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Written By ND

श्याम बेनेगल : एक दुनिया समानांतर...

श्याम बेनेगल : एक दुनिया समानांतर... -
स्वर्गीय इंदिरा गाँधी ने श्याम बेनेगल के बारे में कहा था कि उनकी फिल्में मनुष्य की मनुष्यता को अपने मूल स्वरूप में तलाशती हैं। इस प्रतिक्रिया का आधार था एक वृत्तचित्र-नेहरू। इसके निर्देशक थे श्याम बेनेगल। मजे की बात है कि इन्हीं बेनेगल ने आपातकाल के दौरान श्रीमती गाँधी की नीतियों की तीखी आलोचना की थी

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इस विलक्षण फिल्मकार की अद्वितीय रचनाशैली का चमत्कार था कि उनके आलोचक भी उनकी प्रतिभा के कायल हुए बिना नहीं रह पाए। श्याम बेनेगल की फिल्में अपने राजनीतिक-सामाजिक वक्तव्य के लिए जानी जाती हैं। श्याम के शब्दों में 'राजनीतिक सिनेमा तभी पनप सकता है, जब समाज इसके लिए माँग करे। मैं नहीं मानता कि फिल्में सामाजिक-स्तर पर कोई बहुत बड़ा बदलाव ला सकती हैं, मगर उनमें गंभीर रूप से सामाजिक चेतना जगाने की क्षमता जरूर मौजूद है।'

श्याम अपनी फिल्मों से यही करते आए हैं। अंकुर/ मंथन/ निशांत/ आरोहण/ सुस्मन/ हरी-भरी/ समर जैसी फिल्मों से वे निरंतर समाज की सोई चेतना को जगाने की कोशिश करते रहे। भारत में वे समानांतर सिनेमा के प्रवर्तकों में से एक हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्हें नई धारा के सिनेमा का ध्वजवाहक माना जाता है।

सत्यजीत राय के अवसान के पश्चात श्याम ने उनकी विरासत को संभाला और इसे समकालीन संदर्भ प्रदान किए। वे कहते हैं, 'समूचा हिंदुस्तानी सिनेमा दो हिस्सों में किया जा सकता है। एक : सत्यजीत राय से पूर्व और दो : राय के पश्चात।' यदि ऐसा है तो राय के बाद भारतीय सार्थक सिनेमा की धुरी पूरी तरह बेनेगल के इर्द-गिर्द घूमती है।

आजादी के बाद भारत में सिनेमा का विकास एकीकृत रूप से सामूहिक स्तर पर हुआ, मगर सत्तर और अस्सी के दशक में दो सिनेमाधाराएँ देखने को मिलीं। व्यावसायिक सिनेमा के समानांतर एक ऐसे सिने आंदोलन ने जन्म लिया, जिसमें मनोरंजन के चिर-परिचित फॉमूले नहीं थे। इस नई धारा के फिल्मकारों ने सिनेमा को जनचेतना का माध्यम मानते हुए यथार्थपरक फिल्मों का निर्माण किया। श्याम बेनेगल उन फिल्मकारों के पथ-प्रदर्शक बनकर उभरे, जो फिल्मों को महज मनोरंजन का माध्यम नहीं मानते थे।

1974 में उन्होंने 'अंकुर' जैसी युग प्रवर्तक फिल्म बनाकर एक प्रकार से सिनेकर्म को नई शक्ल दी। महान फिल्मकार सत्यजीत राय से प्रभावित होने के बावजूद श्याम ने अपनी फिल्म को महज कलाकृति तक सीमित नहीं रखा, वरन उसे एक राजनीतिक-सामाजिक वक्तव्य की शक्ल देने की कोशिश की। 'अंकुर' सिनेकर्म की दृष्टि से एक अत्यंत महत्वपूर्ण रचना थी। बर्लिन फिल्मोत्सव में पुरस्कृत और ऑस्कर के लिए प्रविष्टि के बतौर चुनी गई इस फिल्म के बारे में समीक्षकों ने खुलकर चर्चा की।

ख्यात फिल्म विश्लेषिका अरुणा वासुदेव के अनुसार, 'फिल्म निर्माताओं और दर्शकों में तकनीक और सिनेमाई समझ दोनों ही स्तर पर अनगढ़ता का माहौल था। 'अंकुर' ने इन्हें सुस्पष्ट कर नूतन आकार सौंपा।' प्रयोगधर्मिता की धुरी पर 'अंकुर' सही अर्थ में नई धारा की सूत्रवाहक सिद्ध हुई। इसके साथ ही श्याम बेनेगल के रूप में भारतीय सिनेमा के एक नए अध्याय का भी सूत्रपात हुआ।

