जो आदमी कभी न राजनीति में सक्रिय दिखाई दिया, न मज़दूरों के आंदोलन में, न सरकारी कर्मचारियों से जिसका संपर्क रहा और न किसान-आदिवासियों से, वही अचानक एक दिन उत्तर प्रदेश में एक दलित की चारपाई में जाकर बैठ जाता है, या फिर जब मायावती की सरकार दिल्ली के पास अपनी ज़मीन बचाने की लड़ाई लड़ रहे किसानों पर गोली चलवाती हैं तो राहुल गाँधी सवेरे पाँच बजे मोटरसाइकिल के पीछे बैठकर पुलिस वालों को धता बताते हुए दिल्ली के पास भट्टा-पारसौल के किसानों की मिज़ाजपुर्सी करने पहुँच जाते हैं.
राहुल और उसके योजनाकारों को ये भरोसा रहा होगा कि भट्टा-पारसौल घटना के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की नज़र में राहुल गाँधी का ओहदा चौधरी चरण सिंह और चौधरी देवीलाल के बराबर हो जाएगा?
जिसे राजनीती का ककहरा नहीं आती, उसे अगर पार्टी का अध्यक्ष बना दिया जाये तो उसका क्या हाल होगा वो कांग्रेस पार्टी देख रही है. खैर सोनिया और राहुल से कुछ उम्मीद करना तो भैस के आगे बीन बजने बाली बात है, पर आश्चर्य तब होता है जब इसके तमाम नेता भी मूर्खता पूर्ण बातें करते हैं.
राहुल गाँधी की राजनीति का ये नख-शिख वर्णन कर्नाटक में काँग्रेस के हार के बहाने नहीं किया जा रहा है. कर्नाटक में काँग्रेस की हार उस सतत प्रक्रिया का हिस्सा है जिसकी गारंटी राहुल गाँधी ख़ुद हैं. अगर कहीं काँग्रेस जीतती है तो राहुल गाँधी के कारण नहीं बल्कि उनके बावजूद जीतती है.
काँग्रेस तभी बच पाएगी जब वो "परिवार" को छोड़कर आगे बढ़ जाए और कुछ जमीनी नेता जो देश के लिए समर्पित हो और देश के समझ पाने की जिसमे सकती हो, तभी कांग्रेस पार्टी से कुछ उम्मीद किया जा सकता है. अन्यथा कांग्रेस परिवार सहित डूब जाएगी.
क्या कोई काँग्रेसी नेता राहुल गाँधी से सीधा सवाल करेगा? क्या काँग्रेस के नेता को समझेंगे कि अब राहुल गाँधी से सीधे सवाल करने का वक़्त आ गया है?
वैसे आज भी हमारे देश मे बहुत सारे चाटुकार बुद्धिजीवी वर्ग है, ख़ास कर जो देश की राजनीती को एक व्यापार समझते हैं और देश से केवल अपना फायदा करने बाले लोग हैं, वे लोग कांग्रेस का समर्थन करते थकते नहीं. पर अब भ्रस्टाचार का बोलबाला ख़त्म होने बाला है और ऐसे लुटेरों और जनता को गुमराह करने बाले लोग काम हो रहे हैं. पर अभी कुछ समय लगेगा ऐसे लोगो को सुधरने मे, क्योकि अब कांग्रेस की घटिया राजनीती को लोग समझने लगे हैं.