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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

भारत के 10 कुख्यात सरगना

भारत के 10 कुख्यात सरगना - top ten criminals of india
भारत के कुख्‍यात सरगना और मोस्ट वॉन्टेड तो कई हैं, जैसे कई कश्मीर के आतंकवादी-अलगाववादी, पूर्वोत्तर के उग्रवादी, बंगाल, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, ओडिशा आदि जगहों के नक्सलवादी और माओवादी। अंडरवर्ल्ड के डॉन आदि। लेकिन हम यहां बात करेंगे उन 10 कुख्‍यात सरगनाओं की जिनके कारण भारत को परेशानी झेलना पड़ी।

विश्व के हर देश में कुख्‍यात लोग होते हैं। 'कुख्यात' अर्थात जो अपनी बुराइयों के लिए प्रसिद्ध हैं। इन कुख्‍यातों में से कुछ ऐसे रहते हैं जिनको समूचा विश्‍व जानता है। भारत में भी ऐसे ही कुछ कुख्‍यात लोग हुए हैं जिनके कारण भारत ही नहीं, विश्‍व के कई देश परेशान होते रहे हैं लेकिन हर बुरे आदमी का अंत भी बुरा ही होता है। आओ जानते हैं भारत के उन 10 कुख्‍यात लोगों के बारे में जिन्हें ढूंढने में पुलिस के पसीने छुट गए, लेकिन...

अगले पन्ने पर पहला कुख्‍यात...

ठग बहराम : ठग बहराम के कारण अंग्रेज सरकार को ठग विरोधी कानून बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। 1790 से 1840 तक उसने 931 हत्याएं कीं। वह अपने शिकार की हत्या उनका गला दबाकर किया करता था। 'गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड' के अनुसार सन् 1790-1840 के बीच महाठग बहराम ने 931 सीरियल किलिंग की, जो कि विश्च रिकॉर्ड है। वर्ष 1840 में उसे अंग्रेज सरकार ने सजा-ए-मौत दे दी।

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भूपत सिंह चौहाण : भूपतसिंह के कहर से जहां राजे-रजवाड़े और अंग्रेज कांपा करते थे, वहीं गरीबों के दिल में उसके लिए सर्वोच्च स्थान था। यही कारण था कि उसे 'इंडियन रॉबिनहुड' कहा जाता था जिसे कभी पुलिस पकड़ नहीं पाई। भूपत की कई क्रूरताभरी कहानियां हैं तो कई उसकी शौर्यगाथाओं और गरीबों के प्रति उसके प्रेम का गुणगान करती हुई भी हैं।

गुजरात के काठियावाड़ में रहने वाले भूपत सिंह को अंतिम समय तक न तो किसी राजा की सेना पकड़ सकी और न ही ब्रितानी फौजें। अंतत: कई अंग्रेजों को मौत की नींद सुला देने वाले भूपत सिंह के बिना ही अंग्रेजों को वापस इंग्लैंड लौटना पड़ा। अंग्रेजी शासन के अंत के बाद इधर भारत सरकार भी भूपत को कभी पकड़ नहीं सकी।

भूपत सिंह राज्य का धाकड़ खिलाड़ी था। दौड़, घुड़दौड़, गोला फेंक में कोई उसका कोई सानी नहीं था। लेकिन उसकी जिंदगी में ऐसी घटनाएं हुईं कि उसने हथियार उठा लिए। दरअसल, भूपत के जिगरी दोस्त और पारिवारिक रिश्ते से भाई राणा की बहन के साथ उन लोगों ने बलात्कार किया जिनसे राणा की पुरानी दुश्मनी थी। जब इनसे बदला लेने राणा पहुंचा तो उन लोगों ने राणा पर भी हमला कर दिया। भूपत ने किसी तरह राणा को बचा लिया, लेकिन झूठी शिकायतों के चलते वह खुद इस मामले में फंस गया और उसे काल-कोठरी में डाल दिया गया। बस, यहीं से खिलाड़ी भूपत मर गया और डाकू भूपत पैदा हो गया। भूपत ने जेल से फरार होते ही राजाओं और अंग्रेजों के खिलाफ जंग ही छेड़ दी थी।

1947 की आजादी के बाद पूरे देश में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। इस दौरान भूपत और उसके साथियों ने अपने दम पर सैकड़ों महिलाओं की आबरू बचाई।

