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नोट बंद करने के निर्णय का विरोध क्यों?

नोट बंद करने के निर्णय का विरोध क्यों? - Black money, Narendra Modi, Indian currency ban
- डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र 
विधाता की यह सृष्टि विविधतामयी है और इसमें प्रत्येक व्यक्ति, पदार्थ, भाव, विचार गुण-दोषमय है। यहाँ न कुछ सर्वथा सदोष है और न ही कुछ सर्वथा निर्दोष है। गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार, जड़ चेतन गुन दोषमय, विस्व कीन्ह करतार, अर्थात ईश्वर ने संसार की रचना गुण और दोष- दोनों से की है। मनुष्य भी करतार की कृति है, अतः वह भी गुण-दोष युक्त है। उसके भाव, विचार, निर्णय आदि भी गुण-दोषमय हैं और इसी विधान के अनुसार, सरकार द्वारा पाँच सौ और एक हजार के नोट बंद किए जाने का निर्णय भी कहीं निर्दोष तो कहीं सदोष है। उसके भी शुभ-अशुभ परिणाम होना स्वाभाविक है। 
इस निर्णय के फलस्वरूप भ्रष्टाचार, कालाधन आदि बुराइयों पर होने वाला संभावित नियंत्रण शुभ परिणामदायक है जबकि इसके क्रियान्वयन में आने वाली कठिनाइयाँ, जनसाधारण को होने वाली परेशानियां इसके तात्कालिक कष्टों की साक्षी हैं। जनता-जनार्दन ने इस तथ्य को समझा है और इसीलिए वह सारी असुविधाओं और परेशानियों के बावजूद इस निर्णय का दूर तक स्वागत कर रही है। एक हजार और पाँच सौ के नोट बंद किए जाने के निर्णय को आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक का नाम दिया गया है। यह नाम दूर तक सार्थक भी लगता है, क्योंकि जिस प्रकार पाक-आक्रांत कश्मीर में स्थित आतंकी शिविरों के विरुद्ध हुई सैन्य सर्जिकल स्ट्राइक से पाकिस्तान प्रभावित हुआ, उसी प्रकार आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक से कालेधन के रक्षक कुबेर आहत हुए हैं। 
 
एक ओर पाकिस्तान ने दावा किया था कि सर्जिकल स्ट्राइक हुई ही नहीं और दूसरी ओर भारत के विरुद्ध तब से आज तक निरंतर सीजफायर तोड़कर अपनी घायल नाग सी छटपटाहट प्रकट कर रहा है। यही स्थिति आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक की भी है। देश के बड़े-बड़े नेता एक ओर कह रहे हैं कि इससे कालेधन पर कोई रोक नहीं लगेगी। ऐसी नोटबंदी जनता पार्टी के शासन में पहले भी हुई थी और उसका कोई असर नहीं हुआ। एक प्रतिष्ठित नेता का कथन है कि कालाधन तो विदेशों में है, देश में है ही नहीं और दूसरी ओर निर्णय बदलवाने के लिए सरकार पर दबाव डाल रहे हैं, आंदोलन की धमकी दे रहे हैं, संसद का कार्य बाधित कर हैं। 
 
कहने की आवश्यकता नहीं ये वही लोग हैं, जो कालेधन के समर्थक हैं। कालेधन पर यथास्थिति बनी रहने देना चाहते हैं, जिनका कालेधन और भ्रष्टाचार का विरोध केवल भाषणों तक सीमित है और जो व्यावहारिक स्तर पर इसे संबल देकर निरंतर पोषित करने के पक्षधर हैं। अन्ना हजारे के आंदोलन में भ्रष्टाचार और कालेधन का विरोध करने वालों को अब सरकार पर यह निर्णय वापस लेने का दबाव और धमकीभरा स्वर शोभा नहीं देता। चिटफंड घोटालों में हुई काली कमाई से समृद्ध नेतृत्व से यह आशा करना कि वह कालेधन पर नियंत्रण में सरकार का साथ देगा, व्यर्थ ही है। वर्तमान सरकार से पहले की केंद्र सरकार में हुए घोटालों की काली कमाई छिपाने के लिए वर्तमान सरकार के इस निर्णय को बदलवाने की पुरजोर कोशिशें इसी योजना का अंग हैं। इसे समझना चाहिए।
 
