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राज्यसभा के लिए जस्टिस गोगोई का मनोनयन एक बड़े खतरे की आहट!

राज्यसभा के लिए जस्टिस गोगोई का मनोनयन एक बड़े खतरे की आहट! - Justice Gogoi's nomination for Rajya Sabha calls for a big threat
भारतीय जनता पार्टी के दिवंगत नेता अरुण जेटली ने 30 सितंबर, 2012 को दिल्ली में वकीलों के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए टिप्पणी की थी, हमारे देश में 2 तरह के जज होते हैं- एक वे जो कानून जानते हैं और दूसरे वे जो कानून मंत्री को जानते हैं। दूसरी तरह के जज रिटायर नहीं होना चाहते, इसलिए रिटायर होने से पहले दिए गए उनके फैसले रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले काम से प्रभावित होते हैं।

जिस समय अरुण जेटली ने यह टिप्पणी की थी तब वे राज्यसभा में विपक्ष के नेता हुआ करते थे और उसके एक दशक पहले देश के कानून मंत्री भी रह चुके थे। जेटली राजनेता होने के साथ ही एक जाने-माने वकील भी थे, लिहाजा वे जजों के काम करने के तौर तरीकों को भी बहुत अच्छी तरह जानते-समझते थे। इसलिए अगर उनकी उपरोक्त टिप्पणी की रोशनी में राज्यसभा के लिए जस्टिस रंजन गोगोई के मनोनयन को देखा जाए तो सब कुछ साफ हो जाता है।

जस्टिस रंजन गोगोई ने देश के प्रधान न्यायाधीश के रूप में अपने 13 महीने के कार्यकाल के दौरान कई मामलों में सरकार के मनमाफिक फैसले दिए हैं। उनके इन फैसलों की न्यायिक निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठे हैं और न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर देश के आम आदमी का भरोसा डिगा है। इसलिए अब अगर राज्यसभा में उनके मनोनयन को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं, तो ऐसा होना स्वाभाविक ही है।

ऐसा नहीं है कि जस्टिस गोगोई पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें सरकार के मनमाफिक फैसले देने के बदले सेवानिवृत्ति के बाद पुरस्कृत किया गया है। इससे पहले भी ऐसे कई उदाहरण हैं। 6 वर्ष पहले पूर्व प्रधान न्यायाधीश पी. सदाशिवम को भी इसी सरकार ने केरल का राज्यपाल बनाया था। कहने की आवश्यकता नहीं कि जस्टिस सदाशिवम को यह पद मौजूदा गृहमंत्री अमित शाह को आपराधिक मामलों में बरी करने के बदले पुरस्कार स्वरूप मिला था। इससे पहले कांग्रेस के शासनकाल में भी सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को उपकृत करने के कई उदाहरण मौजूद हैं।

सरकार और न्यायपालिका के इसी नापाक गठजोड़ के चलते न्यायतंत्र पर मंडराते विश्वसनीयता के संकट ने ही करीब एक दशक पहले देश के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एसएच कापडिया को यह कहने के लिए मजबूर कर दिया था कि जजों को आत्म संयम बरतते हुए राजनेताओं, मंत्रियों और वकीलों के संपर्क में रहने और निचली अदालतों के प्रशासनिक कामकाज में दखलंदाजी से बचना चाहिए।

16 अप्रैल 2011 को एमसी सीतलवाड स्मृति व्याख्यान देते हुए न्यायमूर्ति कापड़िया ने कहा था कि जजों को सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्ति के लोभ से भी बचना चाहिए, क्योंकि नियुक्ति देने वाला बदले में उनसे अपने फायदे के लिए निश्चित ही कोई काम करवाना चाहेगा। उन्होंने जजों के समक्ष उनके रिश्तेदार वकीलों के पेश होने की प्रवृत्ति पर भी प्रहार किया था और कहा था कि इससे जनता में गलत संदेश जाता है और न्यायपालिका जैसे सत्यनिष्ठ संस्थान की छवि मलिन होती है।