भूपत सिंह ने सैकड़ों बार पुलिस को चकमा दिया। देश आजाद होने के बाद 1948 में भूपत के कारनामे चरम पर पहुंच गए थे और पुलिस भूपत को रोकने और पकड़ने में पूरी तरह नाकाम हो गई थी। 60 के दशक में डाकू भूपत सिंह अपने तीन खास साथियों के साथ देश छोड़कर गुजरात के सरहदी रास्ते कच्छ से पाकिस्तान जा पहुंचा। कुछ समय बाद उसने वापस भारत आने का इरादा किया, लेकिन भारत-पाक पर मचे घमासान के चलते उसके लिए यह मुमकिन नहीं हुआ।

अंतत: पाकिस्तान में उसने मुस्लिम धर्म अंगीकार कर लिया और अब पाकिस्तान में उसे अमीन यूसुफ के नाम से जाता जाता है। धर्म-परिवर्तन के बाद उसने मुस्लिम लड़की से निकाह किया। उसके 4 बेटे और 2 बेटियां हुईं। हालांकि उसने व उसके अन्य साथियों ने भारत आने की कई कोशिशें कीं, लेकिन उसकी यह इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी और पाकिस्तान की धरती पर ही 2006 में उसकी मौत हो गई। उसे मुस्लिम रीति-रिवाजों से दफना दिया गया।

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रंगा और बिल्ला : रंगा और बिल्ला ने 1978 में 2 बच्चों की नृशंस हत्या कर दी थी। यह कांड देश ही नहीं, विदेश में भी खासा चर्चित हुआ था। यह दौर ही ऐसा था जबकि बच्चों की हत्या करने के मामले में कोई सोच भी नहीं सकता था, जैसे कुछ दिनों पूर्व पाकिस्तान के पेशावर के एक स्कूल में आतंकवादियों ने हमला कर 132 बच्चों की हत्या कर दी थी। आज के दौर में यह सबसे जघन्य और वीभत्स अपराध है।

हालांकि अब देश में कई रंगा और बिल्ला पैदा हो गए हैं, लेकिन रंगा और बिल्ला द्वारा किए गए जघन्य कांड के बारे में आज भी लोगों को मालूम है। रंगा और बिल्ला ने एक सैन्य अधिकारी के बच्चों को अगवा कर दुष्कर्म के बाद उनको मौत के घाट उतार दिया था। केस चलने के बाद दोनों को फांसी दे दी गई।

कुलजीत सिंह उर्फ रंगा और जसबीर सिंह उर्फ बिल्ला ने 29 अगस्त 1978 को संजय और गीता चोपड़ा का फिरौती के लिए अपहरण कर लिया। 3 दिन बाद दोनों भाई-बहनों के शव बरामद किए गए। रंगा-बिल्ला को एक ट्रेन से गिरफ्तार किया गया और 4 साल तक चली सुनवाई के बाद 1982 में उन्हें फांसी दे दी गई। दोनों बच्चों के नाम पर बाद में वीरता पुरस्कार शुरू किया गया, जो हर साल दिया जाता है।

अगले पन्ने पर चौथा कुख्‍यात...
चार्ल्स शोभराज : चार्ल्स शोभराज को कौन नहीं जानता? दुनिया के सबसे शातिर और खतरनाक सीरियल किलर्स चार्ल्स शोभराज को 'बिकिनी किलर' भी कहा जाता है। माना जाता है कि 1972-1976 के बीच उसने 24 लोगों की हत्या की थी। उसकी चर्चा इसलिए भी की जाती है कि उसने दुनियाभर की पुलिस को खूब चकमा दिया। भेष बदल-बदलकर वह कई देशों का दौरा करता था। हर बार पुलिस के हाथ से बच निकलने के कारण चार्ल्स शोभराज को सर्पेंट (सांप) के नाम से भी जाना जाता था।

वह 1976 से 1997 के बीच भारतीय जेल में रहा। इसके बाद उसे फ्रांस में बंदी बनाया गया। वर्ष 2010 में वह भागकर नेपाल आ गया, जहां कोर्ट ने उसे उम्रकैद की सजा सुनाई। फिलहाल वह नेपाली जेल में आराम से रह रहा है।

भारतीय पिता की संतान चार्ल्स शोभराज का वास्तविक नाम हतचंद भाओनानी गुरुमुख चार्ल्स शोभराज है। 1970 के दशक में दक्षिण-पूर्वी एशिया के लगभग सभी देशों में विदेशी पर्यटकों को अपना शिकार बनाने वाला चार्ल्स शोभराज चोरी और ठगी का भी माना हुआ खिलाड़ी है।

