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Written By Author अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)
Last Updated : बुधवार, 29 अप्रैल 2020 (14:01 IST)

शब्दयु्द्ध का चक्रव्यूह कैसे टूटे?

शब्दयु्द्ध का चक्रव्यूह कैसे टूटे? - word war in Corona period
मनुष्य एक ऐसा जीव है जिसे सहज मनुष्य रहकर ही जीवन जीते रहने में संतोष नहीं है। प्रत्येक मनुष्य में अपनी निजी विशेषता की अनोखी चाह आजीवन बनी रहती है। मनुष्य मन में विशिष्टता रूपी इस असंतोष ने ही मनुष्य के रूप में नाम-रूप के असंख्य भेद और मत मतांतर इस धरती पर खड़े कर दिए, जिन्हें पाटना या कम करना हम सबके लिए आज के लोक जीवन की सबसे बड़ी चुनौती है।
 
वैसे एक जैसी दो प्राकृतिक रचना न होना प्रकृति का नियम है। पर इस कुदरती नियम के बाद भी प्रकृति की निगाह में मनुष्य रूप में अभिव्यक्त हुआ जीवन मूलत: मनुष्य ही है। मनुष्य के पास रूप या शरीर तो मनुष्य का ही है पर स्वरूप का कोई साकार स्वरूप नहीं है। इसी से इस धरती पर जन्मा मनुष्य कल क्या कर बैठे इसका कोई ओर-छोर नहीं है। फिर भी मनुष्य के विचार ही उसके स्वरूप या स्वभाव को रूप रंग देते हैं। 
 
मनुष्य के मुंह से निकली ध्वनि तरंगें जिसे 'शब्द' की संज्ञा दी गई, मनुष्यों का परस्पर परिचय कराते हैं। शब्द तारक भी होते हैं, मारक भी होते हैं, प्रेरक और उद्धारक भी होते हैं। शब्दों से ही भीति भी उत्पन्न होती और प्रीति भी। शब्द को ब्रम्ह भी माना गया है। ब्रम्ह सैदव नि:शब्द होता है। पर शब्द से आध्यात्मिक अनुभूति, शांति, गतिशीलता, हलचल, अशांति, प्रेरणा, प्रेम, भय, नफरत, कटुता से लेकर जीवन की अंतहीन हलचलें निरंतर उठती-गिरती रहती हैं। शब्दों का प्रवाह ऊर्जा की किरणों की एक अनंत श्रृंखला है। इसी से शब्द का स्वरूप और विस्तार हर तरह का और हर जगह है। प्रत्येक जीवन की ध्वनि तरंगें जगत में जीवन के विभिन्न स्वरूप की आहट के समान हैं। 
 
आज का काल खंड जिसे आधुनिक काल या तकनीक का काल भी कहा या माना जाता है, में मनुष्य के जीवन में मूलभूत परिवर्तन यह दिखाई देता है कि मनुष्य का शरीर तो आराम पसंद या स्थिर स्थिति का आदी होता जा रहा है। पर विचारों की सुनामी चौबीसों घंटे, बारहों महीने है। मनुष्य को घर या कुर्सी पर बैठे-बैठे शब्द युद्ध करने में असीम आनंद की अनुभूति होने लगी है। शब्द युद्ध आधुनिक मनुष्य की नई वृत्ति और प्रवृत्ति बनता जा रहा है। शब्द युद्ध के कारण ही मनुष्य की चिंतन प्रणाली या आपसी व्यवहार एकाएक गहरे से प्रभावित हो गया है।
 
ध्वनि, लिपि, नृत्य और अभिनय ये मनुष्य के मन की अभिव्यक्ति के बहुत प्राचीन माध्यम हैं। ध्वनि सिर्फ मुंह की तरंगों से ही नहीं अन्य माध्यमों से भी उत्पन्न होती हैं। इसी कारण मनुष्य ने दो माध्यमों की टकराहट या कमान से ध्वनि पैदा करने की कला ‍सृजित की। ढोल, नगाड़े, तबला, सितार, झांज-मंजीरे जैसे ध्वनि प्रधान साज साधन गढ़े गए। थाली पीटना, ताली बजाना और घंटे बजाना भी इसी क्रम में है। लिपि और चित्रण का भी प्राचीन काल से अस्तित्व है।
 
