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Written By रवींद्र व्यास

सच का सामना तो करना पड़ेगा

ब्लॉग पर भी इस टीवी सीरियल को लेकर बहस गर्म

सच का सामना तो करना पड़ेगा -
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तो बवाल मचा हुआ है। सच बवाल पैदा करते हैं। मुश्किलें खड़ी करते हैं। सच का सामना कई बार मुश्किल होता है। टीवी पर आ रहे 'सच का सामना' लोग कई तरह से कर रहे हैं। सबके ढंग अलग-अलग हैं। इस विवादास्पद टीवी सीरियल में आने वाले लोग सच का सामना अलग ढंग से कर रहे हैं और इसे देखने वाले भी इसका सामना अलग ढंग से कर रहे हैं। इसे बनाने वाले भी इसका सामना अलग ढंग से कर रहे होंगे क्योंकि उन पर आँच आ रही होगी।

स्टार प्लस पर भी आँच आ ही रही है कि उसने अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए इस तरह के सनसनीखेज सीरियल की शुरुआत की। इसकी गूँज बहुत दूर तक गई है। घरों से निकलकर संसद तक। कई पार्टियों को एतराज है कि सच का सामना क्यों है। इसके सवालों पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। इससे समाज में और कुछ राजनीतिक पार्टियों में एतराज है। टीवी पर आ रहे रियलिटी शो ने एक नया मोड़ ले लिया है। नई बहस को जन्म दे दिया है। जाहिर है ब्लॉग की दुनिया भी इस नई और गरमागरम बहस से कैसे दूर रह सकती है।

नुक्क्ड़ ब्लॉग पर राजेश त्रिपाठी सही सवाल उठाते हैं। उन्हें एतराज है कि यह सब टीआरपी का मामला है। उन्हें एतराज है कि इस तरह के शोज और कुछ सनसनीखेज खबरों और घटनाओं को दिखाकर चैनल्स अपनी टीआरपी बढ़ाने का खेल खेल रहे हैं। वे लिखते हैं कि आजकल तो टीआरपी बढ़ाने के नाम पर ये चैनल अनाप-शनाप और आपत्तिजनक कार्यक्रम तक पेश करने लगे हैं। कहीं किसी की बहादुरी दिखाने के लिए उन्हें कुत्तों से नुचवा रहे हैं तो कहीं किसी को तिलचट्टों या साँपों से चटवा रहे हैं।

यह कैसी बहादुरी! अभी हाल ही एक चैनल लोगों को सच का सामना करने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। लालच यह दिया जा रहा कि अगर कोई महिला या पुरुष सच-सच, साफ-साफ खुलेआम बयान कर सके तो एक करोड़ रुपए उसके हो जाएँगे। यह कार्यक्रम कुछ ऐसा है कि प्रतियोगी से सारे प्रश्न पहले अलग से पूछ लिए जाते हैं। ऐसा करते वक्त पोलीग्राफी टेस्ट के जरिये उसका झूठ पकड़ा जाता है। कई बार उसके दिमाग में कुछ और चल रहा होता है और वह उसे खुलेआम कहने का साहस नहीं करता और झूठ बोल जाता है, लेकिन उसे पता नहीं होता कि पोलीग्राफी मशीन उसका झूठ पकड़ चुकी है।

कुछ ब्लॉगरों का मानना है कि इस तरह के चैनल लोगों की निजता में सेंध लगाने की कोशिश भी कर रहे हैं। अपनी इसी पोस्ट में राजेशजी कहते हैं कि इस कार्यक्रम को एक बार यह सोचकर देखना चाहा कि देखें कोई नया सोच लेकर आए होंगे चैनल वाले लेकिन जो कुछ देखा उससे तो यही लगा कि यह और कुछ नहीं किसी की निजता में सेंध मारने की अनधिकृत चेष्ठा है। किसी की निजता उसके अपने नितांत निजी व्यक्तित्व के साथ शाब्दिक बलात्कार और उसके जीवन में विष घोलने की चेष्टा है।

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अजयकुमार झा अपने ब्लॉग पर एक सचाई को दिलचस्प अंदाज में बयान करते हुए कहते हैं -अरे कोई सच ...सेक्स के बिना ...सच होता है क्या आज के जमाने में.......सच ने सफाई दी.....अरे छोड़ो तुम्हारे बस का नहीं है न ..इसलिए बौखला रहे हो...क्यूँ नहीं बैठ जाते उस सीट पर ...बेटा पता चल जाएगा कितना दम है.....? यह सच का सामना देखने का उनका एक नजरिया है। लेकिन एक दिलचस्प नजरिया पेश किया है कार्टूनिस्ट इरफान ने।