आपराधिक गतिविधियों से निवृत्त होने के बाद वह पेरिस चला गया, जहां उसका स्वागत एक सेलेब्रिटी की तरह हुआ। अप्रत्याशित तरीके से नेपाल आने के बाद उसे गिरफ्तार कर कई मुकदमे चलाए गए। 12 अगस्त 2004 को चार्ल्स शोभराज को आजीवन कारावास की सजा दी गई। नेपाली सर्वोच्च न्यायालय ने भी 30 जुलाई 2010 को उसकी इस सजा को बरकरार रखा।

पिता का परिवार को छोड़कर जाना और माता का अन्य पुरुष के साथ विवाह कर लेने के कारण चार्ल्स शोभराज ने उपेक्षित रहकर अपना बचपन व्यतीत किया था। चार्ल्स ने पारसी युवती चंतल से प्रेम विवाह किया। दोनों ने मिलकर बंटी और बबली की तरह काम किया। चंतल से चार्ल्स को एक बेटी है। चार्ल्स की एक और प्रेमिका मैरी एंड्री थीं जिसके साथ मिलकर चार्ल्स ने कई महिलाओं को ‍अपना शिकार बनाया।

वर्ष 2008 में नेपाल में सजा काटने के दौरान चार्ल्स शोभराज ने अपने से बहुत छोटी आयु की नेपाली युवती निहिता बिस्वास के साथ जेल में ही विवाह संपन्न किया। हालांकि नेपाल जेल प्रशासन लगातार इस बात से इंकार करता रहा। चार्ल्स के जीवन पर अब तक 4 किताबें लिखी गईं और 3 डॉक्यूमेंट्री बन चुकी हैं।

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मिस्टर नटवरलाल : ठगी का पर्यायवाची नाम है 'मिस्टर नटवरलाल'। नटवरलाल को कोई भी उनके असली नाम मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव से नहीं जानता। चालाकी और ठगी को ललित कला बना देने वाला यह शख्स अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन उस पर बहुत सारी किताबें लिखी गईं और एक फिल्म बनी- ‘मिस्टर नटवरलाल’ जिसमें अमिताभ बच्चन हीरो थे। 'दो और दो पांच', 'हेराफेरी' और हाल ही है बनी फिल्म 'राजा नटवरलाल' जैसी फिल्में भी उसके जीवन से प्रेरित हैं। देश के सारे ठग नटवरलाल का नाम बड़ी इज्जत से लेते हैं।

नटवरलाल की प्रसिद्धि इसलिए भी है कि उसने ताजमहल, लाल किला, राष्ट्रपति भवन और संसद भवन को वास्तविक जीवन में बेच दिया था। अमीर लोगों ने उसकी बातों पर यकीन भी कर लिया। खुद नटवरलाल ने एक बार भरी अदालत में कहा था कि 'सर, अपनी बात करने की स्टाइल ही कुछ ऐसी है कि अगर 10 मिनट आप बात करने दें तो आप वही फैसला देंगे, जो मैं कहूंगा।'

बिहार के सीवान जिले के जीरादेई गांव में जन्मे नटवरलाल ने बहुत सी ठगी की घटनाओं से बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और दिल्ली की सरकारों को वर्षों परेशान रखा। मिस्टर नटवरलाल पर 52 से अधिक मामले दर्ज थे। दुनिया का बेहद शातिर, चालाक नटवरलाल हमेशा बहुत नाटकीय तरीके से अपराध करता था। वह जिस नाटकीय तरीके से अपराध करता था उससे भी ज्यादा नाटकीय तरीके से पकड़ा जाता था और उसी नाटकीय तरीके से वह फरार होने में भी कामयाब हो जाता था। जैसे लगता था कि इन तीनों ही घटनाओं की स्क्रिप्ट वही लिखता था।

लगभग 75 साल की उम्र में दिल्ली की तिहाड़ जेल से कानपुर के एक मामले में पेशी के लिए उत्तरप्रदेश पुलिस के दो जवान और एक हवलदार उसे लेने आए थे। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से लखनऊ मेल में उन्हें बैठना था। स्टेशन पर खासी भीड़ थी। पहरेदार मौजूद थे और नटवरलाल बेंच पर बैठा हाफ रहा था। उसने सिपाही से कहा कि बेटा बाहर से दवाई की गोली ला दो। मेरे पास पैसा नहीं है लेकिन जब रिश्तेदार मिलने आएंगे तो दे दूंगा। अब बेचारे सिपाही को क्या मालूम था कि परिवार और रिश्तेदार उसे लाइक नहीं करते थे। पत्नी की बहुत पहले मौत हो गई थी और उसकी कोई संतान नहीं थी। सिपाही दवाई लेने गया, आखिर दो पहरेदार मौजूद थे। इनमें से एक को नटवरलाल ने पानी लेने के लिए भेज दिया। बचा अकेला हवलदार तो उससे नटवर ने कहा कि भैया तुम वर्दी में हो और मुझे जोर से पेशाब लगी है। तुम रस्सी पकड़े रहोगे तो मुझे जल्दी अंदर जाने देंगे, क्योंकि मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा। उस भीड़भाड़ में नटवरलाल ने कब हाथ से रस्सी निकाली, कब भीड़ में शामिल हुआ और कब गायब हो गया, यह किसी को पता नहीं। तीनों पुलिस वाले निलंबित हुए और कहते हैं कि नटवरलाल 60वीं बार फरार हो गया।

