गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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मोदी को अभिमन्यु मत समझो यार!

मोदी को अभिमन्यु मत समझो यार! - Narendra Modi, Arvind Kejriwal, Kanhaiya Kumar, Rahul Gandhi
एलएन शीतल
 
‘केकेआर एण्ड कम्पनी’ ने मोदी को अभिमन्यु समझ लिया है। ‘केकेआर एण्ड कम्पनी’ बोले तो केजरीवाल-कन्हैया-राहुल और उनके हमख़याल संगी-साथियों का वह हुज़ूम, जिनमें धुर वामपंथी, नक्सली और प्रकारान्तर में वे तमाम गुट शामिल हैं, जो ‘आज़ादी’ के लिए छटपटा रहे हैं। आज़ादी बोले तो ‘कुछ भी बोलने’ की आज़ादी और अगर ‘कुछ भी बोलने’ से काम न चले तो ‘कुछ भी करने’ की आज़ादी। अभिमन्यु बोले तो वही महाभारत वाला अभिमन्यु, जिसे चक्रव्यूह भेदना नहीं आता था। वह बेचारा अपनी इसी लाचारी की वजह से धूर्त कौरवों के अनैतिक सामूहिक हमले में वीरगति को प्राप्त हुआ था।
तब कलयुग शुरू होने को था, और अब घोर कलयुग है लेकिन ‘केकेआर एण्ड कम्पनी’ की यही सबसे बड़ी ग़लती है कि वह येन-केन-प्रकारेण ‘सत्ता-लक्ष्य’ पाने की हड़बड़ी में या ज़रूरत से ज़्यादा ‘काक-चातुर्य’ के कारण मोदी को अभिमन्यु समझ रही है। उन मोदी को, जिन्हें न केवल चक्र-व्यूह रचना आता है, बल्कि उसे भेदना भी बखूबी आता है। उन मोदी को, जिनके ख़िलाफ़ एक वक़्त उनके अपने सियासी कुनबे सहित पूरी क़ायनात खड़ी थी। इसे समझने के लिए थोड़ी ही अक्ल की ज़रूरत है कि मोदी ने तब हार नहीं मानी थी, तो अब क्या मानेंगे!
 
यह जगजाहिर बात है कि कन्हैया उस ग़रीब तबक़े से ताल्लुक रखता है, जिसे दो वक़्त की रोटी भी बमुश्किल मयस्सर हो पाती है। पढ़ाई, और वह भी दिल्ली में! बहुत दूर की बात है लेकिन वह लगभग मुफ़्त में जेएनयू नामक ‘वामपंथी किले की प्राचीर’ से इस देश के प्रधानमंत्री को ऐसे लताड़ रहा है, मानो प्रधानमंत्री स्वतन्त्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से देशद्रोही ताकतों या पाकिस्तान को ललकार रहे हों।
 
कन्हैया जी! माना कि इस समय आपका जोश हिमालय से भी ज़्यादा ऊंचाई तक उछल रहा है, माना कि आपके भाषण की तारीफ़ के कशीदे काढ़ने में येचुरी-केजरी-नीतीश-दिग्विजय आदि तमाम सियासी दिग्गज बेतरह व्यस्त हैं, माना कि आप पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के स्टार प्रचारक होंगे, लेकिन मेरे बन्धु! इस देश के हम जैसे लाखों आयकरदाताओं की गाढ़ी कमाई का इस्तेमाल भोंपू बनने के लिए तो न करो यार! तुम्हें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि तुम्हें दिल्ली पढ़ने के लिए भेजा है, प्रधानमंत्री को ललकारने के लिए नहीं।
 
अहसासे कमतरी के शिकार सियासतदां तो अपनी क्षुद्र सियासी खुदगर्जियों के चलते सही-ग़लत का फ़र्क भुला बैठे हैं, लेकिन तुम्हें तो यह नहीं ही भूलना चाहिए कि हमारे पैसे का इस्तेमाल तुम्हें पढ़ाई के लिए ही करना चाहिए, न कि ओवैसी की तरह ज़हर उगलने के लिए। और अगर तुम्हारे खून में सियासत इतनी ही ज़्यादा तेज़ दौड़ रही है तो अब मौका है। अपनी पार्टी के टिकट पर पश्चिम बंगाल में जाकर चुनाव लड़ लो, ताकि तुम्हें अपनी औकात का पता चल सके।
 
वैसे, कन्हैया बाबू! तुम उसी पार्टी के कारिन्दे हो न, जिसने तमाम तरह की आज़ादियों को बेड़ियों में जकड़ने वाली इमरजेंसी का समर्थन किया था। और, आज तुम देश में 'आज़ादी' के लिए आकाश-पाताल एक करने पर उतारू हो। माना कि जेएनयू परिसर में देश-विरोधी नारे तुमने नहीं लगाए होंगे, लेकिन जो लोग नारे लगा रहे थे, उनका विरोध भी तो तुमने नहीं किया था जबकि तुम छात्रों के विधिवत निर्वाचित नेता हो। तो क्या तुम कानूनन शरीकेजुर्म नहीं हुए?
 
