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Written By समय ताम्रकर

दादा फालके : फिल्म पितामह

दादा फालके : फिल्म पितामह -
धुण्डीराज गोविंद फालके का जन्म 30 अप्रैल 1870 को नासिक जिले के त्र्यम्बकेश्वर गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। परिवार की परंपरा के अनुसार उन्हें घर पर ही संस्कृत और पुरोहिताई की शिक्षा दी गई। उनकी रुचि चित्रकला, नाट्य, अभिनय और जादूगरी मे वि‍कसित होती चली गई। इनका परिष्कार बंबई आकर हुआ। जब उनके पिता दाजी शास्त्री एलफिंस्टन कॉलेज में संस्कृत के प्राध्यापक बने। दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद धुण्डीराज ने बंबई के प्रसिद्ध कला विद्यालय जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में प्रवेश लिया। ललित कलाओं के साथ छायांकन कला ने उन्हें विशेष रूप से आकर्षित किया। इसके बाद वे बड़ौदा के कला भवन गए और छायांकन में असाधारण रुचि को देखते वहां के प्रधानाचार्य प्रो. गज्जर ने छायांकन विभाग उन्हें सौंप दिया। फालके ने वहां छायांकन प्रयोगशाला और पुस्तकालय में उपलब्ध सूचना सामग्री का भरपूर उपयोग किया। 1890 में उन्हें जो छात्रवृत्ति मिली, उससे एक कैमरा भी खरीद लिया। उन्होंने मॉडलिंग और आर्किटेक्चर का प्रशिक्षण भी लिया।

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हवा में उड़ते हनुमान
दादा फालके की अधिकांश फिल्मों की कथावस्तु पौराणिक गाथाएं और पात्र हैं। परिवार की विरासत के रूप में उन्हें बचपन में पुराण, उपनिषद, रामायण और महाभारत का अध्ययन कराया गया था, जो उनके फिल्मकार बनने पर बेहद प्रभा‍वी साबित हुआ। उनकी आरंभिक फिल्मों के चरित्रों का चित्रांकन इतना सशक्त और गहराई से देखने को मिलता है कि विदेशी दर्शकों ने फालके की अभिव्यक्ति का लोहा माना। फिल्म 'लंकादहन' में उड़ते हुए हनुमान को देखने दर्शकों की इतनी भीड़ जमा हो जाती थी कि कई बार उन्हें दो-दो दिन ठहरकर फिल्म देखना होती थी। पहले तो सिनेमा चमत्कार और अजूबा बनकर आया और जब हनुमान हवा में उड़ने लगे तो महा-चमत्कार हो गया।

फिल्म के पहले के गोरखधंधे
अध्ययन समाप्ति के बाद के 16 वर्षों में दादा फालके ने विभिन्न व्यवसायों में अपना भाग्य आजमाया। बंबई रहकर उन्होंने छायांकन किया। रंगमंच के परदों पर लैंडस्केप बनाए। कहा जाता है कि उन्होंने एक सेट की डिजाइन के लिए अहमदाबाद में हुई प्रतियोगिता में पुरस्कार भी पाया था। गोधरा में कुछ दिन रहकर फोटोग्राफी पर हाथ आजमाए। पुणे में सन् 1903 में शासन के पुरातत्व विभाग में ड्रॉफ्ट्स मैन और फोटोग्राफर पद पर काम किया। इसी दौरान 1901 में एक जर्मन जादूगर से मुलाकात ऐसी हुई कि उसके शिष्य बन गए। उसे अनेक एन्द्रेजालिक युक्तियां सीखीं और जादू में माहिर हुए।

प्रिंटिंग प्रेस का व्यवसाय
दादा फालके पर लोकमान्य तिलक का गहरा प्रभाव था। अपनी सरकारी नौकरी से वे खुश नहीं थे। उन्होंने नौकरी छोड़ दी। इसी बीच राजा रवि वर्मा के देवी-देवताओं के रंगीन चित्रों की धूम मची हुई थी। लोग भारी संख्या में चित्र खरीद रहे थे। रवि वर्मा ने अपना लिथोग्राफी प्रेस शुरू किया था। इसमें बड़ौदा के रीजेंट और दीवान सर माधवराव उनसे सहयोग कर रहे थे। दादा फालके ने राजा रवि वर्मा का प्रेस ज्वाइन कर लिया। उन्हें फोटोलिथो ट्रांसफर तैयार करना होते थे। प्रेस की सफलता और चित्रों की मांग से प्रभावित होकर दादा के कुछ रिश्तेदारों ने उन्हें स्वयं की प्रेस भागीदारी में शुरू करने का अनुरोध किया। फालके ने स्वयं का एनग्रेविंग और प्रिंटिंग वर्क्स कायम कर लिया। 1909 में छापखाने के प्रमुख और प्रमुख तकनीशियन के रूप में वे जर्मनी गए। नई मशीनों के संचालन की जानकारी हासिल की। तीन रंगों की छपाई की नई मशीन लेकर लौटे। प्रेस चल निकला। इसी समय भागीदारी से मतभेद हो गया। वे दु:खी हो गए।