आखिरी बार नटवरलाल बिहार के दरभंगा रेलवे स्टेशन पर देखा गया। पुलिस में पुराने थानेदार ने, जो सिपाही के जमाने से नटवरलाल को जानता था, उसे पहचान लिया। नटवरलाल ने भी देख लिया कि उसे पहचान लिया गया है। सिपाही अपने साथियों को लेने थाने के भीतर गया और जब तक बाहर आता, नटवरलाल गायब था। पास खड़ी मालगाड़ी के डिब्बे से नटवरलाल के उतारे हुए कपड़े मिले और गार्ड की यूनीफॉर्म गायब थी।

नटवरलाल को अपने किए पर कोई पछतावा नहीं था। वह अपने आपको 'रॉबिनहुड' मानता था। कहता था कि मैं अमीरों से लूटकर गरीबों को देता हूं। उसने कहा कि मैंने कभी हथियार का इस्तेमाल नहीं किया।

इसके बाद नटवरलाल का नाम 2004 में तब सामने आया, जब उसने अपनी वसीयतनुमा फाइल एक वकील को सौंपी, बलरामपुर के अस्पताल में भर्ती हुआ और इसके बाद वह एक दिन अस्पताल छोड़कर चला गया। डॉक्टरों का कहना था कि जिस हालत में वह था, उसमें उसके 3-4 दिन से ज्यादा बचने की गुंजाइश नहीं थी। उसे ठगी के जिन मामलों में सजा हो चुकी थी, वह अगर पूरी काटता तो 117 साल की थी। 30 मामलों में तो सजा हो ही नहीं पाई थी।

अगले पन्ने पर छठा कुख्यात...
चंबल की घाटी : अपनी ही तरह के इस सामाजिक-भौगोलिक क्षेत्र को कुख्यात बनाने वाली वजहों में से एक सबसे महत्वपूर्ण यहां से बहने वाली चंबल नदी भी है। इंदौर के पास बसे एक शहर महू से करीब 15 किलोमीटर दूर स्थित विंध्याचल की पहाड़ियों में इस नदी का उद्गम स्थल है। इसके बाद राजस्थान के कुछ हिस्सों को पार करते हुए चंबल मध्यप्रदेश के भिंड-मुरैना क्षेत्रों में बहती है, फिर उत्तरप्रदेश के इटावा जिले की तरफ रुख कर लेती है। पानी के कटाव से चंबल के किनारे-किनारे मीलों तक ऊंचे-ऊंचे घुमावदार बीहड़ों की संरचना हुई है। ये दशकों से डाकुओं के छिपने के अभेद्य ठिकाने रहे हैं। आजादी के पहले क्रांतिकारियों की मदद करते थे चंबल के डाकू। इन डाकुओं में से कुछ रॉबिनडुड की तरह काम करने थे यानी वे अमीरों को लूटकर सारा पैसा गरीबों में बांट देते थे।

डाकू मानसिंह, तहसीलदार सिंह, मोहर सिंह, माधो सिंह : विश्‍वप्रसिद्ध है चंबल की घाटी जिसके बीहड़ों में छुपकर रहते हैं आज भी डाकू। पुलिस का इन बीहड़ जंगलों में घुसना बहुत ही ‍मुश्किल है। इन बीहड़ों में ही रहता था एक कुख्यात डाकू मलखान सिंह। 70 के दशक में चंबल घाटी के गांवों में आतंक का पर्याय बन चुके मलखान सिंह को पकड़ना पुलिस के लिए बहुत ही मुश्किल था। उससे भी ज्यादा उसे पकड़कर जेल में रखना मुश्‍किल था।

