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Written By विट्‍ठल नागर
Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (19:26 IST)

इसलिए बढ़ाई गई निर्यात में राजसहायता

इसलिए बढ़ाई गई निर्यात में राजसहायता -
वर्ष 2007-08 के लिए देश की आयात-निर्यात नीति में की गई व्यवस्थाओं से दो स्पष्ट निष्कर्ष निकलते हैं- (1) डॉलर की तुलना में रुपए की विनिमय दर महँगी रहने वाली है एवं (2) अमेरिका व योरप के बाजार भारत के निर्यात में वृद्धि लाने में सहायक न होते हुए भी देश का कुल निर्यात जो 125 अरब डॉलर है उसे बढ़ाकर 160 अरब डॉलर तक ले जाने का आह्वान निर्यातकों से किया गया है।

आज भारत के निर्यात को बढ़ाने में सबसे बड़ी बाधा डॉलर की तुलना में रुपए का महँगा होना है, इसलिए विदेशी मंडियों में भारत का माल महँगा पड़ता है व इन मंडियों में भारत के माल को श्रीलंका, पाकिस्तान व बांग्लादेश के माल से पटखनी खानी पड़ रही है।

इसी तरह अमेरिका व यूरोप की विदेश व्यापार नीति अधिक संरक्षणवादी बनती जा रही है, जिससे अमेरिका में हमारे निर्यात की वृद्धि दर सतत रूप से घटती जा रही है, वहीं यूरोप में भारतीय निर्यात ठप पड़ा है। यानी उसमें वृद्धि नहीं हो रही है। फिर भी देश के निर्यातक नई नीति से खुश हैं एवं सरकार को लगता है कि निर्यात के बढ़े-चढ़े लक्ष्य को प्राप्त करना मुश्किल नहीं है।

निर्यातक खुश क्यों? : निर्यातकों के खुश होने की वजह भी दो हैं-(1) अगर डॉलर के मुकाबले रुपए की विनिमय दर महँगी है अथवा अप्रैल 2006 की तुलना में आज रुपए की दर 8 प्रतिशत अधिक है तो नई नीति में सरकार ने निर्यात किए जाने वाले माल पर लगे 10 प्रतिशत के सेवा कर से रकम निर्यातकों को मुजरा मिलेगी अथवा रिफंड मिल जाएगा।

इसके अलावा अनेक मदों में निर्यातकों को कर में डेढ़ से दो प्रतिशत की राहत मिली है। अगर रुपए के महँगा होने से निर्यातकों को होने वाली हानि की पूर्ति के लिए सरकार ने 12 प्रतिशत की राहत दे दी है, इस तरह चार प्रतिशत की अतिरिक्त मार्जिन निर्यात में अन्य देशों के माल को पछाड़ने में पर्याप्त है व (2) विदेश कृषि योजना, ग्राम उद्योग योजना, हाईटेक निर्यात योजना व फोकस कंट्री योजना में दी गई अतिरिक्त रियायतों से निर्यात बढ़ाना सरल है।

नीति की विशेषताएँ : हाईटेक (उच्च प्रौद्योगिकी) योजना के तहत विमानों के हिस्से-पुर्जों, सेमी कंडक्टरों, इलेक्ट्रॉनिक्स की वस्तुएँ व उच्च स्तर के सॉफ्टवेयर जैसे निर्यात पर सरकार 10 प्रतिशत शुल्क मुजरा (रिफंड) देगी। विदेश कृषि के तहत मक्का, जुवार, जव, सोयाबीन, मसालों के निर्यात को बढ़ावा दिया गया है, क्योंकि विदेशों में इनके भाव अब आसमान पर रहने वाले हैं, इसलिए नई नीति में किसानों को इन जिंसों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए गहा गया है और इस योजना का नाम विदेश कृषि रखा गया है।

