शुक्रवार, 29 मार्च 2024
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Written By Author अनवर जमाल अशरफ

यूरोप की एकता की परीक्षा

यूरोप की एकता की परीक्षा - paris attack
पेरिस पर हुए आतंकवादी हमलों के बाद पूरा यूरोप दिशाविहीन दिख रहा है। यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप के सामने सबसे बड़ा संकट है। हमले ने यूरोप के लोगों को झकझोर दिया है और सबसे बड़ी बात उन्हें कोई साफ हमलावर नहीं दिख रहा है।
भले ही फ्रांस की सेनाओं ने हमले के बाद सीरिया में आइसिस के गढ़ पर हवाई हमले किए हों लेकिन सच्चाई तो यह है कि पेरिस पर सीरिया से नहीं, बल्कि फ्रांस के अंदर से हमला हुआ। समाज के अंदर, फ्रांस में पले बढ़े युवकों ने हमलों की साजिश रची  और उसे यूरोप में रहते हुए अंजाम दिया। यानी हमलावर समाज के अंदर घुल मिल गए हैं। उसकी पहचान मुश्किल है।
 
यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में यह करार है कि किसी एक सदस्य पर हमला पूरे संघ पर हमला माना जाएगा। इसके आधार पर फ्रांस ने संघ से सैनिक मदद की मांग की है। यूरोपीय संघ की लिस्बन संधि में इस सहयोग का जिक्र है कि विपत्ति के समय कोई सदस्य देश दूसरे सदस्यों से सैनिक मदद मांग सकता है। लेकिन यह इतिहास में पहला मौका है जब इस अधिकार का प्रयोग किया गया है। फ्रांस का कहना है कि उनके देश के खिलाफ युद्ध हुआ है और उन्हें मदद की जरूरत है।
 
मुश्किल यह है कि जर्मनी अपने संविधान की वजह से युद्ध में शामिल नहीं हो सकता। हिटलर के नाजी काल के धब्बे की वजह से जर्मनी ने तय किया था कि वह किसी देश पर सैनिक कार्रवाई नहीं करेगा। इराक युद्ध में जब अमेरिका ने उससे सहयोग की मांग की थी, तब उसने इनकार कर दिया था, जिसकी वजह से दोनों देशों के रिश्तों पर भी असर पड़ा। हालांकि अफगानिस्तान में जर्मन सेना जरूर तैनात हुई लेकिन वह युद्ध के लिए नहीं, बल्कि देश के पुनर्निर्माण के लिए।
 
फ्रांस और जर्मनी के अलावा सिर्फ ब्रिटेन ही यूरोपीय संघ का ताकतवर देश है। लेकिन उसके लिए यूरोपीय संघ की एकता प्राथमिकता नहीं, बल्कि वह तो संघ से अलग होने के लिए जनमत संग्रह कराने वाला है। ब्रिटेन के लिए यूरोप से ज्यादा जरूरी अमेरिका का साथ और सहयोग है। ऐसे में फ्रांस को आइसिस के खिलाफ युद्ध में अपेक्षाकृत छोटे और कम महत्वपूर्ण देशों से ही सहयोग की आशा है।
 
शरणार्थियों के मुद्दे ने भी यूरोप को बांटा है। जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल ने जिस तरह 10 लाख से भी ज्यादा शरणार्थियों को जर्मनी में पनाह देने का फैसला किया, उसका उनके अपने देश और दूसरे यूरोपीय देशों में जम कर विरोध हुआ। हंगरी जैसे कुछ देशों ने तो यूरोपीय सीमा को बंद करने की सिफारिश भी की। यूरोपीय संघ के देशों का कहना है कि आर्थिक तौर पर ये शरणार्थी सिर्फ जर्मनी नहीं, बल्कि पूरे यूरोप के लिए बोझ बनेंगे।
 
शरणार्थियों के मुद्दे पर डबलिन समझौता कहता है कि शरण लेने वालों को यूरोपीय संघ में दाखिल होते ही पहले देश में खुद को रजिस्टर कराना होगा। लेकिन हाल के शरणार्थी संकट में देखा गया है कि ये लोग कई देशों की सीमा पार कर जर्मनी तक पहुंच जा रहे हैं, तब कहीं जाकर इनका रजिस्ट्रेशन हो पा रहा है। शरणार्थी मुद्दे ने जर्मनी को पहले ही मुश्किल स्थिति में पहुंचा दिया था। ऊपर से पेरिस हमले में शरणार्थियों की भूमिका ने स्थिति और गंभीर बना दिया है।
 
यूरोपीय संघ को एक और चीज जोड़ती है, जो अचानक खतरा बनती दिख रही है– सीमारहित प्रवेश। कोई 30 साल पहले लक्जमबर्ग में हुए शेंगन समझौते के तहत यूरोप को दोस्ताना और सुगम बनाने के लिए यूरोप के कुछ देशों ने तय किया कि वे अपने देशों से वीजा की औपचारिकता खत्म कर देंगे और शेंगेन क्षेत्र के किसी एक देश में प्रवेश करने वाला दूसरे शेंगेन देशों में भी बिना वीजा के जा सकेगा।
 
पेरिस हमले ने इसके एक अलग पक्ष को दिखलाया है। शुरुआती जांच में ऐसा लगता है कि फ्रांस पर हमले की साजिश दूसरे देश बेल्जियम में रची गई। दोनों देशों के बीच शेंगेन समझौता होने की वजह से ही कथित हमलावर आसानी से बेल्जियम और फ्रांस के बीच आते जाते रहे। यह घटना सीमारहित यूरोप के लिए खतरे की घंटी लेकर आया है।
 
यह कहना जल्दबाजी होगा कि इन घटनाओं से यूरोप टूट सकता है या यूरोपीय संघ का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। लेकिन इतना तो तय है कि पूरा यूरोप एक बेहद गंभीर दौर से गुजर रहा है, जहां से निकलने की राह यूरोपीय देशों की एकता से ही बन सकती है।