चंबल के डाकुओं पर कई फिल्में बन चुकी हैं जिसमें सबसे मशहूर हुई है 'शोले'। गुलाम भारत से लेकर सन् 1960 तक सक्रिय रही चंबल के डाकुओं की इस पहली पीढ़ी में डाकू मानसिंह, तहसीलदार सिंह, सूबेदार सिंह, लुक्का डाकू, सुल्ताना डाकू, पन्ना और पुतली बाई, पानसिंह तोमर, डाकू पंचमसिंह आदि जैसे बड़े नाम शामिल हैं।

इनमें से कई बड़े डकैतों ने 1960 में विनोबा भावे के शांति अभियान के चलते आत्मसमर्पण किया था और बाकी पुलिस मुठभेड़ों में मारे गए। वैसे 1920 में माधवराव सिंधिया (ग्वालियर से लोकसभा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के परदादा) द्वारा करवाए गए 97 डकैतों के आत्मसमर्पण को चंबल के इतिहास का पहला आधिकारिक आत्मसमर्पण माना जाता है।

1960 में शुरू हुई विनोबा भावे की शांति पहल के तहत कई बड़े डकैतों ने आत्मसमर्पण कर दिया था। इसके बाद 1985 तक मलखान सिंह, माधो-मोहर, माखन-चिड्डा, बाबा मुस्तकीन, फूलन देवी-विक्रम मल्लाह, श्रीराम-लालाराम और ददुआ जैसे दुर्दांत डाकुओं ने चंबल घाटी पर राज किया।

अगले पन्ने पर सातवां कुख्‍यात...
फूलन देवी : फूलन देवी के जीवन पर एक बहुत ही मशहूर फिल्म बनी है 'बैंडिट क्वीन'। फूलन देवी से दूर-दूर के गांव के रसूखदार लोग ही नहीं, डाकू भी कांपते थे। महिला डकैत फूलन देवी का जीवन बहुत ही संघर्षमय रहा लेकिन आत्मसमर्पण करने के बाद वह सांसद तक बन गई थीं।

वो कभी गांव की एक आम लड़की हुआ करती थी जिसे केवल अपने परिवार से मतलब था। घर में बाहर से पानी लाना और पूरे परिवार के लिए खाना पकाना, फिर चैन की नींद सोना। बस यही उसका जीवन था। लेकिन अचानक उसके साथ हुई एक घटना ने उसे बंदूक उठाने को विवश कर दिया और चंबल के जंगलों के डाकू ही नहीं, पत्ता-पत्ता उसकी आवाज से कांपने लगा।

दरअसल, गांव के कुछ लोगों ने फूलन देवी के साथ बलात्कार किया था। बलात्कार करने वाले कुल 11 लोग थे। इस घटना के बाद फूलन देवी का जीवन बदल गया। परिवार ने न्याय की मांग के लिए कई दरवाजे खटखटाए, लेकिन हर तरफ से उसे मायूसी ही हाथ लगी। न्याय नहीं मिलने पर मजबूर हुई फूलन देवी ने बंदूक उठा ली और डाकुओं के गिरोह में शामिल हो गई। एक दिन फूलन अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ गांव में पहुंची और उसके साथ बलात्कार करने वाले 11 लोगों को एक-एक कर लाइन में खड़ा कर गोलियों से भून दिया गया। वहां उसने कुल 22 लोगों की हत्या की।

साल 1981 में फूलन तब चर्चा में आईं जब उनके गिरोह पर बेहमई में सवर्ण जातियों के 22 लोगों की हत्या का आरोप लगा। ऐसा करने के बाद फूलन देवी देश ही नहीं, बल्कि पूरे विदेश में भी चर्चित हो गई। साल 1983 में इंदिरा गांधी सरकार ने उसके सामने आत्मसमर्पण करने का प्रस्ताव रखा।

फूलन ने अपने व गैंग के सदस्यों के आत्मसमर्पण के लिए सरकार के सामने कई शर्तें रखीं। इसमें उसे या उसके किसी साथी को मृत्युदंड नहीं दिया जाए, उसे व उसके गिरोह के लोगों को 8 साल से ज्यादा सजा नहीं दिए जाने की शर्त थी। सरकार ने फूलन की सभी शर्तें मान लीं। शर्तें मान लेने के बाद ही फूलन ने अपने साथियों के साथ आत्मसमर्पण किया था।

बिना मुकदमा चलाए फूलन को 11 साल तक जेल में रखा गया। 1994 में मुलायम सिंह यादव की सरकार ने उसे रिहा कर दिया। 1996 में फूलन देवी ने समाजवादी पार्टी के टिकट पर उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत गई। 1998 में वह चुनाव हार गई लेकिन 1999 में फिर से जीतकर दोबारा संसद पहुंची।