कालेधन के विरुद्ध सरकार के इस कदम पर आज देश का जनमानस दो वर्गों में विभक्त है। एक ओर वह बड़ा वर्ग है जिसके पास कालाधन नहीं है। निर्दोष होकर भी वह कालेधन के कुबेरों के पापों का फल भोगने को विवश है। ठीक उसी तरह जैसे रावण के पड़ोस में रहने के कारण निर्दोष समुद्र को बंधन सहना पड़ा। सीताहरण का अपराध रावण ने किया और महिमा समुद्र की घटी। यह वर्ग परेशान होकर भी सरकार के साथ है क्योंकि वह निर्णय की गंभीरता और व्यावहारिक क्रियान्वयन की कठिनाइयों की विवशता को समझता है। दूसरी ओर वे लोग हैं जिन्होंने पिछले सात दशकों में अपने घर भरे हैं। 
 
वर्तमान सरकार के बार-बार कहने पर भी अपनी काली कमाई उजागर नहीं की और अब नोटों के रद्दी में बदल जाने पर कटे पंछी से फड़फड़ा रहे हैं। अधिकांश विपक्षी नेता भी निहित स्वार्थों के लिए इस वर्ग की आहत भावनाओं को स्वर देकर राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हैं। क्रियान्वयन की कठिनाइयों में आई परेशानियों ने उन्हें जनता को होने वाली असुविधा के नाम पर राजनीति करने का अवसर भी उपलब्ध करा दिया है और वे भड़काऊ भाषण देकर देश की शांति भंग करने, सरकार की छवि बिगाड़ने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं। ऐसी देश-विरोधी अपराधी षड्यंत्रकारी शक्तियों से सावधान रहने की आवश्यकता है। 
 
आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक के संदर्भ में यह भी रेखांकनीय है कि जहाँ एक ओर विपक्षी दल के एक बड़े नेता सरकार के निर्णय का खुले मन से स्वागत करके कालाधन और भ्रष्टाचार रोकने के लिए सरकार के साथ दृढ़ता से खड़े हैं, वहीं सरकार के अंदर से एक सहयोगी दल के नेताजी देशहित में किए गए इस सरकारी प्रयत्न पर प्रश्नचिन्ह लगा चुके हैं। इससे साफ हो जाता है कि भारतीय राजनीति में स्वच्छता, शुचिता और देशहित के लिए कौन कितना गंभीर है। किसे देश की चिंता है और किसे अपनी। भारतीय जनता के लिए अपने नेतृत्व को परखने का यह अच्छा अवसर है।
       
जो काम करता है उससे भूलें भी होती हैं। नोट बंद करने के निर्णय में कोई भूल नहीं हुई। यह प्रहार जितना अचानक होना चाहिए था, उतना अचानक हुआ। यही उचित था। यदि नोट बंद होने की सूचनाएं जरा भी लीक हुई होतीं तो कालेधन के कुबेर अतिशीघ्र अपना बंदोबस्त कर लेते। सरकार ने उन्हें अवसर नहीं दिया। यही इस निर्णय की सफलता का आधार भी है। दो हजार के नोट एटीएम मशीनों से तत्काल नहीं निकल सके, समय पर उनके सॉफ्टवेयर तैयार नहीं हुए। यहाँ चूक हुई और यही जनता की परेशानी का कारण बनी।
       
यदि सरकारी नीतियां, जनहित के लिए आवश्यक कठोर निर्णय पहले से प्रचारित हो जाएं, आयकर का छापा पड़ने की सूचना पहले ही मिल जाए तो संबंधितों को अनुचित लाभ लेने में असुविधा नहीं होती। पहले एक सरकार ने कृषि भूमि की सीमा निश्चित करने का निर्णय लिया था। निर्णय आने, कानून बनने से पहले ही नीति प्रचारित कर दी गई और बड़े-बड़े भूमिधरों ने अपनी भूमि यथोचित बंदोबस्त करके बचा ली। कानून भी बन गया और जमीन भी बची रही। 
 
कुछ ऐसी ही आशा-अपेक्षा नोट बंद करने के मामले में भी विपक्ष को रही जिसके पूर्ण न होने से हुए नुकसान से वह मर्माहत है। आवश्यकता, धैर्य और संयम से काम लेने की है ताकि लंबे समय से अस्वस्थ चल रही भारतीय अर्थव्यवस्था का कायाकल्प कर उसे नई शक्ति प्रदान की जा सके। देश-विरोधी ताकतें कमजोर हों और एक ईमानदार सशक्त भारत की पुनर्रचना संभव हो सके।
(लेखक उच्च शिक्षा उत्कृष्टता संस्थान, भोपाल में सहायक-प्राध्यापक हैं) 
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