तुम तो बंधु, उस जेएनयू के ‘बौद्धिक रत्न’ हो, जिसे तुम्हारे हमराही ‘बुद्धिजीवियों की टकसाल’ बताते नहीं थक रहे। तो तुम्हें इतना तो मालूम होना ही चाहिए कि बात 21 या 31 फ़ीसद वोटों की नहीं है। बात बहुमत की है। वह बहुमत, जो इस सरकार को बाकायदा शानदार ढंग से हासिल हुआ है। तो क्या तुम या तुम्हारे वे सरपरस्त, जिनके तुम भोंपू बने इतरा रहे हो, अपनी इन बेमतलब बातों से उन करोड़ों मतदाताओं का अपमान नहीं कर रहे, जिन्होंने इस सरकार को बनाया है?
 
जेल से छूटते ही कन्हैया ने वामपंथी रूढ़ियों से भरा भाषण क्या दे दिया कि मीडिया और सोशल मीडिया का एक बड़ा विवेकहीन वर्ग उसका मानसिक चाकर बन बैठा। तथाकथित बुद्धिजीवी उसे अपनी जमात में शामिल किये जाने का एलान करते हुए खुद को धन्य महसूस करने लगे। लेकिन इन सब पाखंडियों के दिलोदिमाग में देश के लिए मर मिटने वाले जाँबाज सैनिकों के लिए न कोई सम्मान है और न ही तनिक भी सहानुभूति।
 
वैसे भी, जेएनयू या दूसरे वामपंथी प्रभाव वाले संस्थानों में अभिव्यक्ति की आज़ादी वाममार्गी संगठनों तक ही सीमित है। इसी जेएनयू में लाल कृष्ण आडवाणी और बाबा रामदेव की सभाएँ रद्द कर दी गयी थीं। कन्हैया की वामपंथ में आस्था है, और उसे इसका अधिकार भी है। लेकिन केजरी और राहुल बतायें कि क्या वे वामपंथ में भरोसा करते हैं या कि वे कन्हैया का सिर्फ सियासी इस्तेमाल कर रहे हैं।
 
याद कीजिए 6 अप्रैल, 2010 का वह दिन, जब सीआरपीएफ के 76 जवान बस्तर में एक नक्सली हमले में शहीद हो गये थे। तब डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन (डीएसयू) के वाममार्गी उग्रपंथियों ने जेएनयू में जश्न मनाया था। यह वही संगठन है, जिसके तार एक तरफ़ तो नक्सलियों से जुड़े हैं, तो दूसरी तरफ कश्मीरी आतंकवादियों को भी उसका समर्थन हासिल है। 
 
इसी संगठन की अगुआई में वह आयोजन हुआ था, जिसमें तमाम तरह के राष्ट्र-विरोधी नारे लगे थे। आज जेएनयू में वही लोग हाथों में तिरंगा लेकर जयहिन्द के नारे लगा रहे हैं, ताकि इस ‘वामपंथी किले’ में उनकी सुरक्षित रिहाइश सुनिश्चित हो सके। यह उनका एक मक्कारी भरा सियासी हथकंडा है।
 
राहुल को शिकायत है कि मोदी उन पर व्यक्तिगत हमले करते हैं लेकिन हम टी वी चैनलों और अख़बारों में जो पढ़ते और देखते हैं तो व्यक्तिगत हमलों में राहुल को कहीं भी पीछे नहीं पाते। ऐसे में, ‘वक़्त’ फिल्म में राजकुमार का वह मशहूर डायलॉग याद आ जाता है, जिसमें वह मदनपुरी से कहते हैं: ‘ शिनाय सेठ, जिसके अपने घर शीशे के हों, दूसरों पर पत्थर नहीं फैंका करते।’
 
अभी हाल ही में धुरंधर वकील और कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल भोपाल में थे। केन्द्रीय मन्त्री रह चुके सिब्बल ने एक संगोष्ठी में फ़रमाया : ‘सियासी नाइत्तफ़ाकी को देशद्रोह नहीं कहा जा सकता। हमें हक़ है कि हम हथियार उठाए बगैर उस सत्ता को उखाड़ फैंकें, जिसे हम पसन्द नहीं करते।’
 
क्या सिब्बल के इस कथन का यह निहितार्थ नहीं हो सकता कि हम एक विधि द्वारा स्थापित सम्वैधानिक सत्ता के ख़िलाफ़ इस क़दर ‘ज़हर उगलो’ मुहिम चलायें कि उससे भड़क कर लोग हथियार उठा लें। क्या देश-विरोधी हिंसा के लिए भड़काना भी राष्ट्रद्रोह नहीं है? ठीक उसी तरह से, जैसे भड़काऊ भाषणों से दंगे कराने या दंगे भड़काने के कृत्य को अपराध माना जाता है। 
 
हिंसा के लिए वैचारिक धरातल मुहैया कराना भी तो अपराध ही हुआ न कपिल साहब। वैसे, ये कपिल साहब भी उसी कांग्रेस के नेता हैं, जिसकी नेता इंदिरा गांधी ने केवल सियासी विरोध के चलते जेपी सहित लाखों लोकतंत्र समर्थकों को जेलों में ठूँस दिया था, वे बेचारे अधिनायकवाद का वैचारिक विरोध ही तो कर रहे थे न! आपकी ही पार्टी के एक रीढ़विहीन अध्यक्ष देवकान्त बरुआ ने नारा दिया था कि – ‘इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा! आपको इस नारे से लोकतन्त्र की ख़ुशबू आ रही है या अधिनायकवाद की जानलेवा दुर्गन्ध? ज़रा बताइए न सिब्बल साहब! आप तो कविताएँ लिखते और पढ़ते भी हैं। तो संवेदनशील तो होंगे ही!!