इस बारे में उनकी पत्नी सरस्वती देवी ने लिखा है- 'उनका मन छापखाने के काम में बाद में नहीं लगा। कई गुजराती ‍परिवारों के प्रस्ताव आए कि लक्ष्मी आर्ट प्रेस छूट जाने से निराश न हो। नई पूंजी से सरस्वती प्रेस लगाएं। वह मेरा निर्माण था। मैं उस प्रेस को कोई क्षति नहीं पहुंचाना चाहता।'

फिल्म ही सब कुछ
सन् 1911 में 'लाइफ ऑफ क्राइस्ट' फिल्म देखकर दादा फालके रातभर बेचैन रहे। फिल्म को दूसरी, तीसरी और चौथी बार देखने पर उनके मनोसंसार में हलचल मची और भविष्य में बनाई जाने वाली ‍अपनी फिल्म की तस्वीरें दिमाग में दौड़ने लगीं। यदि भगवान कृष्ण के जीवन पर फिल्म बनाई जाएगी, तो कृष्ण का बचपन, राधा और गोपियों के प्रसंग, कालिया मर्दन, कंस वध के दृश्य परदे पर किस प्रकार प्रकट होंगे। उनकी कल्पना हवा पर सवार हो गई।

दादा फालके ने नवयुग पत्रिका (1917-18) में अपने संस्मरण लिखे हैं जिनमें 'राजा हरिश्चंद्र' निर्माण के पूर्व (1911-12) अपनी मानसिक दशा का चित्रण किया है- अगले दो माह तक मेरी यह हालत रही कि मैं तब तक चैन से नहीं बैठ सकता था, जब तक बंबई के सिनेमाघरों में लगी सभी फिल्में नहीं देख लेता था। मैं उन सभी फिल्मों का विश्लेषण करता और सोचता कि क्या हमारे यहां भी ऐसी फिल्में बनाई जा सकती हैं।'

अपनी आंखों की बीमारी के दौरान उन्होंने कला के प्रदर्शन का सही तरीका खोज निकाला। उन्होंने एक मटर का दाना एक गमले में बो दिया। उसके अंकुरण और विकसित होने के रोजाना चित्र लेने लगे। जब पूरा पौधा उग आया, तो उनकी पहली फिल्म 'मटर के पौधे का विकास' बनकर आई। इस फिल्म को देखकर उनके व्यापारी‍ मित्र नाडकर्णी ने उन्हें बाजार दर पर पैसा उधार दिया और लंदन से उपकरण खरीद लाने की सलाह दी।।

किचन बना डार्क रूम
इस उद्योग में सबसे पहले उनके सहायक बने परिवार के सदस्य। फिल्म परफोरेटर का काम सरस्वती काकी ने संभाला। इस फिल्म की पट्टी में छेद स्वयं को करना होते थे। आधे इंच की पट्टी को घुप्प अंधेरे में रखकर छेद करने का काम सरल नहीं था। रोशनी की एक किरण से पूरी फिल्म खराब हो सकती थी। एक छेद गलत होने पर फिल्म या प्रोजेक्टर में फंस सकती थी। दिन में रसोई का काम निपटाने के बाद रात को वही रसोईघर डार्क रूम में बदल जाता था।

अपने अनुभवों से दादा फालके समझ गए थे‍ कि पहली फिल्म के लिए भगवान कृष्ण का चुनाव करना नादानी होगी। कृष्ण के जीवन का इतना विस्तार है कि उसे दो-ढाई घंटे में समेटा नहीं जा सकता। पहले छोटे बजट, कम कलाकार, ऐसा कथानक जो सरल और सर्वज्ञात हो पर फिल्म बनाने का तय करते ही उन्हें बंबई में हिट जा रहे नाटक 'राजा हरिश्चंद्र' से प्रेरणा मिली और इस तरह भारत की पहली फिल्म बनी 'राजा हरिश्चंद्र'।

'राजा हरिश्चंद्र' में राजा की भूमिका के लिए अभिनेता दाबके का चयन हुआ। तारामती के रोल में पुरुष अण्णा सालुंके राजी हुए। बेटे रोहिताश्व की सांप के काटने से मृत्यु होती है, इस अंधविश्वास के चलते किसी माता-पिता ने धन के लालच के बावजूद अपना बेटा नहीं दिया। मजबूर होकर दादा को अपने बेटे भालचंद्र को उतारना पड़ा। सरस्वती काकी जरा भी अंधविश्वासी नहीं थीं।

परिवार जैसी यू‍निट
सन् 1912 के मानसून के बाद बंबई के दादर इलाके में फिल्म की शूटिंग आरंभ हुई। दिनभर सूरज की रोशनी में शूटिंग चलती। रात को तमाम कलाकार और यूनिट के लोग मिलकर खाना बनाते और साथ खाते। इसके बाद रात को फिल्म की प्रोसेसिंग का काम पति-पत्नी मिलकर करते। लगातार 6 महीनों की मेहनत रंग लाई और 3700 फुट लंबी फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' तैयार हुई। दादा ने इस मुकाम तक आते आधी लड़ाई जीत ली थी।

