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Written By ND

अभिनय और सरोकारों का संगम!

अभिनय और सरोकारों का संगम! -
लाइफ टाइम अचिवमेंट सम्मान से सम्मानित आशा पारेख ने बेहतर अभिनेत्री होने के साथ अपने सामाजिक सरोकार भी बखूबी निभाए हैं। मुंबई में संचालित एक अस्पताल इसका प्रमाण है। शम्मी कपूर को वह चाचा कहकर पुकारती रहीं और परदे पर चाचा-भतीजी की इस जोड़ी ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया।

बहुत कम लोग होते हैं, जो अपने नाम और ख्याति के साथ न्याय कर पाते हैं। सत्रह वर्ष की उस किशोरी ने फिल्म 'दिल दे के देखो' (1959) से बतौर नायिका अपने सिने करियर की शुरुआत करते वक्त शायद ही कल्पना की होगी कि एक दिन वह न सिर्फ कामयाब तारिका, बल्कि सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष का पदभार भी संभालेगी, पर उसे अपने नाम में छुपे यकीन की अहमियत मालूम थी। यही वजह रही कि बतौर बॉलीवुड तारिका हमने आशा पारेख को उनकी जीवटभरी शख्सियत के साथ जीवन के मुश्किल भरे सफर को हँसते-मुस्कराते पूरा करते हुए देखा। आज चौसठ वर्ष की आयु में भी वे किसी षोडशी की तरह तरोताजा नजर आती हैं। फिर भले ही उन्हें अंतरराष्ट्रीय हिन्दी फिल्म अवॉर्ड संस्था आइफा द्वारा लाइफ टाइम अचीवमेंट सम्मान से अलंकृत किया गया हो। यह एक शोख, सदाबहार सिने अदाकारा के कलात्मक योगदान को स्मरण करने का अवसर जरूर है, पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि आशाजी जैसी चिरयुवा अभिनेत्रियों की जीवन परिलब्धि (अचीवमेंट) अनवरत जारी रहती है- उसे किसी पड़ाव पर अंतिम नहीं कहा जा सकता।

2 अक्टूबर 1942 को बंगलोर में जन्मी आशा पारेख ने एक मिश्रित विरासत को परिवार में सामंजस्य के साथ जीवित रहते देखा। उनके पिता गुजराती हिन्दू व्यवसायी थे, जबकि माँ मुस्लिम परिवेश से ताल्लुक रखती थीं। शास्त्रीय नृत्य में गहरी रुचि रखने वाली आशा एकमात्र संतान होने के नाते परिवार में भाई-बहनों के प्यार से जरूर वंचित रहीं, मगर इस एकाकीपन को उन्होंने अपने व्यक्तित्व का हिस्सा कभी नहीं बनने दिया। कन्यादान/ चिराग/ मैं तुलसी तेरे आँगन की/ कटी पतंग/ मेरे सनम/ तीसरी मंजिल/ फिर वही दिल लाया हूँ और जब प्यार किसी से होता है, जैसी जुबली मनाने वाली फिल्मों की नायिका आशा सिने जगत में अपने बहिर्मुखी और मिलनसार स्वभाव के लिए जानी गई।

राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, शशि कपूर जैसे सितारे उनके अभिन्न मित्र थे और चार फिल्मों में अपने नायक रहे शम्मी कपूर को तो वे चाचा कहकर पुकारती थीं। शम्मी-दा भी अपनी इस जबरदस्त प्रशंसिका को आत्मीयतापूर्वक भतीजी का दर्जा देने से नहीं हिचकिचाए। चाचा-भतीजी की यह जोड़ी परदे पर नायक-नायिका की तरह पेश हुई और सफल भी रही। सहयोगी सितारों से आशा का बर्ताव इतना आत्मीय रहा कि सेट पर वह सभी उनके टिफिन बॉक्स में मौजूद रहने वाली तली मछलियों के व्यंजन पर नजरें गढ़ाए रहते थे, परदे से पहली बार आशा का रिश्ता बतौर बाल-कलाकार विमल राय की फिल्म बाप-बेटी (1954) से जुड़ा। इसके बाद नायिका के रूप में पहचान बनाने के लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। 1959 में निर्मित 'गूँज उठी शहनाइर्' के निर्देशक विजय भट्ट ने आशा को अपनी फिल्म की नायिका चुनने से यह कहकर इंकार कर दिया था कि उनमें स्टार वाली बात नहीं है। किस्मत का खेल देखिए कि उसी वर्ष आशा निर्माता शशिधर मुखर्जी की फिल्म 'दिल दे के देखो' की हीरोइन चुनी गई और उन्हें कामयाबी भी मिली।

करियर के शुरुआती दौर में आशा एक बिंदास बाला की तरह परदे पर ग्लैमर की चमक बिखरेती नजर आईं, मगर जल्दी ही उन्होंने साबित कर दिया कि उनके भीतर एक प्रतिभाशाली अदाकारा छिपी हुई है। शक्ति सामंत की 'कटी पतंग' के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला। यह फिल्म भी सुपर-डुपर हिट हुई और आशा निर्विवाद रूप से अग्रिम पंक्ति की नायिका मान ली गईं।

तीन दशकीय करियर में आशा को कई विवादों का सामना करना पड़ा। कहा जाता था कि वे अपनी सहनायिकाओं के रोल की कतर-ब्योंत करवाने में माहिर थीं। 'दो बदन' और 'कारवाँ' जैसी फिल्मों के लिए सिमी ग्रेवाल और अरुणा ईरानी जैसी तारिकाओं ने उन पर यह आरोप लगाए। आशा पर विवादों की छाया एक बार फिर गहराई, जब बतौर सेंसर अध्यक्ष उन्होंने शेखर कपूर की 'फिल्म बैंडिंट क्वीन' यह कहते हुए लटका दी थी कि इसमें अभद्रता ज्यादा है। आशा 1994 से 2000 तक सिने आर्टिस्ट एसोसिएशन की अध्यक्ष भी रहीं। निजी जीवन में इस शोख तारिका का किसी सहकलाकार से न कोई रोमांस सामने आया, न आशा ने शादीशुदा जिंदगी बिताने में दिलचस्पी दिखाई। अलबत्ता सामाजिक जिम्मेदारियों से वे कभी पीछे नहीं रहीं। मुंबई में उनके नाम पर स्थापित एक अस्पताल इसका प्रमाण है। उपलब्धियों के धरातल पर आशा-दीप जलता रहा है,जलता रहेगा।