साल 2001 में शेरसिंह राणा ने दिल्ली में फूलन देवी की उनके आवास पर गोली मारकर हत्या कर दी। जब फूलन की हत्या की गई तब वह मिर्जापुर से सांसद थी। फूलन की मौत को एक राजनीतिक साजिश भी माना जाता है। उनके पति उम्मेद सिंह पर भी आरोप लगे थे, लेकिन वे साबित नहीं हो सके थे।

अगले पन्ने पर आठवां कुख्यात...
वीरप्पन : बड़ी-बड़ी मुछों वाले चंदन तस्कर वीरप्पन को पकड़ने के चक्कर में कई पुलिस वाले और जवान शहीद हो गए। दक्षिण भारत के कुख्‍यात 'वीरप्पन' के नाम से प्रसिद्ध कूज मुनिस्वामी वीरप्पन का जन्म गोपीनाथम नामक गांव में 1952 में एक चरवाहा परिवार में हुआ था। कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल के जंगलों में था वीरप्पन का राज। तीनों ही राज्यों की पुलिस उसको पकड़ने के लिए अभियान चला रही थी।

वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों और वन अधिकारियों समेत 184 लोगों की हत्या, 200 हाथियों के शिकार, 26 लाख डॉलर के हाथीदांत की तस्करी और 2 करोड़ 20 लाख डॉलर कीमत की 10 हजार टन चंदन की लकड़ी की तस्करी से जुड़े मामलों में पुलिस को वीरप्पन की तलाश थी। हालांकि कुछ लोग कहते हैं कि उसने लगभग 2,000 हाथियों की हत्या की थी।

चंदन की तस्करी के अतिरिक्त वह हाथीदांत की तस्करी, हाथियों के अवैध शिकार, पुलिस तथा वन्य अधिकारियों की हत्या व अपहरण के कई मामलों का भी अभियुक्त था। कहा जाता है कि उसने कुल 2,000 हाथियों को मार डाला, पर उसकी जीवनी लिखने वाले सुनाद रघुराम के अनुसार उसने 200 से अधिक हाथियों का शिकार नहीं किया होगा।

उसका 40 लोगों का गिरोह था, जो वीरप्पन के कहने पर शिकार, अपहरण, हत्या आदि की वारदात को अंजाम देता था। मशहूर कन्नड़ अभिनेता राजकुमार को वीरप्पन ने सन् 2000 में अगवा करवा लिया था। राजकुमार की रिहाई के लिए उसने बहुत मोटी रकम वसूली थी।

बड़ी मुश्‍किलों के बाद 1986 में वीरप्पन को एक बार पकड़ लिया गया था लेकिन वह भाग निकलने में सफल रहा। उसने एक चरवाहा परिवार की कन्या मुत्थुलक्ष्मी से 1991 में शादी की। उसकी 3 बेटियां थीं- युवरानी, प्रभा तथा तीसरी के बारे में कहा जाता है ‍कि वीरप्पन ने ही उसकी गला घोंटकर हत्या कर दी थी।

वीरप्पन मां काली का बहुत बड़ा भक्त था। वह कई पक्षियों की आवाज निकाल लेता था। उसने अंग्रेजी की फिल्म 'द गॉडफादर' कई बार देखी। उसके पास एक प्रशिक्षित कुत्ता और एक बंदर था। उसे कर्नाटक संगीत पसंद था। उसकी इच्छा थी कि वह एक अनाथाश्रम खोले तथा राजनीति से जुड़े। वीरप्पन को साम्यवादी विचारधारा पसंद थी। वीरप्पन को लगता था कि उसकी बहन मारी तथा उसके भाई अर्जुनन की हत्या के लिए पुलिस जिम्मेवार थी।

1990 में कर्नाटक सरकार ने उसे पकड़ने के लिए एक विशेष पुलिस दस्ते का गठन किया। जल्द ही पुलिस वालों ने उसके कई आदमियों को पकड़ लिया। फरवरी 1992 में पुलिस ने उसके प्रमुख सैन्य सहयोगी गुरुनाथन को पकड़ लिया। इसके कुछ महीनों के बाद वीरप्पन ने चामाराजानगर जिले के कोलेगल तालुका के एक पुलिस थाने पर छापा मारकर कई लोगों की हत्या कर दी और वह हथियार तथा गोली-बारूद लूटकर ले गया। 1993 में पुलिस ने उसकी पत्नी मुत्थुलक्ष्मी को गिरफ्तार कर लिया। अंतत: 18 अक्टूबर 2004 को उसे मार गिराया गया। उसकी मौत पर कई तरह के विवाद हैं। वीरप्पन की पत्नी का कहना है कि उसे कुछ दिन पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया था। वीरप्पन ने कई बार चेतावनी दी थी कि यदि उसे पुलिस के खिलाफ किसी मामले में फंसाया जाता है तो वो हर एक पुलिस वाले की ईमानदारी पर उंगली उठा सकता है, इस कारण से उसकी हत्या कर दी गई।

