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Written By ND

रूठ के तुम तो चल दिए...

पुण्यतिथि (31 मई) पर विशेष

रूठ के तुम तो चल दिए... -
ND
'आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है/ दूर हटो, दूर हटो, दूर हटो ऐ दुनिया वालो, हिन्दुस्तान हमारा है'। भारत की आजादी के 4 साल पहले देशभक्ति का यह तराना गली-गली गूँजा था। बच्चे-बच्चे की जबान पर था। फिल्म किस्मत (1943) के इस गीत को बड़नगर (म.प्र.) के गीतकार कवि प्रदीप ने लिखा था और पूर्वी बंगाल के संगीतकार अनिल बिस्वास ने जोशीले संगीत से सँवारा था। इस गीत को सुनकर देशभक्तों की रगों में खून की रफ्तार तेज हो जाती थी।

हिन्दी फिल्म संगीत के इस भीष्म पितामह अनिल बिस्वास को आज कितने लोग जानते हैं? हिन्दी फिल्मों के गीत-संगीत के स्वर्ण-युग के सारथी अनिल दा रहे हैं। उन्होंने न सिर्फ अपने संगीत से फिल्म संगीत को शास्त्रीय, कलात्मक और मधुर बनाया बल्कि अनेक गायक-गायिकाओं को तराशकर हीरे-जवाहरात की तरह प्रस्तुत किया। इनमें तलत मेहमूद/ मुकेश/ लता मंगेशकर/ सुरैया के नाम प्रमुखता से गिनाए जा सकते हैं।

अनिल बिस्वास शास्त्रीय संगीत के निष्णात होने के साथ लोक-संगीत के अच्छे जानकार थे। उनकी धुनों में जो संगीत है, वह आज हमारी विरासत बन गया है। मुंबई की फिल्मी दुनिया में आकर उन्होंने देखा कि यहाँ तो हर प्रांत का संगीत मौजूद है। अनिल दा ने अपने प्रयत्नों से इसे और अधिक विस्तार दिया।

अनिल बिस्वास के दौर में एक से बढ़कर एक संगीतकार रहे। इसका लाभ यह हुआ कि संगीतकारों की स्वस्थ स्पर्धा के चलते श्रोताओं को मधुर से मधुरतम गीत मिले। उस दौर में नरेन्द्र शर्मा, कवि प्रदीप, गोपालसिंह नेपाली, इंदीवर, डी.एन. मधोक जैसे गीतकार भी हुए, जिनकगीत कविता की तरह भावपूर्ण और सार्थक होते थे। नौशाद, रोशन, मदन मोहन, सचिन देव बर्मन, सज्जाद, गुलाम हैदर, वसंत देसाई, हेमंत कुमार, शंकर-जयकिशन और खय्याम जैसे संगीतकारों के तालाब में अनिल दा सदैव कमल की भाँति रहते हुए सबका मार्गदर्शन करते रहे। सी. रामचंद्र अपने को अनिल दा का शिष्य मानते थे। ये तमाम संगीतकार एक-दूसरे की इज्जत करते हुए फिल्म-संगीत के खजाने में अपना विनम्र योगदान करते रहे।

कलकत्ता से मुंबई आए अनिल दा का सफर फिल्म जगत में सिर्फ 26 साल रहा। 1961 में बीस दिनों में छोटे भाई सुनील और बड़े बेटे के निधन ने अनिल दा को भीतर से तोड़ दिया। वे मुंबई से दिल्ली चले गए और मृत्युपर्यंत साउथ एक्सटेंशन में रहे। यहाँ रहते हुए भी उन्होंने आकाशवाणी को अपनी सेवाएँ दीं और 'हम होंगे कामयाब एक दिन' जैसा कौमी तराना युवा पीढ़ी को दिया। इस गीत की शब्द रचना में उन्होंने कवि गिरिजा कुमार माथुर से सहयोग किया था।

अनिल बिस्वास की पत्र-पत्रिका और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चर्चा 1994 में हुई, जब म.प्र. शासन के संस्कृति विभाग ने उन्हें लता मंगेशकर अलंकरण से सम्मानित किया। लता मंगेशकर अपने गायन के आरंभिक चरण में गायिका नूरजहाँ से प्रभावित थीं। अनिल दा ने लता को इस 'प्रेत बाधा' से मुक्ति दिलाकर शुद्ध-सात्विक लता मंगेशकर बनाया। अनिल दा के संगीत में लताजी के कुछ उम्दा गीतों की बानगी देखिए- मन में किसी की प्रीत बसा ले (आराम), बदली तेरी नजर तो नजारे बदल गए (बड़ी बहू), रूठ के तुम तो चल दिए (जलती निशानी)।