लिपि या अक्षर को कम लोग समझ सकते थे क्योंकि लिपि के लिए अक्षर के स्वरूप को पढ़ना और समझना, सीखना जरूरी था। जबकि चित्र के साथ ऐसा नहीं, वह सर्वव्यापी आदिकाल से है, उसका जो स्वरूप है, वह जो भी देख रहा है उसे समझ आ रहा है, चित्र देखने में विशिष्टता का भाव नहीं रहा। पर चित्र बनाने में जरूर चित्रकार को विशिष्टता का दर्जा आदिकाल से प्राप्त है क्योंकि हर कोई जैसे देख सकता है वैसे बना या चित्रित नहीं कर सकता। 
 
प्राचीन काल में लिखने-पढ़ने वालों की संख्या बहुत कम थी तो मनुष्य समाज में लिखने-पढ़ने वालों ने विशिष्ट दर्जा प्राप्त कर लिया। मनुष्य इतिहास में लेखन और चित्रण की बहुत गहरी और लंबी परंपरा है। फिर भी बहुत सारे लोग ऐसे लेखन या चित्रण के के कार्यों में नहीं लगे थे। मनुष्यों का सारा या अधिकांश व्यवहार लोक व्यवहार होता था, आमने-सामने और प्रत्यक्ष होता था। इसी से समाज में बोलचाल और लेखन में शब्दों के इस्तेमाल की लोकमर्यादा की गहरी नींव पड़ी। हमारे शब्द हमारी सोच की प्रत्यक्ष पहचान हैं। यह लोक मर्यादा हमको बहुत तौल-मोल कर बोलने की दिशा में प्रवृत्त करती आई। 
 
हमारी बोली के साथ ही हमारे बोलचाल का ढंग और हावभाव से भी मानव समाज परस्पर एक-दूसरे का मूल्यांकन या आदर भाव विकसित करता था। यह काल मानव इतिहास का बहुत लम्बा काल है, इसी कांलखंड के इतिहास में झांकें तो हमें असंख्य प्रेरक, उद्‍बोधक, चिंतक और दार्शनिकों की श्रृंखला मनुष्य समाज में दुनिया के हर हिस्से में समान रूप से दिखाई देती है।
 
यह सब एक दूसरे की प्रत्यक्ष उपस्थिति में किए गए लोक व्यवहार की निष्पत्ति है। इसी कारण वैचारिक स्तर पर प्राचीन कालखंड हमें कृतित्व में विशिष्ट और आचरण में शिष्ट दिखाई पड़ता है। ऐसा नहीं कहा या माना जा सकता है कि विषैले या चुभने वाले शब्दबाण प्राचीनकाल में नहीं थे पर वे प्रत्यक्ष रूप से आमने-सामने ही चलते थे, जिन्हें प्रत्यक्ष सुना या समझा जाना संभव था या घटनास्थल पर जो मौजूद होते थे वे ही उससे प्रभावित होते थे अन्य नहीं। 
 
आज के सूचना प्रौद्योगिकी के कालखंड में मनुष्य के मारक शब्दों की क्षमता महामारी से भी तेज होती जा रही है। विषाक्त शब्दों के युद्ध की श्रृंखला को तोड़ने का कोई उपाय ही नहीं है। विषाक्त एवं मारक शब्द हर क्षण बढ़ते ही जाते हैं। जब मनुष्य के पास शब्दों को लिपि या ध्वनि के रूप में निरंतर प्रसारित करने का विश्वव्यापी औजार समूची मानवी सभ्यता के जीवन का अंग बन गया तब से लगता है कि मानवी सभ्यता की शाब्दिक मर्यादाओं को क्या हो गया?
 
