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Written By आलोक मेहता

सुनहरे भविष्य का संकल्प

विशेष संपादकीय

भारत
भारत को आजादी मिलने के बाद दिसंबर 1947 में इलाहाबाद की एक सभा में दूरदर्शी राष्ट्र नेता पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था- "भारत का भविष्य बन रहा है और भविष्य वैसा ही होगा जैसे लाखों-करोड़ों युवक और युवतियाँ उसे बनाना चाहते हैं। समाज की तंगदिली, असहिष्णुता और संवेदनहीनता देखकर मुझे डर लगता है। युवा इस गंभीर समस्या के निदान के लिए सोचें। दुनिया में संकीर्ण, असहिष्णु, हिंसा, नफरत की फासिस्ट विचारधारा से तबाही हुई है और राष्ट्रों का पतन हुआ। हमें इस स्थिति से देश को बचाना है।"

आज 64वें वर्ष में प्रवेश पर स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराते हुए देश के हर कोने में नेहरू के उसी संकल्प को दोहराने की जरूरत है। आजादी और लोकतंत्र से आई जागरूकता तथा प्रगति के बावजूद देश के विभिन्न हिस्सों में संकीर्ण तथा हिंसक तत्वों की गतिविधियाँ बढ़ती गई हैं। धर्म के नाम पर बढ़े आतंकवाद के साथ माओ के नाम पर शुरू हुई हिंसा ने डेढ़ सौ से अधिक जिलों में आग लगा रखी है। यह दावानल किसी महायुद्ध से अधिक भयावह है। आजादी का सूरज रहते हुए हजारों-लाखों लोगों को अँधेरे में ढकेलने की कोशिश चल रही है।

भारत का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि हमारे पूर्वजों ने जब-जब
विदेशी मुद्रा का भंडार मजबूत है और खाद्यान्न के लिए भी कटोरा लेकर बाहरी मुल्कों के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं है, लेकिन विडंबना यह है कि इस आर्थिक सफलता और आजादी का पूरा लाभ अब तक दूर-दराज के गाँवों के करोड़ों लोगों तक नहीं पहुँच पाया है
दुनिया की ओर स्पष्ट तथा निर्भीक दृष्टि से देखा और अपने दिमाग की खिड़कियों को लेने-देने के लिए खुला रखा तो हमने आश्चर्यजनक प्रगति की। जब दृष्टि संकीर्ण हुई तो राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से धक्का लगा। रचनात्मक और सृजनात्मक अध्यवसाय की ताकत की ही विजय होती है। हथियारों से बर्बाद करने की ताकत जल्द ही खत्म हो जाती है। लोकतंत्र एक नैतिक व्यवस्था है।


इसके मूल में एक नैतिक अवधारणा है। संविधान और कानून का अपना महत्व है, लेकिन यदि लोकतंत्र एक ढाँचा मात्र बनकर रह जाए, एक कर्मकांड में बदल जाए, उसकी प्राणशक्ति घटती जाए तो कठिनाइयाँ बढ़ती जाएँगी। हमने आजादी पाई, लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाई और सरकारी इमारतों या अपने घरों पर झंडे फहराए, लेकिन लोकतांत्रिक खंभे अब तक मजबूत नहीं कर सके।

सीमाओं की पहरेदारी सैनिक कर सकते हैं, लेकिन स्वतंत्रता और लोकतंत्र की रक्षा का दायित्व हर नागरिक का है। लोकतंत्र का मतलब 5 साल में वोट देने का अधिकार तथा निर्वाचित प्रतिनिधि का विधान-सभा या संसद में बैठना मात्र नहीं है। इसके साथ बड़ी जिम्मेदारी तथा जवाबदेही जुड़ी हुई है। भारत की धार्मिक तथा दार्शनिक विचारधारा का केंद्र बिंदु व्यक्ति रहा है। धर्मग्रंथों और महाकाव्यों में सदैव यह संदेश निहित रहा है कि संपूर्ण ब्रह्मांड और सृष्टि का मूल व्यक्ति तथा उसका संपूर्ण विकास है।

इसमें कोई शक नहीं कि आजाद भारत दुनिया की महाशक्तियों की पंक्ति में बैठने लायक हो गया है। एक बार फिर उसकी बौद्धिक तथा सांस्कृतिक ताकत का लोहा विश्व मानने लगा है। इसे पिछड़ा और कमजोर मानने वाले देश अब प्रतियोगी समझने लगे हैं। जब हम आजाद हुए थे, तब पश्चिमी देशों के कुछ लोगों ने भविष्यवाणी की थी कि हम लोकतंत्र और स्वतंत्रता के लायक नहीं हैं तथा जल्द ही बिखरकर नष्ट हो जाएँगे, लेकिन हम ही नहीं दुनिया के बड़े देश मानते हैं कि हमने न केवल स्वतंत्रता और अखंडता की रक्षा की है, वरन्‌ विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र सफलतापूर्वक चलाकर दिखाया है।