सत्यमंगलम, बांदीपुर, कोल्लेगल, मुदुमलै और वायनाड के वे जंगल, जहां वीरप्पन का राज चलता था, एक ऐसी अंधेरी दुनिया हैं, जहां कभी भी कोई दूसरा वीरप्पन पैदा हो सकता है। 1996 के अपने इंटरव्यू में वीरप्पन ने बताया था कि कैसे एक गरीब परिवार का बच्चा अपना पेट भरने के लिए पहले चरवाहे और फिर शिकारी के रोल में उतरा। पहले एक करप्ट फॉरेस्ट डिपार्टमेंट की मिलीभगत से और फिर उसे चुनौती देकर वीरप्पन ने ताकत का एक ढांचा अपने इर्द-गिर्द खड़ा किया। खैर... मुथुलक्ष्मी को जेल से रिहा कर दिया गया है, जो वीरप्पन के जीवन पर आधारित एक किताब लिख रही है।

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दाऊद इब्राहीम और छोटा राजन : जुर्म की दुनिया के दो दोस्त छोटा राजन और दाऊद इब्राहीम अब दोनों एक-दूसरे के जानी दुश्‍मन हैं। छोटा राजन ने 'डी' गैंग के कम से कम 3 बड़े गुंडों का भारत से बाहर कत्ल करवाया। इनमें दुबई में हुआ सुनील सावंत उर्फ सावत्या का कत्ल, दुबई में ही हुआ शरद शेट्टी का मर्डर और नेपाल में दाऊद के खासमखास मिर्जा दिलशाद बेग का खून प्रमुख है। अंडरवर्ल्ड के 3 और नाम हैं- हाजी मस्तान, अरुण गवली और रवि पुजारी। इसके अलावा प्रारंभिक दौर में वरदराजन मुदलियार (वरदाभाई), भाई ठाकुर, करीम लाला आदि के नाम भी चलते थे। इन सभी पर बॉलीवुड के निर्माता-निर्देशक हरदम फिल्म बनाने के लिए उतावले रहे हैं।

दाऊद इब्राहीम : अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहीम प्रारंभ में फिरौती, जालसाजी, धोखाधड़ी, तस्करी, नशे का व्यापार, हफ्ता वसूली के लिए ही कुख्‍यात था, लेकिन 1992 में बाबरी ढांचा विध्वंस होने के बाद उसने बदले की भावना से मुंबई में एक बम हमला करवाकर 257 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इस धमाके में 700 से ज्यादा लोग घायल हो गए थे। इसके बाद से ही वह भारत का 'मोस्ट वॉन्टेड' बन गया। कहते हैं कि उसको पाकिस्तान भागने में भारत के राजनीतिज्ञों ने ही मदद की थी।

सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई बम धमाकों के मामले में दाऊद इब्राहीम, उसके भाई अनीस इब्राहीम और टाइगर मेमन को साजिशकर्ता माना है। फिल्म अभिनेता संजय दत्त को इन धमाकों के दौरान ही अपने पास हथियार रखने के जुर्म में देश के सुप्रीम कोर्ट ने 5 साल कैद की सजा सुनाई है। संजय इस वक्त पुणे की यरवडा जेल में हैं।

पाकिस्तान की शरण में रहकर दाऊद के अब पाक खुफिया एजेंसी और आतंकवादियों से भी गहरे संबंध हो गए हैं। भारत के खिलाफ पाकिस्तान के छद्म युद्ध में दाऊद मदद करता रहा है। अमेरिकी सरकार ने दाऊद इब्राहीम को विश्वस्तरीय आतंकवादियों के समर्थकों की सूची में डाल रखा है।

भारतीय जांच अधिकारियों के मुताबिक़ दाऊद इब्राहीम का जन्म महाराष्ट्र के रत्नागिरि शहर में हुआ था। करीम लाला की गैंग से जुड़कर 1980 के दशक में 'दाऊद' नाम मुंबई अपराध जगत में बहुत तेजी से उभरा और कहा जाता है कि फिल्म जगत से लेकर सट्टे और शेयर बाजार में वह दखल रखने लगा। पुलिस के मुताबिक दाऊद इब्राहीम विदेश में बैठा हुआ भी भारत में कई वारदातों को अंजाम देने का हुक्म देता है।

