हम सभी घर बैठकर अपनी अपनी जिव्हा जैसी चाहे हिलाते है. कभी ग़ुस्सा तो कभी बड़ी फिलॉसॉफीवाली बात कहते है लेकिन क्या अपने आप को उन परिवारका हिस्सा बनाकर सोचा है? कभी अपने आपको या परिवार क किसी सदसय को आर्मी या पुलिस में भर्ती होने के लिए हौसला बढ़ाया है? कोशिश की है? आज भी इस दुःख की घडी में हम आय पि यल में मस्त है, बाहुबली देख रहे है. ऐसी परिस्थिति में राजनीतिसे ऊपर उठाकर, भेदभाव भूलकर हर एक को केवल भारतमाता का सपूत, एक इंसान बनाकर सोचना चाहिए. सभी ने मिलकर मुकाबला करना चाहिए, शांति हर कोई चाहता है, लेकिन एक हात से ताली नहीं बज सकती की वे मरते रहे और आप शांति की बाते करते रहे, देश के बहार इतना पता है दुश्मन कौन है, पर अंदर का दुश्मन तो हमें कुरेदता जा रहा है. अगर अइसही चलता रहा तो हम खुद ही अपने आप को बचा नहीं पाएंगे. जब देश और देश के सपूतों की बात हो तो हर नागरिक ने विरोध प्रदर्शन करना चाहिए, किसी मानव अधिकरवालों के, राजनीतिक नेताओं के, किसी भी धर्म के महंतो के बहकावे में न आकर, जाती धर्म से उठाकर केवल एक हिंदुस्थानी बनाकर लढना चाहिए. अगर आतंकवाद और नक्सलवाद कानून व्यवस्था की समस्या नहीं है, तो ये नक्सली नेताओ को क्यों नहीं मारते , नेताओ को क्यों नहीं प्रस्ताव भेजते बातचीत करने का? क्यों नहीं ऐसी मांग करते जिससे जान सामान्य लोगो का भला हो? क्यों नहीं सड़क बनवाने देते जिससे हर तरह की सुविधा उन गांव वालों तक पहुंचे. और जो लोग बड़ी बड़ी ज्ञान की बाते करते है वे उस इलाके में जाकर उन परिस्थितियों के बारे में उन लोगो से तथा नक्सलियों से बात करते? हर एक जिम्मेदारी हम सरकार के भरोसे क्यों सोचते है? और उन्ही के भरोसे है तो देखो तमाशा चुपचाप. इसका हल चाहे बॉर्डर पे, चाहे आतंरिक जगह एक ही है, वह है हमारे सोच की एकता, हम कोई भी परिस्थिति पे बस कुत्ते बिल्लियों जैसे झगड़ते है, अपनी अपनी बातें ऐसी रखते है जिसका न कोई शिर है न पैर.