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Written By Author श्रवण गर्ग
Last Updated : बुधवार, 29 अप्रैल 2020 (13:59 IST)

गांधीजी अगर इस समय होते तो वे क्या करते?

गांधीजी अगर इस समय होते तो वे क्या करते? - If Gandhiji were at this Corona time what would they do?
कोरोना ने आम आदमी की ज़िंदगी में और तमाम तब्दीलियों के साथ-साथ जो एक और परिवर्तन किया है वह यह कि मजबूरन ही सही लोगों के प्राकृतिक ग़ुस्से को भी कम कर दिया है। सवाल यह भी है कि घरों में ही बंद लोग किस पर ग़ुस्सा कर सकते हैं और फिर ऐसा करके बाहर जाने की भी कोई गुंजाइश अभी नहीं है।

पड़ौसियों पर कर नहीं सकते। उनकी तो सूरतें ही पहली बार ठीक से देख पा रहे हैं। जब सरकार काम नहीं आती तब काम वे ही आते हैं। जो लोग अख़बार, दूध आदि पहुंचा रहे हैं उन पर भी ग़ुस्सा करने के ख़तरे ज़ाहिर हैं।

एक ही विकल्प बचता है कि सारा ग़ुस्सा सरकार के ख़िलाफ़ निकाल लिया जाए। पर वह भी ऊंची आवाज़ में नहीं कर सकते! सत्तारूढ़ दल के देश में सब मिलाकर कोई बीस करोड़ सदस्य हैं यानी कि प्रत्येक छठा आदमी। ऐसे में आवाज़ ऊंची करने के कई तरह के ख़तरे हैं।

सरकारों को भी पता रहता है कि दो तरह के समूह विरोध में कभी कुछ नहीं बोलते: एक तो घरों में बंद जनता और दूसरे, व्यापार-धंधा करने वाले लोग। जो लोग घरों में बंद हैं उन्हें ऐसे दिनों में भूख ज़्यादा लगने लगती है और कुछ उद्योगपति तो ऐसी फ़ुरसत में अपने सालों से बंद पड़े उद्योगों के भविष्य को लेकर ज़्यादा चिंतित होने लगते हैं। हक़ीक़त तो यह है कि इस समय ग़ुस्से में सभी हैं विशेषकर छोटे और बड़े उद्योग-धंधेवाले हैं पर मुंह खोलने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही है। जो सबसे ऊपरवाले उद्योगपति हैं उन्हें तो धन कमाने के लिए फ़ैक्टरी चलाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।

अब ऐसे ‘मुश्किल दिनों में ‘अगर यह पता चले कि देश में कोई दो व्यक्ति, जो कि अपने क्षेत्र की जानी-मानी हस्तियां भी हैं, जो कुछ चल रहा है उसके ख़िलाफ़ झंडा लेकर खड़े हैं तो थोड़ा आश्चर्य होता है। जब यह पता चले कि ऐसा करने वाले एक ही घराने के उद्योगपति पिता-पुत्र हैं तो ऐसा लगने लगता है कि लॉकडाउन के सन्नाटे में डूबी भरपूर चौड़ी सड़क पर दिन के उजाले में भी दो वाहनों के बीच ज़ोरदार टक्कर हो गई। देश की अधिकांश जनता ने तो विरोध करने का सारा काम या तो विपक्ष या फिर किसान-मज़दूर-बेरोज़गारों के हवाले कर रखा है।

हम यहां जिनकी बात कर रहे हैं उनका नाम राजीव बजाज है और उनके पिता का नाम राहुल बजाज है। बात को आगे बढ़ाने से पहले राहुल बजाज की भूमिका को जान लेना ज़रूरी है। 82-वर्षीय राहुल बजाज अपने जमाने के प्रसिद्ध उद्योगपति, समाजसेवी, परमार्थी और गांधीजी के अनन्य सहयोगी जमनालाल बजाज के पोते और स्व. कमलनयन बजाज के पुत्र हैं।
 
पद्मभूषण के अलंकरण से सम्मानित राहुल बजाज, राज्यसभा के सदस्य रह चुके हैं। कुछ महीनों पूर्व मुंबई में हुए एक समारोह में उन्होंने कहा था कि वे पैदाइशी व्यवस्था-विरोधी हैं। उनका यह भी कहना था कि एक ऐसी वस्तु के उत्पादन को सुनिश्चित करने के लिए जिसकी कि ज़्यादा से ज़्यादा भारतीयों को ज़रूरत है अगर जेल भी जाना पड़े तो वे तैयार हैं। जब यूपीए की हुकूमत थी हम किसी की भी आलोचना कर सकते थे। इस समय तो भय का माहौल है।

चौवन-वर्षीय राजीव इन्हीं राहुल बजाज के बड़े बेटे हैं। वे बजाज ऑटो के एमडी हैं। राजीव ने हाल ही में सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि लॉकडाउन बेमतलब का है। न सिर्फ़ किसी भी स्वास्थ्य समस्या का इससे समाधान नहीं निकलेगा, इससे आर्थिक संकट का भी निराकरण नहीं होगा। लॉकडाउन की रणनीति समाधान के बदले समस्याओं की तलाश करने जैसी है।
 
फ़ैसले को एकपक्षीय करार देते हुए उन्होंने यह भी कहा इतना व्यापक लॉक डाउन दुनिया के किसी और देश में लागू नहीं किया गया है। यह महामारी से निपटने में देश को मज़बूत करने के बजाय, कमज़ोर करेगा। व्यवस्था के ख़िलाफ़ राजीव के विचार अपने पिता से भिन्न नहीं हैं।

गांधीजी के चार पुत्र थे— हरिलाल, मणिलाल, रामदास और देवदास। राष्ट्रपिता गांधी जमनालाल बजाज को अपना पांचवा पुत्र मानते थे। किसी समय सत्ता प्रतिष्ठान के अनुषांगिक संगठनों के साथ सेवा-भाव से जुड़े रहने वाले एक नज़दीकी मित्र ने मुझसे सवाल किया था कि गांधीजी अगर इस समय होते तो वे क्या करते? (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)