिल गया है। वरना पहले से ही भारत की असैन्य परमाणु संवर्द्धन और प्रसंस्करण तकनीकों तक पहुँच रोकने के लिए एनएसजी के कानूनों, प्रावधानों की मदद लेने की क्या जरुरत पड़ती?

  वामपंथी नेताओं की आशंकाएँ ही अधिक सच साबित होती जान पड़ रही हैं। दोनों देशों के समझौते के संयुक्त बयान में जो घोषणाएँ भारत ने की थीं, वे ही परोक्ष रूप से हाइड एक्ट और स्पष्ट रूप से 123 करार के प्रावधानों का स्थान लेती नजर आ रही हैं      
वास्तव में यह कहना गलत न होगा कि वामपंथी नेताओं की आशंकाएँ ही अधिक सच साबित होती जान पड़ रही हैं। दोनों देशों के समझौते के संयुक्त बयान में जो घोषणाएँ भारत ने की थीं, वे ही परोक्ष रूप से हाइड एक्ट और स्पष्ट रूप से 123 करार के प्रावधानों का स्थान लेती नजर आ रही हैं। अब तो यह भी लगने लगा है कि कहीं इस समझौते से भारत को लाभ के स्थान पर नुकसान की तो संभावना नहीं है ?

अब तो यह स्पष्‍ट हो जाना चाहिए कि परमाणु करार के मुद्‍दे पर अमेरिका चालबाजी कर रहा है। एक तरफ तो वह अपने सांसदों को बता रहा है कि अगर भारत परमाणु परीक्षण करता है और न केवल समझौता रद्‍द हो जाएगा वरन् एटमी सामग्री की आपूर्ति की अनुमति भी नहीं होगी।

बुश प्रशासन की ओर से लिखा गया (जो वॉशिंगटन पोस्ट समाचार पत्र में छपा है) कहीं यह तो नहीं बताता कि एनएसजी से भारत को बिना शर्त छूट मिलना संभव नहीं है?

ऐसा समझा जा रहा है कि न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रिया, आयरलैंड और स्विट्जरलैंड समेत छह देशों ने एनएसजी की दो दिवसीय बैठक में अपनाई जाने वाली रणनीति पर चर्चा की है। यह बैठक इस बात पर विचार करने के लिए बुलाई गई है कि भारत को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ परमाणु कारोबार की इजाजत दी जाए या नहीं।

ये देश भारत को छूट दिए जाने को लेकर अब भी अपनी आशंकाएँ जाहिर कर रहे हैं। उनका मानना है कि इससे भूमंडलीय अप्रसार की व्यवस्था से समझौता होगा। भारत की मुश्किलें अमेरिकी विदेश मंत्रालय के उस दस्तावेज से भी बढ़ गई हैं जिसमें भारत के पास ईंधन के रिसाइकल करने का अधिकार नहीं होने और परमाणु परीक्षण करने की स्थिति में परमाणु सहयोग खत्म करने की बातों को साफ कर दिया गया है।

इस दस्तावेज का इस्तेमाल एनएसजी के अहम सदस्य इस बात पर जोर देने के लिए कर सकते हैं कि छूट में इस तरह के प्रावधानों को शामिल किया जाए कि भारत को परमाणु हथियार न बनाने देने के नाम पर समझौते के मूल स्वरूप को ही इस तरह का बना दिया जाए कि यह अमेरिका और एनएसजी सदस्यों की इच्छाओं के अनुकूल, अनुरूप हो जाए।


हालाँकि वॉशिंगटन में अमेरिकी प्रवक्ता ने जोर देकर कहा है कि वह भारत के साथ परमाणु समझौते को मझधार में नहीं छोड़ सकता लेकिन इस समझौते को अपनी जरूरतों के अनुरूप बनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। जबकि प्रवक्ता ने इसे अमेरिकी मजबूरी बताते हुए कहा कि काफी व्यस्त समयसीमा के तहत अमेरिका काम कर रहा है और यह सुनिश्चित करना चाहता है कि इसके भीतर यह मसौदा पारित हो जाए।

  अमेरिकी राजदूत मलफर्ड ने भी बुश के पत्र पर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कहा है कि अमेरिका ने भारत पर कोई नई शर्त नहीं लगाई है। बैठक में अमेरिका की ओर से पैरवी करने के लिए अमेरिकी विदेश उपमंत्री बिल बर्न्स और जॉन रूड वियेना में मौजूद हैं।      
अमेरिकी राजदूत मलफर्ड ने भी बुश के पत्र पर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कहा है कि अमेरिका ने भारत पर कोई नई शर्त नहीं लगाई है। बैठक में अमेरिका की ओर से पैरवी करने के लिए अमेरिकी विदेश उपमंत्री बिल बर्न्स और जॉन रूड वियेना में मौजूद हैं।