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सत्यजीत राय की विरास
अपने गुरु सत्यजीत राय की तर्ज पर श्याम ने भी अंकुर (1974), निशांत (1975), मंथन (1976) के रूप में एक सिनेत्रयी की रचना की, जिसे स्वातंत्र्योत्तर भारत के विकासक्रम में हाशिए पर छूटे लोगों का दस्तावेज कहा जा सकता है। ज्यादातर समालोचकों की धारणा के विपरीत बेनेगल पर साम्यवादी प्रभाव हावी नहीं रहा।

गुजरात के दुग्ध सहकारिता आंदोलन पर उन्होंने दुग्ध उत्पादकों के वित्तीय सहयोग से जब अपनी बहुचर्चित फिल्म 'मंथन' का निर्माण किया तो साम्यवादियों ने इसका विरोध किया था। दरअसल श्याम साम्यवाद से कहीं ज्यादा पंडित जवाहरलाल नेहरू के उस समाजवादी प्रारूप से प्रभावित थे, जिसके तहत विकास का रास्ता तकनीक और सहकारिता के समन्वय से होकर गुजरता है।

पंडित नेहरू के अलावा बेनेगल ने अपनी राजनीतिक विचारधारा पर महात्मा गाँधी का भी प्रभाव स्वीकार किया है। अपने दो प्रेरक व्यक्तित्वों नेहरू और सत्यजीत राय पर उन्होंने श्रद्धांजलि स्वरूप दो वृत्तचित्रों का निर्माण किया, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गैर-कथाचित्र श्रेणी के सिनेकर्म की मानक कृतियों के रूप में प्रतिष्ठित हुए। नेहरू पर तीन खंडों में बने वृत्तचित्र का निर्माण भारत और सोवियत संघ के सहयोग से हुआ था। तीन दशक तक फैले अपने निर्देशकीय करियर के दौरान श्याम ने बीस से भी अधिक फीचर फिल्मों और दो प्रमुख वृत्तचित्रों का निर्माण किया है।

इसके अलावा वे छोटे परदे पर पंडित नेहरू की चर्चित पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' के टीवी रूपांतर 'भारत एक खोज' के लिए भी सराहे गए। दूरदर्शन पर बावन खंडों में प्रसारित यह लोकप्रिय टेली-श्रृंखला बेनेगल की व्यक्तिगत ऐतिहासिक समझ को विशिष्ट अंदाज में प्रस्तुत करती है।श्याम बेनेगल के अनुसार उनकी फिल्मों का केंद्रीय तत्व सामाजिक परिदृश्य को समझने की कोशिश में दो चीजों की ओर ध्यान खींचता है। एक : परिवर्तन का स्वरूप और दो : व्यक्तियों तथा समूहों के बीच राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक अंतरसंबंध। यही बेनेगल की समस्त फिल्मों का संवाहक सूत्र है।

'अंकुर' से 'जुबैदा' तक उनकी तमाम फिल्में सिनेमा के धरातल पर एक बेहतर, समुन्नत, समतावादी समाज की परिकल्पना करती हैं। यद्यपि करियर की आरंभिक फिल्मों में सामाजिक कथ्य को लेकर जो आक्रोश और तीखे तेवर बेनेगल दर्शाते रहे, वे धीरे-धीरे शिथिल होते गए और उनकी जगह एक वृहद मानवीय संदर्भ वाले फिल्मकार ने ले ली, जो शायद परिपक्वता का ही रचनाक्रम था।