इरफान ने इस विवादास्पद सीरियल पर एक तीखी नजर डालते हुए इसके राजनीतिक निहितार्थ दिलचस्प ढंग से निकालने की कोशिश की है। आडवाणीजी एक कॉमनमैन से कह रहे हैं हमने सच का सामना अभी तो किया था। और उनके हाथ में एक कागज है जिस पर लिखा है -चुनाव -2009। निश्चित ही यह कार्टून बताता है कि कार्टूनकार किस तरह से चीजों को कोरिलेट कर नए अर्थ निकाल लेता है। यह कार्टून इसकी एक अच्छी मिसाल है।


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कुछ ब्लॉगर इस सीरियल को भारतीय संस्कृति पर हमला मानते हैं। उदाहरण के लिए रांचीहल्ला ब्लॉग पर मोनिका गुप्ता सच का सामना और राखी का स्वयंवर पर अपनी तीखी टिप्पणियाँ लिखती हैं। सच का सामना के बारे में वे अपनी पोस्ट का शीर्षक लिखती हैं क्या आप कच्ची उम्र में गर्भवती बनी हैं? इसमें वे लिखती हैं कि एक श्रीमान बैठे हैं, साथ में पत्नी, माँ-पिता समेत पूरा परिवार। उनसे सवाल पूछा जाता है कि आपका आपकी पत्नी के अलावा भी अन्य स्त्रियों से नाजायज संबंध है, क्या ये सच है? जवाब आता है हाँ।

पत्नी समेत सभी लोग खुशी से ताली बजाते हैं। अब बेटी के चोरी-छिपे अवैध संबंध बनाने और पति के दूसरी स्त्रियों के साथ संबंध बनाने पर माँ और पत्नी खुशी से ताली बजाए, तो इसे भारत की विडंबना ही कहा जाएगा। जहाँ जन्म होते ही लड़कियों को अपनी मर्यादा का ख्याल रखने की चेतावनी दी जाती है, जहाँ पति के कोट से फीमेल परफ्यूम की गंध भी तलाक का कारण बनती है, वहाँ इस तरह के जवाब में हाँ की स्वीकारोक्ति भी ताली बजाने का कारण बनती हो, तो इसे भारतीय संस्कृति का दुर्भाग्य ही कहेंगे।

क्या यह इक्कीसवीं सदी का सच है? शीर्षकवाली पोस्ट में अंशुमाली रस्तोगी लिखते हैं कि शायद सच का सामना हमें यह बताने की कोशिश कर रहा है कि सच डरावना होता है। सच से डरो क्योंकि इससे आपके रिश्ते खतरे में पड़ सकते हैं। आपके संबंधों पर आँच आ सकती है और आपके जीवन पर संकट के बादल मँडराने लग सकते हैं।

लेकिन कुछ ब्लॉगर इसे सकारात्मक नजरिये से भी देख रहे हैं। उनका कहना है कि इससे सच बोलने की हिम्मत पैदा होती है। एक ब्लॉगर माधव तिवारी अपने ब्लॉग पर लिखते हैं कि ये सभी मानते हैं कि कुछ सच ऐसे होते हैं जो सामने न आएँ तो अच्छा रहता है... लेकिन अगर सामने वाला व्यक्ति सच को उजागर करना चाहता है... तो उसे सुनने में क्या बुरा है... और ये तो बड़ी हिम्मत की बात है..

हमें तो उस सच बोलने वाले या वाली का इस्तकबाल करना चाहिए...जरा गौर करिए जब आप ये कार्यक्रम देख रहे हों... तो आप ये जरूर सोचने लगते हैं कि मेरे अंदर वो कौन सा सच है जो मैंने दुनिया को नहीं बताया... या अपने चाहने वालों से छिपाया... और ये और दिलचस्प हो जाता है जब आप टीवी स्क्रीन पर सच का सामना कर रहे एक व्यक्ति को देखते हैं और ये फैसला करते हैं कि आगे से सच बोलने की कोशिश करेंगे...

लेकिन क्या एक चैनल पर आ रहे सीरियल सच का सामना ही एक सच है। क्या हमारे देश के असली सच लोगों को दिखाई नहीं दे रहे? क्या वे ये ज्यादा सच्चे और पीड़ादायी सच का सामना नहीं करना चाहते? हम सब इस सीरियल को लेकर वाद-विवाद में लगे हैं और उधर पुण्यप्रसून वाजपेयी अपनी पोस्ट में इस देश के असली सच को दिखा रहे हैं। एक किसान की दर्दनाक दास्तान सुनाने के बाद वे लिखते हैं कि मुझे लगा मनमोहन सिंह हर गाँव में शहर देखना चाहते हैं और राहुल गाँधी हर गाँव को अपने सपने से जोड़ना चाहते हैं। ऐसे में किसान का सच कितना खतरनाक है।

क्या हम सच का सामना देखते हुए देश के ज्यादा बड़े सच का सामना करने की स्थिति में हैं? सबके सच अलग-अलग होते हैं। उसके मकसद भी अलग-अलग होते हैं। उसके स्वार्थ और अर्थ भी अलग-अलग हो सकते हैं। लेकिन इससे निजात नहीं कि सच का सामना तो करना ही पड़ेगा।

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