छोटा राजन : फिरौती, जालसाजी, धोखाधड़ी, तस्करी आदि के मामले में छोटा राजन को पकड़ने के लिए जब मुंबई पुलिस ने अभियान चालाया तो वह सिंगापुर भाग गया। आज भी वह वहीं रहता है। कई बार उसकी मौत की खबर आई लेकिन वह एक अफवाह ही साबित हुई। बताया जाता है कि वह किडनी की समस्या से जूझ रहा है।

छोटा राजन का असली नाम है राजन सदाशिव निखालजे। राजन ने जब मुंबई के अपराध जगत में कदम रखा, उस समय मुंबई के एक इलाके में राजन नायर का दबदबा था। राजन निखालजे अपने आक्रामक तेवर के कारण अपराध जगत में तेजी से उभरा और कुछ समय तक राजन नायर के साथ काम भी किया। ऐसे में गिरोह के लोग राजन नायर को 'बड़ा राजन' और राजन सदाशिव निखालजे को 'छोटा राजन' के नाम से पुकारने लगे।

बड़ा राजन की हत्या के बाद छोटा राजन दाऊद गैंग में शामिल हो गया, लेकिन कहा जाता है कि दाऊद द्वारा धोखा दिए जाने के बाद छोटा राजन ने खुद की अलग सत्ता कायम कर ली और इस तरह मुंबई में दो गैंग बन गई जिनमें आए दिन गैंगवार होती रहती थी।

दुश्मनी की वजह पैसे को बंटवारे को लेकर थी। लेकिन दुश्मनी तब पुख्‍ता हो गई, जब राजन ने दाऊद को जानकारी दिए बिना ही शिवसेना के नगर सेवक खिम बहादुर थापा को लुढ़का दिया। इससे दाऊद नाराज हो गया। कहा जाता है कि थापा के दाऊद से अच्छे संबंध थे। राजन को उसके दोस्त अबू सलेम ने चेताया कि वह दाऊद से सावधान रहे तभी से राजन अलग हो गया।

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संतोख बेन जडेजा : 'गॉडमदर' के नाम से प्रसिद्ध संतोख बेन जड़ेजा पर एक फिल्म भी बन चुकी है। शबाना आजमी ने इसमें लीड रोल किया है। वर्ष 1999 में प्रदर्शित फिल्म 'गॉडमदर' में शबाना आजमी ने एक ऐसी महिला का किरदार निभाया, जो अपने पति की मौत के बाद माफिया डॉन बनकर भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाती है और अपने पति की मौत का बदला लेती है।

उसका एक बेटा है जिसका नाम कंधल जड़ेजा है। 'लेडी डॉन' के नाम से मशहूर, एक समय में आतंक का पर्याय रह चुकी और जीवन में कई घातक हमलों में बचने वाली गॉडमदर संतोख बेन जड़ेजा (63) का 5 अप्रैल 2011 को हृदयाघात से निधन हो गया।

दिवंगत पति सरमणभाई मुंजाभाई जडेजा के निधन के बाद वे सार्वजनिक जीवन में आई थीं। बाद में वे गुजरात राज्य विधानसभा के कुटिया निर्वाचन (पोरबंदर) क्षेत्र से वर्ष 1989 में चुनी गईं। वे महेर समाज की पहली महिला विधायक (1989-1994) थीं।

महात्‍मा गांधी के शहर पोरबंदर में एक शख्सियत ऐसी भी थी जिसके बारे में स्‍थानीय लोगों का मानना था कि उसके घर के नालों से पानी नहीं, बल्कि खून बहता था। संतोख बेन का गिरोह कथित तौर पर कम से कम 18 हत्याओं के लिए जिम्मेदार था।

संतोख बेन के बेटे का नाम कंधल जडेजा है जिसकी पत्नी का नाम रेखा है। 2006 में बहू रेखा कंधल की विरोधी गिरोह ने गोली मारकर हत्या कर दी। संतोख बेन के दो बेटे करन और कंधल केशुभाई की हत्या के आरोप में हिरासत में हैं। संतोख बेन का कभी सौराष्ट्र खासकर पोरबंदर में आतंक मचा हुआ था तथा उसके नाम से पूरा गुजरात ही थर-थर कांपता था।