श्याम का सिनेमाई कृतित्व सत्तर के दशक में आंध्रप्रदेश के प्रसिद्ध कृषक विद्रोह की पृष्ठभूमि पर विकसित हुआ। उनकी शुरुआती फिल्में पूरी तरह समाज के वंचित वर्ग की अभिलाषाओं का प्रतिनिधित्व करती थीं। वर्ष 1979 में उन्हें 'इंटरनेशनल फिल्म गाइड' द्वारा विश्व के पाँच सर्वश्रेष्ठ निर्देशकों में शुमार किया गया। किसी भारतीय फिल्मकार के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी। दरअसल पश्चिमी समीक्षकों ने राय के बाद अगर किसी भारतीय निर्देशक को गंभीरता से लिया, तो वे श्याम ही थे। योरपीय नवधारा के सिने-आंदोलन की पृष्ठभूमि में बेनेगल की फिल्मों को आँका गया।
नारी तू तेजस्विनी
अपनी फिल्मों में श्याम स्त्री के समर्थ स्वरूप का रेखांकन करते हैं जो शोषण और दमन के विरुद्ध निरंतर अपनी गरिमा के साथ संघर्षरत है। उनकी फिल्में नारी को सशक्त सामाजिक आंदोलन के धरातल के बतौर चित्रित करती हैं। श्याम मानते हैं कि माँ/बहन/पुत्री/पत्नी के बतौर स्त्री के महिमांडन में ही उसके शोषण का ही हथियार छुपा है, लिहाजा वह उसकी एक पृथक अस्मिता की वकालत करते नजर आते हैं।

बेनेगल के रचना संचार में नारी वह केंद्रीय अक्ष है, जिसके इर्द-गिर्द पुरुष की हैसियत परिधि पर घूमते नक्षत्र जैसी है। कई बार श्याम ने पुरुष पात्रों को कमतर स्वरूप में पेश किया। फिर चाहे 'अंकुर' का मूक-बधिर पति हो, 'भूमिका' का परपीड़क नायक, 'निशांत' का अध्यापक या 'मंडी' का डुंगरूस (नसीर)। श्याम की कृतियों में पुरुष वस्तुतः नारी सत्ता का प्रतिबिंब मात्र है, वास्तविक दृश्य नहीं।

'मंडी' की शबाना ठंडे स्वर में भी अपना आक्रोश पूरी गर्माहट के साथ उजागर करती है कि मर्द खरीदता है, तभी तो औरत बेचती है अपने आपको। इसी नायिका का स्वर 'अंकुर' में मुखर हो उठता है, जब वह पूरे गाँव के समक्ष यह संवाद साहस के साथ बोलती है, 'यह बदन भी भगवान ने बनाया है और भूख सिर्फ पेट की नहीं होती।' निश्चित रूप से बेनेगल की फिल्मों में नारी सिर्फ नारायणी नहीं, अपितु तेजस्विनी भी है।

रागा एंड द इमोशन्
अंकुर/निशांत/मंडी जैसी कई फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाने वाली अभिनेत्री शबाना आजमी का दावा है कि श्याम कभी गलत कैमरा कोण का चुनाव कर ही नहीं सकते। ऐसा कभी नहीं हुआ कि कलाकारों के पूर्वाभ्यास और अंतिम शॉट के बीच उन्हें अपना कैमरा संयोजन बदलने की जरूरत पड़ी हो। एक बार जिस कोण पर कैमरा रख दिया, उसके गलत होने का प्रा्‌न ही नहीं उठता। श्याम की इस कार्यशैली का लोहा समीक्षक भी मानते हैं।

उनकी फीचर फिल्में हमें जहाँ जीवन की उथल-पुथल से परिचित कराती हैं, वहीं उनके वृत्तचित्रों का दायरा भी विस्तृत है। इंडियन यूथ (1968) शीर्षक से निर्मित अपने वृत्तचित्र में उन्होंने जहाँ नृतत्व शास्त्रीय प्रश्नों से जूझने की कोशिश की, वहीं स्टील : अ व्होल न्यू वे ऑफ लाइफ (1970) में वे औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप उपजी समस्याओं का विश्लेषण करते नजर आए। रागा एंड द इमोशन्स (1971) शीर्षक से बना उनका वृत्तचित्र भारतीय शास्त्रीय संगीत की तहें टटोलता है।

पद्मश्री, पद्मभूषण और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार जैसे सम्मानों से विभूषित श्याम की एक और खूबी है, उनकी फिल्मों में क्षेत्रीय जनाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति। श्याम से पहले क्षेत्रीय (बांग्ला) सिनेमा सिर्फ राय की फिल्मों के जरिए राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो पाया था। अडूर गोपालकृष्णन और गिरीश कासरवल्ली जैसे निर्देशकों की क्षेत्रीय (मलयालम एवं कन्नड़) फिल्में भी बड़े दर्शक वर्ग तक नहीं पहुँच सकीं। श्याम ने अपनी क्षेत्रीय पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्मों के लिए राष्ट्रीय दर्शक समुदाय की तलाश की। तेलुगु/हिंदी द्विभाषी फिल्म कोंडुरा (1977) के लिए श्याम को समूचे देश में सराहा गया।