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Written By अनहद

सिटी ऑफ गोल्ड : चौबीस कैरेट की

सिटी ऑफ गोल्ड
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निर्माता : अरुण रंगाचारी
निर्देशक : महेश मांजरेकर
संगीत : अजीत परब
कलाकार : विनीत कुमार, समीर धर्माधिकारी, कश्मीरा शाह, सतीश कौशिक, गणेश यादव, सीमा बिस्वास, सचिन खेड़ेकर

सबसे पहले बात अभिनय की। सिटी ऑफ गोल्ड में जितना और जैसा अभिनय नए और अनाम कलाकारों ने किया है, वैसा और उतना अभिनय तो सालभर में सारे नामी सितारों ने मिलकर नहीं किया। पक्या, मनु, स्पीड ब्रेकर, मुन्नी, मामा-मामी, जिग्नेश, राणे...। सिनेमा हॉल के बाहर यदि आपको पात्र का नाम याद है, तो समझिए कि कलाकार ने बढ़िया अभिनय किया है। अगर अभिनय अच्छा नहीं है, तो आप उस पात्र का नाम सिनेमाघर से बाहर निकलते हुए भूल जाएँगे।

महेश मांजरेकर की यह फिल्म देखकर जब आप निकलते हैं, तो कुछ नहीं भूलते। उलटे आपको लगता है कि जिन पात्रों को हमने फिल्म में देखा है, वो सिनेमाघर के बाहर भी हैं, हमारी जिंदगी का हिस्सा हैं। महेश मांजरेकर ने मिल मजदूरों के जीवन का एक जिंदा टुकड़ा काटकर सामने रख दिया है। एकदम तड़पता हुआ, उछलता हुआ...।

1982 में मिल बंद हुए। उसके बाद मजदूरों के परिवारों को जो भोगना पड़ा वो इस फिल्म में दर्ज है। मगर रुकिए... ये सिर्फ दर्दभरी इकहरी दास्ताँ ही नहीं है, इसमें भरपूर मनोरंजन भी है। महेश मांजरेकर जिस तरह जिंदगी और जिंदगी की मस्ती से छलकते हुए शख्स हैं, वैसे ही ये फिल्म भी जिंदगी से भरी हुई है।

एक ही खोली में रहने वाला एक परिवार है। मिल मजदूर पिता, माँ, एक जवान बहन, तीन जवान भाई...। छः लोगों का परिवार। मुंबई की एक चाल में रहता है। माँ के रोल में सीमा बिस्वास हैं और खूब जमी हैं। निरूपा राय के बाद माँ का रोल करने में वो महारत, वो ममता केवल सीमा बिस्वास में दिखती है। रामू की कंपनी के बाद वे निगेटिव-पॉजीटिव किरदारों की परफेक्ट माँ हैं। पर सीमा बिस्वास के पास कहीं ज्यादा शेड्स हैं।

इसी चाल में है नपुंसक पति की पत्नी (कश्मीरा शाह), जो बच्चा चाहती है। ये ख्वाहिश पूरी करता है कोई और। पति (सतीश कौशिक) सब कुछ जानकर भी चुप रहता है, बल्कि बच्चा होने पर उसे अपना बच्चा कहता है और दावा करता है कि नैन-नक्श उसके जैसे हैं। दोनों ही किरदार बहुत जटिल हैं पर खूब हैं। कश्मीरा शाह को तो जिंदगी का सबसे अच्छा रोल मिला है।

अस्सी के दशक में देशभर में कपड़ा मिलें बंद हुईं। हर जगह वही हुआ, जो फिल्म की कहानी है। फिल्म ज्यादा गहराई में नहीं जाती और बताती है कि मिल मालिकों का लालच बढ़ने से मिलें बंद हुईं। मजदूर को उसका हक नहीं मिला। न तो उसे मुआवजा मिला और न वेतन।

मुंबई में (या आबादी बढ़ने से लगभग सब जगह) मिल चलाने की बजाय मिल की जमीन बेचना या उस पर मॉल बनाना कहीं अधिक फायदेमंद हो गया। यह और बात कि मिल की जमीनें सभी जगह लीज पर ली गई थीं। यानी किराए से। निन्यानवे साल की लीज पर...। किराए की जगह आप खुद मालिक बनकर किराए से नहीं दे सकते। किराए की जगह आप बेच नहीं सकते। मगर जमीन के जादूगर सब कर डालते हैं।

फिल्म में टीन एजर लड़कों को हिंसा करते दिखाया गया है। महेश मांजरेकर ये दिखाने में कामयाब रहे कि इस हिंसा का कारण है निराशा, भूख, अनिश्चित भविष्य और गरीबी की कुंठाएँ...। निर्देशन का कमाल यह है कि हिंसा के शिकार पात्र से ज्यादा दया आपको हिंसा करने वालों पर आती है।

फिल्म में कई सीन ऐसे हैं कि लंबे समय तक याद रह सकते हैं। कुल मिलाकर महेश मांजरेकर की यह फिल्म शानदार है। दिक्कत यह है कि कभी-कभी बहुत अच्छी फिल्में भी लोगों को समझ नहीं आती।