जबसे हमने तो होश सम्हला हे तभी से ये देखते आए थे कि रेल बजट का मतलब होता था जिस भी प्रदेश का रेल मंत्री होता था वहा वो रेल तोह्फो के तौर पर अपने प्रदेश और सहयोगी दलों के प्रदेश को उपहार में बाँटा करते थे, फिर चाहे रेल को कितना भी आर्थिक नुकसान हो ऐसा कर वो जनता के बीच सस्ती लोकप्रियता पा लेते थे,एक पूर्व रेल मंत्री ने लगातार कई सालों तक किराया नही बदाया,वो देहात से थे उन्होंने रेल को भेश मन कर उसे सिर्फ़ दोह्ते रहे बीना ये देखे कि भेष को भी चारा खिलाना होता हे, ऐसा कर वो ''मेनेग्मेंत गुरु'' बन गए..इसके बाद नए रेल मंत्री आए उन्होंने रैलवे कि हल्लत देख् कर यात्री किराया बदना चाहा.. उनकी सुप्रेमो नाराज हो गयी और रेल मंत्री अपने घर बैठा दिए गए..उसे बाद रैलमंत्री आए जिनका भांजा करोड़ों कि रिश्यत लेते पकड़ाया, कल वो टी. वी. पर चीख रहे थे कि यात्री किराया कम नही किया गया..कोई उन्हें सम्झाये रेल मंत्री का कोई ऐसा भांजा नही हे ...इन सब के पीछे मेरा कहने का सिर्फ़ एक ही मकसद हे देश में रेल को हमेशा अपने निजी लोकप्रियता के लिए बैज़ा इस्तेमाल ही किया गया हे..और जब रेल मंत्री में कुछ रेल कि भलाई के लिए साहसी कदम उठाये हे तो ये विधवा विलाप क्यो?