स्वयं लताजी ने इस बात को स्वीकार किया है कि अनिल दा ने उन्हें समझाया कि गाते समय आवाज में परिवर्तन लाए बगैर श्वास कैसे लेना चाहिए। यह आवाज तथा श्वास प्रक्रिया की योग कला है। अनिल दा उन्हें लतिके कहकर पुकारते थे। इसी तरह मुकेश को सहगल की आवाज के प्रभाव से मुक्त कराकर उसे मुकेशियाना शैली प्रदान करने में अनिल दा का हाथ है। तलत महमूद की मखमली आवाज पर अनिल दा फिदा थे। तलत की आवाज के कम्पन और मिठास को अनिल दा ने रेशम-सी आवाज कहा था। किशोर कुमार से फिल्म 'फरेब' (1953) में अनिल दा ने संजीदा गाना क्या गवाया, आगे चलकर इस शरारती तथा नटखट गायक के संजीदा गाने देव आनंद-राजेश खन्ना के प्लस-पाइंट हो गए।

मेहबूब की फिल्म 'रोटी' में अनिल दा ने बेगम अख्तर से भी गवाया था। अपने करियर के आरंभ में वे बॉम्बे टॉक‍िज से जुड़े रहे। बाद में स्वतंत्र संगीतकार की हैसियत से लगभग 70 फिल्मों में संगीत दिया। अनिल बिस्वास के संगीत पर संगीतकार नौशाद की टिप्पणी महत्वपूर्ण है- 'अनिल बिस्वास एकमात्र ऐसे बंगाली संगीतकार हैं, जो पंजाबी फिल्म में पंजाबी, गुजराती फिल्म में गुजराती, मुगल फिल्म में मुगलिया संगीत देने में माहिर हैं। वे कीर्तन, जत्रा और रवीन्द्र संगीत के अलावा भी हिन्दुस्तानी संगीत को बखूबी जानते हैं।'

अनिल विश्वास का जन्म बरीसाल (पूर्वी बंगाल) में 7 जुलाई 1914 को हुआ था। चार साल की उम्र से वे गाने लगे थे। किशोर उम्र में देशभक्ति जागी और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए। जेल गए और यातनाएँ सही। 16 साल की उम्र में नवंबर 1930 में कलकत्ता में महान बाँसुरी वादक पन्नालाल घोष के घर शरण ली। अनिल दा की बहन पारुल घोष ने पन्नालालजी से विवाह रचाया था। युवा अनिल ने यहाँ ट्यूशनें की। काजी नजरूल इस्लाम के कहने पर मेगा फोन रिकॉर्ड कंपनी में काम किया। उनका पहला रिकॉर्ड उर्दू में जारी हुआ था। यहीं पर उनकी मुलाकात कुंदनलाल सहगल और सचिन देव बर्मन से हुई थी। हीरेन बोस के साथ मुंबई आए और 26 साल संगीत सृजन किया। अभिनेत्री मीना कपूर से उन्होंने शादी की थी।

अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन की पहली फिल्म 'धर्म की देवी' (1935) थी और अंतिम 'छोटी-छोटी बातें'(1965)। इसे अभिनेता मोतीलाल ने बनाया था। अनिल विश्वास संगीत को स्वतंत्र पहचान देने वाले प्रथम संगीतकार हैं। उन्होंने फिल्म संगीत को मराठी नाट्य एवं भक्ति संगीत से मुक्त कराया। उनका संगीत कालजयी है। अब वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी संगीत धरोहर संगीतप्रेमियों के लिए प्रकाश स्तंभ के समान है।

अनिल बिस्वास : कालजयी गीत
* 1943 : किस्मत * दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है
* धीरे-धीरे आ रे बादल धीरे-धीरे जा
* 1945 : पहली नजर * दिल जलता है, तो जलने दे
* 1948 : अनोखा प्यार * याद रखना चाँद-तारों इस सुहानी रात को
* 1948 : गजरे * दूर पपीहा बोला रात आधी रह गई
* 1949 : लाड़ली * तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है
* 1950 : आरजू * ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल
* 1950 : लाजवाब * जमाने का दस्तूर है ये पुराना
* 1951 : आराम * शुक्रिया, ऐ प्यार तेरा शुक्रिया
* 1952 : तराना * सीने में सुलगते है अरमाँ
* एक मैं हूँ एक मेरी बेकसी की शाम है
* 1953 : फरेब * आ मोहब्बत की बस्ती बसाएँगे हम
* 1954 : वारिस * राही मतवाले, तू छेड़ एक बार मन का सितार
* 1957 : जलती निशानी * रूठ के तुम तो चल दिए अब मैं दुआ को क्या करूँ
* 1957 : परदेसी * रिमझिम बरसे पानी आज मोरे अँगना