लेकिन 'वॉशिंगटन पोस्ट' में छपा राष्ट्रपति बुश का पत्र भारत के लिए घातक साबित हो सकता है। इस पत्र के बाद परमाणु अप्रसार का नाम लेकर भारत पर दबाव डालने वाले देश अपना रुख और कड़ा कर सकते हैं कि राष्ट्रपति बुश के पत्र के अनुरूप एनएसजी में मसौदा संशोधित किया जाए। हालाँकि भारत का कहना है कि राष्ट्रपति बुश के पत्र में जो कहा गया है इसका उल्लेख अमेरिकी कांग्रेस द्वारा हाइड कानून में भी है जिसे भारत ने मानने से इनकार कर दिया है। भारत केवल द्विपक्षीय 123 समझौते से ही निर्देशित होगा।

भारत एनएसजी का सदस्य नहीं है, लेकिन वह एनएसजी के सदस्यों की गुरुवार दोपहर बाद फिर से अलग अनौपचारिक बैठक कर परमाणु अप्रसार और निरस्त्रीकरण को लेकर अपनी अब तक की नीति की व्याख्या कर रहा है और परमाणु अप्रसार को लेकर उनकी चिंताओं का निराकरण करेगा। इस बैठक को विदेश सचिव मेनन और श्याम सरन संबोधित करेंगे।

एनएसजी की 21 और 22 अगस्त को वियेना में पहले दौर की बैठक में आम राय नहीं बन पाने के कारण गुरुवार (4 सितंबर) को दूसरे दौर की बैठक बुलाई गई है जिसमें परमाणु अप्रसार को लेकर चिंता जाहिर करने वाले देशों की माँगों से कुछ समझौता करते हुए नया संशोधित मसौदा पेश किया गया है। लेकिन परमाणु अप्रसार के कट्टर समर्थक देशों का रवैया अधिक नहीं बदला है। भारत ने इन देशों की चिंताओं के अनुरूप कुछ सुझावात्मक बातें संशोधित मसौदे में मानी है, लेकिन चिंता जाहिर करने वाले देश इसे केवल सतही ही बता रहे हैं।

अमेरिका ने एनएसजी की बैठक से एक दिन पहले ही यह भी साफ कर दिया है कि न्यूक्लियर फ्यूल की आपूर्ति की गारंटी का मतलब यह कतई नहीं है कि भारत द्वारा परमाणु परीक्षण की स्थिति में वह मदद करेगा या उसके संभावित परिणामों से बचाएगा। जबकि भारत में अभी तक सरकार की ओर से बताया जाता रहा है कि परमाणु टेस्ट करने की स्थिति में अमेरिका ने संधि टूटने के बावजूद एनएसजी से न्यूक्लियर फ्यूल के सप्लाई का आश्वासन दिया है।

वियना में एनएसजी की बैठक के एक दिन पहले अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की विदेशी मामले की समिति के अध्यक्ष हावर्ड बरमैन ने भारत-अमेरिका परमाणु करार से जुड़े 45 सवालों के अमेरिकी विदेश मंत्रालय के जवाब जारी किए। इन जवाबों से भारत-अमेरिका परमाणु करार को लेकर तस्वीर बहुद हद तक साफ हो गई है।

वॉशिंगटन पोस्ट में छपी रिपोर्ट के अनुसार बरमैन के एक प्रवक्ता ने कहा है कि उन्होंने इन जवाबों को इसलिए सार्वजनिक किया है क्योंकि अमेरिकी कांग्रेस के पास इसकी सूचना होनी चाहिए। खबर में यह भी दावा किया गया है कि बुश प्रशासन द्वारा लिखी गई इस चिट्ठी की जानकारी यूपीए सरकार को पहले से ही थी।

दरअसल विदेशी मामले की समिति के पूर्व अध्यक्ष टॉम लैंटोस ने पिछले साल अक्टूबर में विदेश मंत्रालय से 45 सवाल पूछे थे और उनके जवाब इस साल 16 जनवरी को भेजे गए थे। लेकिन पिछले नौ महीने तक इन दस्तावेजों को गोपनीय बनाए रखा गया और अब वियना में न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) की बैठक से ठीक पहले सार्वजनिक किया गया है।

  वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार इन जवाबों के सबके सामने आने से करार पर चर्चा के दौरान भारत में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार गिर सकती थी इसलिए क्लासीफाइड नहीं होने के बावजूद अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने इसे गोपनीय बनाए रखा      
वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार इन जवाबों के सबके सामने आने से करार पर चर्चा के दौरान भारत में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार गिर सकती थी इसलिए क्लासीफाइड नहीं होने के बावजूद अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने इसे गोपनीय बनाए रखा।

बरमैन ने हाल ही में अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने धमकी दी थी कि अगर बुश प्रशासन ने भारत को दी जा रही एनएसजी छूट में अतिरिक्त शर्तें नहीं जोड़ी तो अमेरिकी कांग्रेस में करार को ब्लॉक कर दिया जाएगा।

अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने इन प्रश्नों के उत्तरों में कहा है कि जैसा कि 123 संधि में कहा गया है अगर भारत ने कोई परमाणु विस्फोट किया तो अमेरिका को उसके साथ तमाम परमाणु सहयोग तुरंत रोकने का अधिकार होगा। इसमें परमाणु ईंधन की आपूर्ति भी शामिल है।

'वॉशिंगटन पोस्ट' की रिपोर्ट से वामपंथियों और भाजपा के ठंडे पड़ गए समझौता विरोधी अभियान में अचानक जान आ गई है। दोनों दलों ने मनमोहन सरकार को यह कहते हुए कटघरे में खड़ा किया कि उसने देश को गुमराह किया है। इससे न सिर्फ सरकार की पोल खुल गई है, बल्कि यह भी साबित हो गया है कि उसने देश के सुरक्षा हितों के साथ समझौता किया है, जबकि कांग्रेस यह कहते हुए बचाव की मुद्रा में आ गई कि जो भी खुलासा हुआ है वह अमेरिकी प्रशासन और अमेरिकी विधायिका की आपसी बातचीत है।

विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने वॉशिंगटन में बुश के पत्र पर टिप्पणी से इनकार कर दिया है, लेकिन यहाँ विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि भारत अमेरिका के साथ किए गए द्विपक्षीय 123 समझौते से ही बँधा है। प्रवक्ता ने स्पष्ट किया कि परमाणु परीक्षण के मसले पर भारत की नीति में कोई बदलाव नहीं आया है। प्रवक्ता ने यह भी कहा कि अपनी नीति के तहत हम किसी देश के अंदरूनी पत्र व्यवहार पर टिप्पणी नहीं करते।

भाजपा के उपाध्यक्ष यशवंत सिन्हा ने कहा कि विदेशी मामलों से संबंधित समिति को बुश प्रशासन की ओर से भेजा गया खत कोई मामूली बात नहीं है। इस खत से अमेरिकी सरकार की नीति झलकती है। उन्होंने कहा कि यह खत नौ महीने पुराना है और भारत सरकार को इसकी जानकारी होनी चाहिए।

सिन्हा ने कहा कि सरकार ने दावा किया है कि भारत के पास परीक्षण का अधिकार बना रहेगा, जबकि बुश प्रशासन के पत्र से साफ हो गया है कि भारत के परमाणु परीक्षण करते ही सभी प्रकार का सहयोग रोक दिया जाएगा।

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया का कहना है कि इस खत से असैन्य परमाणु करार के मुद्दे पर वाम दलों का विरोध सही साबित हुआ है और प्रधानमंत्री को इसका जवाब देना होगा। पार्टी के राष्ट्रीय सचिव अतुल कुमार अंजान ने कहा कि हाइड एक्ट के प्रावधानों के डील पर असर से प्रधानमंत्री पूरी तरह वाकिफ थे और उन्हें देश को जवाब देना होगा। उन्होंने कहा कि परमाणु करार का समर्थन करने वाले दलों को भी देश को यह बताना होगा कि करार पर सरकार को आगे बढ़ने का क्या अधिकार था।

सीपीएम ने कहा है कि वाम दलों ने सरकार को पहले ही चेतावनी दी थी, जो इस खुलासे के बाद सच साबित हुई है। पार्टी ने कहा है कि प्रधानमंत्री ने संसद में जो भी दावे किए थे सब झूठे साबित हो गए हैं। सीपीएम नेता वृंदा करात ने सरकार पर झूठ बोलने का आरोप लगाते हुए कहा कि यह बेहद खेदजनक स्थिति है और देश की ट्रैजिडी है कि आप ऐसी सरकार को स्वीकार करते हैं जो देश को बेच सकती है।