जो बात जस्टिस कापड़िया ने कही थी, उसे खुद जस्टिस गोगोई भी महसूस करते रहे हैं। इसलिए उन्होंने प्रधान न्यायाधीश बनने के कुछ दिनों बाद ही 27 मार्च, 2019 को अर्ध न्यायिक ट्रिब्यूनलों से जुड़े कानूनों से संबंधित याचिकाओं की सुनवाई के दौरान जजों की सेवानिवृत्ति के बाद होने वाली नियुक्तियों पर सवाल उठाए थे। जस्टिस गोगोई की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संविधान पीठ ने कहा था, एक दृष्टिकोण है कि सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्ति न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर एक धब्बा है। आप इसे कैसे संभालेंगे?

अपनी ही इस तल्ख टिप्पणी को बिसरा कर सेवानिवृत्ति के महज 3 महीने बाद अब रंजन गोगोई राज्यसभा के सदस्य हो गए हैं। राष्ट्रपति ने उन्हें सरकार की सिफारिश पर संसद के उच्च सदन का सदस्य मनोनीत किया है। उनके इस मनोनयन पर राजनीतिक दलों के नेता ही नहीं बल्कि न्यायिक क्षेत्र से जुड़ी बड़ी हस्तियां भी सवाल उठा रही हैं।

सुप्रीम कोर्ट में रंजन गोगोई के ही समकक्ष रहे सेवानिवृत्त जस्टिस मदन बी. लोकुर ने एक अंग्रेजी अखबार को दी अपनी प्रतिक्रिया में कहा है, कुछ समय से अटकलें लगाई जा रही थीं कि जस्टिस गोगोई को क्या पुरस्कार मिलेगा, इसलिए राज्यसभा के लिए उनका मनोनयन आश्चर्यजनक नहीं है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि यह फैसला इतनी जल्दी आ गया। यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और अखंडता को फिर से परिभाषित करता है। क्या लोकतंत्र का आखिरी किला भी ढह गया?

जस्टिस गोगोई के राज्यसभा में मनोनयन के संदर्भ में न्यायपालिका की इसी स्वतंत्रता और निष्पक्षता को लेकर सोशल मीडिया पर भी लोग सवाल और शंकाएं उठा रहे हैं। ऐसी ही शंकाएं तब भी उठी थीं जब करीब 2 साल पहले 2 जनवरी, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के 4 वरिष्ठ जजों ने एक प्रेस कॉन्‍फ्रेंस के माध्यम से उस समय के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की कार्यशैली पर गंभीर सवाल उठाए थे। उन 4 जजों में जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस लोकुर भी शामिल थे। 2 अन्य जज थे जस्टिस जे. चेलमेश्वर और जस्टिस कुरियन जोसेफ।

चारों जजों ने अप्रत्याशित और अभूतपूर्व कदम उठाते हुए कहा था कि प्रधान न्यायाधीश द्वारा महत्वपूर्ण मामलों का आबंटन सही तरीके से नहीं किया जा रहा है। उन्होंने देश के लोकतंत्र को खतरे में बताते हुए कहा था कि कुछ मामलों में प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा को कोई व्यक्ति बाहर से नियंत्रित कर रहा है। ऐसे मामलों में जज ब्रजगोपाल लोया की कथित संदिग्ध मौत की जांच का मामला भी शामिल था। चारों जजों का परोक्ष इशारा सरकार और प्रधान न्यायाधीश के रिश्तों की ओर था।

जस्टिस गोगोई का उस प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में शामिल होने का फैसला चौंकाने वाला था, क्योंकि अगले प्रधान न्यायाधीश के लिए वरीयता क्रम में उन्हीं का नाम था। ऐसे में उनका 3 अन्य जजों के साथ मिलकर ऐसे सवाल उठाना लोगों को जोखिमभरा लगा था। इसी वजह से जब जस्टिस गोगोई से लोगों ने बड़ी उम्मीदें बांध ली थीं। कुछ समय बाद जब वे प्रधान न्यायाधीश बने तो लगा कि न्यायपालिका में काफी कुछ बदलने वाला है।