21 अप्रैल 1913 को बंबई के ओलम्पिया सिनेमा में पहला शो गणमान्य ना‍गरिकों और प्रेस प्रतिनिधियों को दिखाया गया। यही प्रेस-शो या प्रीमियर-शो की परिपाटी आज भी जारी है। 3 मई 1913 को कोरोनेशन थिएटर में फिल्म के नियमित प्रदर्शन आरंभ हुए। उन दिनों कोई भी फिल्म तीन-चार दिन या एक सप्ताह से ‍अधिक नहीं चलती थी। 'राजा हरिश्चंद्र' पूरे 23 दिन चली, जो एक रिकॉर्ड है।

3 अक्टूबर 1913 को दादा अपना कारखाना (स्टुडियो) बंबई से नासिक ले गए। वहां पहुंचकर उन्होंने 'मोहिनी भस्मासुर' फिल्म बनाई। दादा की लोकप्रियता और फिल्म के प्रति आकर्षण से खींचकर रंगमंच कलाकार दुर्गाबाई और कमलाबाई गोखले उनके पास आईं। इस मां-बेटी ने 'मोहिनी भस्मासुर' में नारी चरित्र निभाए हैं। पहली बार स्त्री पात्र सिनेमा को इस तरह मिले। 'मोहिनी भस्मासुर' और लघु हास्य फिल्म 'पीठाचे पंजे' को जनवरी 1914 में मुंबई में एकसाथ प्रदर्शित किया गया। तीसरी फिल्म 'सत्यवान सावि‍त्री' भी इसी साल में बनी है। इसके साथ प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ होने से 1915 एवं 16 में कोई फिल्म नहीं बन पाई। 1917 में लंकादहन में प्रयोगधर्मी दृश्यों, पौराणिक चमत्कारों और दादा के निराले अंदाज से फिल्म सुपरहिट रही। ऐसा कहा जाता है कि टिकट खिड़की पर इतनी चिल्लर एकत्रित हो जाती थी कि उसे बोरे में भरकर बैलगाड़ी में लादकर दादा के घर ले जाया करते थे।

मंदाकिनी : बाल कृष्ण
भगवान कृष्ण के जीवन पर सबसे पहले फिल्म बनाने का सपना देखने वाले दादा ने 1918 में 'श्रीकृष्ण जन्म' का निर्माण कर उसे साकार किया। इस फिल्म में उनकी बिटिया मंदाकिनी ने बाल-कृष्ण की लीलाओं को मनोहारी रूप में प्रस्तुत किया। फिल्म में कालिया मर्दन का दृश्य दर्शकों को इतना भाया कि उन्होंने कई-कई बार फिल्म देखी। राजा नंद-यशोदा का राजमहल, ग्वाल-बाल और नंदवासियों में पूरे समाज का प्रतिनि‍धित्व यमुना तट पर देखने को मिलता है।

फालके की रुचि सिनेमा के रचनात्मक पक्ष में अधिक थी। कथा फिल्मों के साथ उन्होंने अनेक लघु फिल्में भी बनाई हैं। 'लक्ष्मी का गलीचा' में उन्होंने ट्रिक फोटोग्राफी से सिक्के बनाने की विधि दर्शाई थी। 'माचिस की तीलियों के खेल' में तीलियों से बनाई जा सकने वाली विभिन्न आकृतियां दिखाई गई थीं। 'प्रो. केलफा (फालके) के जादुई चमत्कार' में स्वयं दादा ने जादूगर का रोल किया था। उन्होंने 'फिल्म कैसे बनाएं' नामक एक शिक्षाप्रद फिल्म भी बनाई है। फिल्म उद्योग में गोपनीयता को बेहद महत्व दिया जाता है, इसके बावजूद उन्होंने फिल्म निर्माण के रहस्य सार्वजनिक तौर पर उजागर किए।

दादा फालके के जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजडी यह रही कि उनके साथ हर बार भागीदारों ने धोखाधड़ी की। दादा का उद्देश्य पैसा कमाना कतई नहीं रहा। लेकिन लालची भागीदार महंगी ब्याज दर पर पैसा उधार देकर दादा को हमेशा लूटते रहे।

जीवन के अंतिम वर्ष कंगाली और गुमनामी में गुजारने के बाद 16 फरवरी 1944 को नासिक में दादा का देहांत हुआ। बरसों बाद पुणे फिल्म अभिलेखागार के कुछ शोधार्थी जब उनके घर पहुंचे तो जंग लगे फिल्म के कंटेनर तथा फिल्मों के कुछ टुकड़े उन्हें मिले। फिल्मों के इन टुकड़ों को जोड़कर अभिलेखागार ने उन पर एक कार्यक्रम बनाया है।

1969 से भारत सरकार ने देश का सर्वोच्च फिल्म सम्मान दादा फालके के नाम से आरंभ किया है। पहली बार यह सम्मान पाने वाली अभिनेत्री देविका रानी हैं।