आज के कालखंड में हम सब विषाक्त शब्दों के चक्रव्यूह में फंस गए हैं। आज का मनुष्य शब्दों की आभासी मारक क्षमता से भयाक्रांत होने लगा है। शब्द विचार विनिमय और संवाद के माध्यम न होकर नित नए विवाद और मानवीय निराशा के कारक बनते जा रहे हैं। यह सब इसलिए है कि आज हमारे सारे व्यवहार आभासी और पीठ पीछे होते जा रहे हैं। प्रत्यक्ष हम मिल नहीं पाते, बोल नहीं पाते। हमारे घर पास-पड़ोस में आपसी संवाद नहीं है पर दुनिया जहान के शब्द युद्धों से हम सब अपने आपको तरोताज रखने के आदी होते जा रहे हैं। 
 
शब्द युद्ध की निरंतर छापामार लड़ाई की नित नई तकनीकें बनाई जा रही हैं। भिन्न विचार के लोगों को डराने-धमकाने के लिए बाकायदा पूर्णकालिक विषाक्त शब्द सैनिकों को वेतन भोगी की तरह भर्ती किया जा रहा है। विषाक्त विवादों की बनी बनाई स्क्रिप्ट उन्हें निरंतर देकर फायर की तरह प्रसारित करने के आदेश दिए जा रहे हैं। बना बनाया डिब्बाबंद और पका-पकाया खाना ही आज की सभ्यता का आविष्कार नहीं है। बने बनाए संहारक शब्दास्त्रों को बिना सोचे दिमागों में डालते रहने वाले युवा यांत्रिक मनुष्यों की फौज खड़ी कर ली गई है। यह सब प्रत्यक्ष दिन-रात देखते रहने के कारण आज की दुनिया में एक पीढ़ी ऐसी बड़ी हो गई है, जिसे शब्द की सकारात्मक, आध्यात्मिक और मौन की ब्रम्ह शक्ति का अनुमान ही नहीं है। 
 
यंत्र और मानव की नई यांत्रिक सभ्यता बटन दबाने को ही जीवन का क्रम मानने लगी है। निसंदेह यंत्र ने आज के आम मनुष्य को वह शक्ति दी है, जो आज से पहले के मनुष्यों के पास इस्मेताल के लिए नहीं थी। यंत्र के माध्यम से गतिशील शब्दों की सुनामी में अच्छा खासा मनुष्य विचार और शब्दों की जीवनदायिनी अनुभूति से वंचित हो रहा है। 
शब्द वही हैं जो प्राचीन मनुष्य ने गढ़े पर उनके अधीरे संप्रेषण ने शब्द और विचारों की प्रेरक और सृजनात्मक शक्ति के धैर्य को कमजोर किया है। आज हम ऐसी अधीरी दुनिया के वासी होते जा रहे हैं जहां अशांति, अराजकता, अन्याय, अत्याचार तो ब्रेकिंग न्यूज होकर वायरल है और शान्ति, सद्भाव, सृजनात्मक विचार-व्यवहार निरंतर इतिहास की वस्तु बनते जा रहे हैं। 
 
कोरोना वायरस से बचाव का आसान उपाय हम सबको यह समझाया जा रहा है कि हम हर बार किसी भी बाहरी वस्तु को छूने के बाद अपने हाथों को साबुन से धोकर, कीटाणुरहित करके ही घर में प्रवेश करें। उसी तरह विषाक्त शब्दों या विचारों के मन में आते ही पूरे धीरज और सद्‍भाव के साथ अपने शब्दों और विचारों को अर्न्तमन में नहला-धुलाकर ही अभिव्यक्त करें या बोलें या लिखें या आगे प्रसारित करें। 
 
शब्द ब्रम्ह है, उसकी प्रेरक, आध्यात्मिक एवं प्राकृतिक शक्ति आज की भीड़ भरी विभिन्नताओं वाली दुनिया की पहली जरूरत है। स्वस्थ, ताजगीपूर्ण, सहज, सरल, प्राकृतिक दुनिया शब्दों की असीम प्रेरक ऊर्जा के विस्तार से ही संभव है। मनुष्य की मनुष्य होने की विशिष्टता हम सबके द्वारा संप्रेषित शब्दों में निहित है। अधीरी और अराजक, दूषित यांत्रिक मनुष्य की अशिष्टता में नहीं।  (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)