इसी तरह ग्राम उद्योग योजना के तहत गाँवों व कस्बों में निर्यातमूलक रोजगार बढ़ाने को प्रोत्साहन दिया गया है प्रसंस्करण उद्योगों के माध्यम से। फोकस कंट्री योजना के तहत पूर्व सोवियत संघ के देशों (जो अब सीआईएस देश कहलाते हैं) को अधिक निर्यात करने के लिए आकर्षक रियायतें दी गई हैं। इसी तरह डीईपीबी (शुल्क मुजरा प्राप्त करने की पासबुक योजना) को चालू रखा गया है, वहीं ईपीसीजी (निर्यात संवर्द्धन पूँजीगत माल योजना) को अधिक विस्तृत करने के साथ कुछ रियायतें भी दी गई हैं। इन सबसे निर्यातक उत्साहित हैं।

योजना बहुत अच्छी नहीं : देखा जाए तो निर्यात योजना वही अच्छी होती है जिसमें तीन विशेषताएँ हों- (1) योजना में बुनियादी संरचना को बल मिलना चाहिए अर्थात (अ) निर्यात से रोजगार के अवसर बढ़ना चाहिए व (ब) वैल्यू एडेड उत्पाद का निर्यात अधिक हो न कि कच्चे माल जैसे तंबाकू, खनिज, लौह, कपास आदि का। (2) निर्यात बगैर प्रोत्साहन के बढ़ना चाहिए ताकि देश की अर्थव्यवस्था को अधिक बल मिले।

अभी तो निर्यात में करों की रियायत देकर बजट घाटे को बढ़ावा दिया जा रहा है। राजसहायता प्राप्त निर्यात आम नागरिक पर कर का भार बढ़ता है। नई योजना में इन सभी बातों का तो नहीं, पर रोजगार बढ़ाने पर जरूर थोड़ा-बहुत ध्यान दिया गया है। ग्राम विशेष, कृषि विशेष व हाईटेक योजना रोजगार वृद्धि के उद्देश्य पर ही आधारित है- इसलिए योजना अच्छी कही जा सकती है। दूसरी बात यह है कि आजादी के बाद से देश के आयात व निर्यात दोनों के लिएअमेरिकी व योरपीय बाजार प्रमुख थे।

अब इन दोनों बाजारों पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए हमने दक्षिण-पूर्व एशिया के बाजार विकसित कर लिए हैं व दक्षिण अमेरिका व अफ्रीका के बाजार को प्रमुख लक्ष्य बनाने के बाद अब उत्तर-पूर्व एशिया के सीआईएस देशों के बाजारों को भारत आधारित बनाने के प्रयासों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।

परंपरागत माल का निर्यात घटा : एक जमाना था जब हस्तशिल्प, हथकरघों के उत्पाद, स्वर्ण आभूषण व हीरे व बहुमूल्य रत्नों के निर्यात हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण थे, किन्तु वर्ष 2005- 06 के मुकाबले वर्ष 2006-07 में इनके निर्यात में कमी आ गई है। सिलेसिलाए तैयार वस्त्रों के निर्यात में महज 4 प्रतिशत की वृद्धि हुई, क्योंकि चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान आदि देशों ने इनके उत्पादन में अपनी लागत काफी घटा ली है वे भारतीय माल को अच्छी टक्कर दे रहे हैं।

रत्नाभूषण व हीरों के निर्यात में भी मलेशिया, चीन आदि आगे निकल रहे हैं। इसलिए इनके निर्यात में महज 4.3 प्रतिशत की ही वृद्धि कर पाए हैं। दूसरी ओर पेट्रोकेमिकल्स के निर्यात में 55 प्रतिशत की, इंजीनियरिंग माल के निर्यात में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। मसालों के साथ चाय व कॉफी के निर्यात में भी अच्छी वृद्धि हुई है।

हस्तशिल्प, हथकरघे, सिलेसिलाए वस्त्र, रत्नाभूषण के निर्यात रोजगारमूलक हैं, इसलिए इनके निर्यात में वृद्धि लाने हेतु अधिक प्रयासों व लंबी अवधि की नीतियों की जरूरत है। इनमें पिछड़ना हमारे लिए गलत होगा। अगर राजसहायता से ही निर्यात बढ़ाना हमारी नीति बन गई है, तो इन्हें भी अधिक राजसहायता दी जानी चाहिए।