किसी खूनी क्रांति के बिना सरकारें बदली हैं। राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन किए हैं। जब संपन्न देश अपनी अर्थव्यवस्था को बुरी तरह चरमराने से नहीं बचा सके, भारत ने अपने पैर फिसलने नहीं दिए। अब विदेशी सहायता की चाह भारत को नहीं रह गई है। विदेशी मुद्रा का भंडार मजबूत है और खाद्यान्न के लिए भी कटोरा लेकर बाहरी मुल्कों के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं है, लेकिन विडंबना यह है कि इस आर्थिक सफलता और आजादी का पूरा लाभ अब तक दूर-दराज के गाँवों के करोड़ों लोगों तक नहीं पहुँच पाया है।

भूखे पेट कोई सेना नहीं लड़ सकती। भूखा देश चैन की नींद नहीं सो सकता। भारत के किसानों ने देश को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया, लेकिन उसी अन्नदाता की काया कमजोर होती गई है। विपुल वन तथा खनिज संपदा वाले प्रदेशों में आदिवासियों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति में सुधार नहीं आया है। नदियों का पानी समुद्र में चला जाता है और जल के भंडारण तथा प्रबंधन की कमी से करोड़ों लोग शुद्ध पेय जल से वंचित हैं। यही नहीं, पानी के बँटवारे की राजनीति होती है, लेकिन पानी के सदुपयोग के लिए सर्वानुमति के साथ ठोस प्रयास नहीं हो पाते। नदियों के किनारों और पहाड़ों पर पूजा-अर्चना होती है, लेकिन सही अर्थों में उनके रख-रखाव और सुरक्षा की चिंता नहीं की जाती।

शिक्षा-दीक्षा के लिए हजारों स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय खुलते गए हैं।
गाँवों में खेती से कल्याण के साथ लघु-उद्योगों की स्थापना जरूरी है। जब तक अशिक्षा और बेरोजगारी की समस्याओं पर काबू नहीं पाया जा सकेगा, तब तक आर्थिक आजादी का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकेगा
फिर भी एक बड़ा वर्ग अच्छी शिक्षा से वंचित तथा बेरोजगारी से विक्षप्त है। भ्रष्टाचार की समस्या दीमक की तरह लोकतंत्र की दीवारें खोखली कर रही है। शासन-व्यवस्था से जुड़े लोग रिश्वत को जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगे हैं। पानी-बिजली-सीवर के छोटे से कनेक्शन से लेकर रेल-हवाई जहाज तथा सेना के हथियारों और खान-पान तक की व्यवस्था में रिश्वत का बोलबोला है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश स्वयं इस बात की भर्त्सना कर रहे हैं कि न्याय-व्यवस्था में भी भ्रष्टाचार पर अंकुश जरूरी हो गया है।


आजादी और लोकतंत्र का सर्वाधिक लाभ उठाने वाला राजनीतिक वर्ग इतने चुनाव सुधारों के बावजूद अधिक भ्रष्ट और आपराधिक प्रवृत्ति से ग्रसित होता गया है। विधान-सभा या लोक सभा के चुनावों में बड़ी संख्या में उम्मीदवार करोड़ों रुपया खर्च करने लगे हैं। विधान-सभा में चुने गए प्रतिनिधि राज्य सभा के सदस्य का चुनाव करते हुए बेशर्मी से पाँच-दस करोड़ रुपया माँगने में संकोच नहीं करते तथा गुप्त कैमरे से रंगे हाथों पकड़े जाने पर भी दंडित नहीं होते। हत्या के गंभीर आरोप लगने के बावजूद सत्ता में बने रहते हैं। इसलिए आजादी का जश्न मनाते समय आत्म-निरीक्षण, चिंतन तथा सुधार के संकल्प की जरूरत है।

गरीबी हटाओ का नारा देकर राजनीतिक दल सत्ता में आते हैं लेकिन अमीरी बढ़ने के साथ गरीबी कम नहीं हो रही है। देश की 60 से 70 प्रतिशत आबादी जमीन से जुड़ी है, लेकिन विभिन्न प्रदेशों में गाँधी-नेहरू के सपनों के अनुरूप भूमि-सुधार योजनाएँ क्रियान्वित नहीं हुईं। गाँवों में खेती से कल्याण के साथ लघु-उद्योगों की स्थापना जरूरी है। जब तक अशिक्षा और बेरोजगारी की समस्याओं पर काबू नहीं पाया जा सकेगा, तब तक आर्थिक आजादी का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकेगा।

गाँधीजी ने आजादी से पहले नारा दिया था - 'ईच वन, टीच वन।' यानी हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति कम से कम एक व्यक्ति को लिखना-पढ़ना सीखा दे तो देश में असली शैक्षणिक क्रांति हो जाए, लेकिन गाँधी की तस्वीरों पर फूल चढ़ाने वाले आज तक इस नारे को अमली जामा पहनाने में सफल नहीं हुए। दुनिया भर से दोस्ती में भारत सफल होता गया, लेकिन अपने देश में सामाजिक सौहार्द तथा मैत्री भाव बढ़ने की बजाय घटता गया है। तिरंगा फहराते समय इस कटुता को खत्म कर संपूर्ण समाज और राष्ट्र के लिए एकसाथ कदम आगे बढ़ाने के संकल्प की आवश्यकता है। सुनहरा भविष्य हमारे आपके हाथों में ही है। स्वतंत्रता दिवस पर अनेकानेक शुभकामनाएँ।