शुक्रवार, 29 मार्च 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. विचार-मंथन
  3. विचार-मंथन
Written By Author विभूति शर्मा
Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (19:25 IST)

शर्म इनको मगर नहीं आती

शर्म इनको मगर नहीं आती -
FILE
शर्म आ रही है न! मुझे तो आ रही है। आखिर हम किस राह पर चल रहे हैं। इन निर्लज्ज नेताओं के भरोसे हम कैसे सुदृढ़ और समृद्ध भारत की कल्पना कर सकते हैं जिनकी जुबान पर विकास की बातें आती ही नहीं।

इनके मुंह खुलते हैं तो निकलती है सांप्रदायिकता भड़काने वाली आग। निजी जीवन को झुलसाने वाले बोल और परिवारों को शर्मसार कर देने वाली भाषा!

नेताओं का चाल, चरित्र और चेहरा उनके बयानों से समझा जा सकता है। अभी तक हम यह मानकर चल रहे थे कि क्षेत्रीय पार्टियों के नेता ही ओछी राजनीति करते हैं, लेकिन राहुल गांधी ने हाल में नरेन्द्र मोदी की पत्नी का मामला उठाकर इस धारणा को ठेस पहुंचाई।

भाजपा नेताओं द्वारा जवाबी बयानबाजी ने भी साबित किया कि नेता कौम के लिए निर्लज्जता सर्वोपरि है, बाकी सभी मुद्दे उनके लिए गौण हैं।

अब दे‍खिए न नेताओं के बयानों से आर्थिक विकास, सुरक्षा, शिक्षा और वैश्विक पटल पर भारत की छवि आदि मुद्दे नदारद हैं। लंबे-लंबे भाषणों में इन मुद्दों का नाममात्र का उल्लेख होता है, बाकी पूरा समय निजी संबंधों और आरोपों पर जाया होता है।

लोकसभा चुनावों की घोषणा से लेकर अभी तक के नेताओं के बयानों पर नजर डालें तो सिर्फ जहरबुझे बयानों की भरमार दिखाई देती है। निजी आरोपों से बाहर आते हैं तो सांप्रदायिक भेदभाव की ओर मुड़ जाते हैं। कोई अपने आपको मुस्लिम-हितैषी बताता है तो कोई खुद को हिन्दू-हित की बात करने वाला साबित करने की कोशिश करता है।

इन उद्दंड और उजड्ड नेताओं के मुंह पर लगाम लगाना बहुत जरूरी है। चुनाव आयोग ने आजम खान और अमित शाह के मुंह पर ताला लगाने के साथ इसकी शुरुआत की है। लेकिन लगता नहीं कि यह पर्याप्त है, क्योंकि पूरी नेता कौम ही जब हमाम में नंगी दिखाई दे तब क्या किया जाए?

आजम खान और अमित शाह दोनों को घोर सांप्रदायिक नेता माना जाता है। एक कट्टर मुस्लिमपरस्त तो दूसरा कट्टर हिन्दूवादी। इनके इतिहास से तो अब दुनिया पर‍िचित हो चुकी है।

आजम ने तो सेना तक में सांप्रदायिकता का जहर घोलने का प्रयास किया, तो दूसरी ओर अमित शाह ने दंगापीड़ित मुजफ्फरनगर में 'बदले' का बयान देकर आग को भड़काने की कोशिश की। अमित पर गुजरात दंगों के दाग तो पहले से ही लगे हुए हैं।

चुनाव आयोग की रोक का असर आजम पर दिखाई नहीं दिया। उन्होंने एक और विवादास्पद बयान दे डाला। अब उन्होंने संजय गांधी, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की आकस्मिक मौत को 'अल्लाह का इंसाफ' बताकर आग को भड़काने की कोशिश की है।

आपको याद दिला दूं ये वही आजम खान हैं जिन्होंने अपनी भैंसों को ढूंढने में पूरी उत्तरप्रदेश पुलिस को लगा दिया था।

आजम खान को हम क्या दोष दें, उनकी पार्टी सपा के सुप्रीमो मुलायम सिंह तो बलात्कारियों के लिए बयान दे रहे हैं कि भई लड़कों से गलती हो जाती है तो क्या उन्हें फांसी पर चढ़ा दोगे? यह उचित नहीं है, हम आए तो कानून बदलेंगे।

उन्हीं की पार्टी के मुंबई जैसे महानगर में बैठे एक और नेता अबू आजमी कहते हैं कि शादी के बिना शारीरिक संबंध बनाने वाली लिव-इन-रिलेशन में रहने वाली महिला को भी कड़ी सजा मिलनी चाहिए। अब बताइए ऐसे नेताओं को हम क्या कहें? स्वयं अबू आजमी की बहू आयशा टाकिया ने जवाब दे दिया है कि मैं और मेरे पति ससुर के इस बयान से शर्मसार हैं।

वैसे देखा जाए तो राजनीति में जातिगत भेदभाव, घृणा और वैमनस्यता फैलाने का सबसे ज्यादा श्रेय क्षेत्रीय पार्टियों को जाता है। खासतौर से लालू और मुलायम जैसे नेताओं को सत्ता मिलने के बाद राज्यों में जातिवाद ज्यादा फैला। इसी का असर है कि आज उत्तरप्रदेश और बिहार सबसे ज्यादा पिछड़े राज्यों में शुमार होते हैं।

गुंडागर्दी और अपराध बढ़ने के साथ इन राज्यों में विकास अवरुद्ध हुआ। ऐसे दलों को आड़े वक्त में कांग्रेस ने प्रश्रय दिया इसलिए कांग्रेस को भी घृणा की राजनीति करने के आरोप से मुक्त नहीं किया जा सकता।

अब वक्त आ गया है कि कांग्रेस और भाजपा जैसे दल बड़प्पन दिखाएं और हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति छोड़कर देशहित के साथ विकास पर अपना ध्यान केंद्रित करें।