मीडिया से मुखातिब चारों जजों ने यद्यपि सरकार को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की थी, लेकिन सरकार और सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ताओं ने उन 4 जजों के बयान पर जिस आक्रामकता के साथ प्रतिक्रिया जताई थी और प्रधान न्यायाधीश का बचाव किया था, वह भी न्यायपालिका की पूरी कलंक-कथा को उजागर करने वाला था। उस समय सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पीवी सावंत ने एक टीवी इंटरव्यू में चारों जजों के बयान को देशहित में बताते हुए कहा था कि देश की जनता को यह समझ लेना चाहिए कि कोई भी न्यायाधीश भगवान नहीं होता। न्यायपालिका के रवैए पर कठोर टिप्पणी करते हुए उन्होंने दो टूक कहा था कि अदालतों में अब आमतौर पर फैसले होते हैं, यह जरूरी नहीं कि वहां न्याय हो।

ऐसा भी नहीं है कि सारे ही जज अपनी सेवानिवृत्ति के बाद सरकार से उपकृत होने के लिए तैयार बैठे रहते हों। कई उदाहरण हैं, जिनमें सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीशों और न्यायाधीशों ने अपनी सेवानिवृत्ति के बाद अन्यत्र नियुक्ति की सरकार की पेशकश को ठुकराया है।

इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश रहे जस्टिस जगदीश शरण वर्मा और जस्टिस वीएन खरे को भी उनकी सेवानिवृत्ति के बाद तत्कालीन सरकारों की ओर से अन्यत्र नियुक्ति की पेशकश की गई थी, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था। इसी तरह की पेशकश जस्टिस चेलमेश्वर और जस्टिस कुरियन जोसेफ को भी की गई थी लेकिन दोनों ने ही यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि इससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता को लेकर लोगों में गलत संदेश जाएगा।

राज्यसभा के लिए जस्टिस गोगोई के मनोनयन पर जस्टिस जोसेफ ने बेहद तीखी प्रतिक्रिया जताते हुए कहा है कि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता से आम जनता का भरोसा हिल गया है। उन्होंने कहा, 2 साल पहले जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस गोगोई, जस्टिस लोकुर और मैंने जिस खतरे से देश को आगाह किया था, वह खतरा अब और गहरा गया है।

जस्टिस जोसेफ एक साल पहले ही सेवानिवृत्त हुए हैं। उन्होंने अपनी सेवानिवृत्ति से एक दिन पहले ही एक इंटरव्यू में देश की न्यायपालिका की मौजूदा हालत को लेकर चेतावनी दे दी थी। उन्होंने कहा था कि मौजूदा स्थिति को देखते आने वाले समय में माहौल और खराब हो सकता है। आमतौर पर सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट से सेवानिवृत्त होने वाले जज भविष्य में किसी नई नियुक्ति की प्रत्याशा में सरकार को अप्रिय लगने वाली बातें बोलने से बचते हैं, लेकिन न्यायमूर्ति जोसेफ ने जो बात कही थी, उससे जाहिर है कि ऐसी कोई प्रत्याशा उन्होंने नहीं पाल रखी थी।

उन्होंने जो आशंका जताई थी, वह उनकी सेवानिवृत्ति के बाद से लगातार सच साबित हो रही है। जस्टिस रंजन गोगोई का राज्यसभा के लिए मनोनयन उस आशंका की प्रतिनिधि मिसाल है। मौजूदा हालात देखते हुए कहा नहीं जा सकता कि ऐसी और कितनी खतरनाक मिसालें देखने को मिलेंगी। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)