गुरुवार, 28 मार्च 2024
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Written By समय ताम्रकर

आशुतोष गोवारीकर से लंबी मुलाकात

आशुतोष गोवारीकर से लंबी मुलाकात -
अजय ब्रह्मात्म

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आपका बचपन कहाँ बीता। आप मुंबई के ही हैं या किसी और शहर के...? सिनेमा से आपका पहला परिचय कब हुआ?
- मेरा जन्म मुंबई का ही है। मैं बांद्रा में ही पला-बढ़ा हूँ। जिस घर में मेरा जन्म हुआ है, उसी घर में आज भी रहता हूँ। फिल्मों से मेरा कोई संबंध नहीं था। मैं जब स्कूल में था, तो तमन्ना भी नहीं थी कि फिल्मों में एक्टिंग करूँगा। मेरे पिताजी एक पुलिस ऑफिसर रह चुके हैं। ऐसा भी नहीं था कि उनका कोई फिल्मी संबंध हो। जिस बंगले में मैं रहता था, वह बंगला कुमकुमजी का था। कुमकुमजी ने मदर इंडिया और अन्य कई फिल्मों में काम किया। कुमकुमजी को हम लोग पहचानते थे। उस समय उनके घर पर काफी सारे स्टारों का आना-जाना था। तीसरी कक्षा में मैंने एक नाटक किया था। उसमें मैंने पीछे खड़े एक सिपाही का किरदार किया। मेरा कोई डायलॉग नहीं था। उस नाटक का प्रसारण दूरदर्शन पर हुआ था। लेकिन दिमाग में खयाल नहीं आया कि एक्टिंग करना है या फिल्मों में जाना है। सिर्फ कॉलेज में आने के बाद जब मैं बीएस-सी कर रहा था, तो एक ख्वाहिश जागी कि अब क्या-क्या हो सकता है और क्या कोशिश की जा सकती हैं? कॉलेज में मौके थे। अन्य गतिविधियों में हिस्सा ले सकते थे। लोकनृत्य, समूह गीत, नाटकल विभिन्न भाषाएँ... सब में मैंने अपना नाम दिया। ऐसे ही तुक्का मारा था मैंने और तकदीर ऐसी थी कि सब में मुझे चुन लिया गया। तो वे जो तीन साल थे सीनियर कॉलेज के, उस दौरान हर साल मैं पाँच नाटक, चार फोक डांस, तीन समूह गीत करता रहा। ये सब मैंने किया तब आत्मविश्वास जागा कि एक्टिंग कर सकता हूँ। केतन मेहताजी उन्हीं दिनों आए। उनकी पहली फिल्म आ रही थी 'होली'। वे अलग-अलग कॉलेज में जाकर कास्टिंग कर रहे थे और नए एक्टर खोज रहे थे। मीठीबाई में जब आए तो उन्होंने मेरा परफॉर्मेंस देखा। उन्होंने पूछा कि मैं फिल्म बना रहा हूँ क्या तुम रोल करोगे? मैंने कहा कि नेकी और पूछ-पूछ। सौ प्रतिशत करूँगा। 'होली' करने के बाद मुझे खुद पर विश्वास हुआ कि निश्चित रूप से यह मेरा पेशा हो सकता है। फिर मैंने सोचा कि फिल्मों में एक्टिंग करना है। सच कहूँ तो मैं अचानक संयोग से एक्टर बन गया।

फिल्में तो देखते रहे होंगे आप? आम मध्यमवर्गीय परिवार में फिल्में देखी जाती हैं। आप कितनी फिल्में देख पाते थे यानी हफ्ते या महीने में कितनी बार...?
फिल्म देखने की फ्रीक्वेंसी बहुत अच्छी थी, क्योंकि माता-पिता को बहुत पसंद था फिल्में देखना। हफ्ते में दो फिल्में तो होती ही थीं। वे फैसला करते थे कि कौन सी फिल्म एडल्ट है? कौन सी फिल्म यू है? उस हिसाब से हमें ले जाते थे। पहली फिल्म जो मैंने देखी है, वो 'आराधना' है। तो बाकायदा मेरा भी गुरु शर्ट बना था, डबल बटन वाला, जो राजेश खन्नाजी पहनते हैं। और दूसरी फिल्म जो मैंने लगभग पंद्रह-सोलह बार देखी होगी, वह थी रामानंद सागर साहब की 'आँखें। वह भी कुमकुम आपा के घर में। वहाँ पर 60 एमएम के प्रोजेक्टर से दीवार पर फिल्म देखते थे। अगर आप 'स्वदेश' के 'ये तारा' का फिल्मांकन याद करें तो वही प्रोजेक्टर मेरे दिमाग में था। जो दीवार पर बैठकर देखना या गणपति में गली में बैठकर फिल्म देखना, जिससे दोनों तरफ से आप फिल्म देख सकते हैं। फिल्म देखने का बहुत ही मजबूत प्रभाव रहा है। ऐसा नहीं था कि अनुमति नहीं थी या मौका नहीं था। हम न्यू टॉक‍िज थिएटर या बांद्रा टॉक‍िज थिएटर जाकर देखते थे। उन दिनों भी हम आज की तरह ही फिल्में देखते थे।

क्या फिल्म देखने की पसंद-नापसंद रहती थी। आप चुनते थे कि यह देखनी है और यह नहीं देखनी है?
नहीं, ऐसा कुछ नहीं था। जिस फिल्म की रिपोर्ट अच्छी हो, उसे जरूर देखते थे। कौन सी फिल्म देखनी है, इसका ज्यादातर फैसला माँ-पिताजी ही करते थे।

ठीक है कि वे फैसला लेते थे, लेकिन फैसले का आधार क्या होता था? कि यह फिल्में देखना हैं और यह फिल्म नहीं देखना है?
सर्टिफिकेट बहुत महत्वपूर्ण था। ए या यू। उसके बाद में तो फिल्म की रिपोर्ट देखकर जाते थे कि पड़ोसी ने देख ली है, चलो हम भी देख आते हैं।

आजकल एक बात कही जाती है कि पब्लिक सूँघ लेती है। उस समय भी कुछ ऐसा माहौल था क्या?
बिलकुल था, निसंदेह था। मैंने अमिताभ बच्चन की हर फिल्म देखी, लेकिन एक फिल्म मैं देखने ही नहीं गया। और वह फिल्म थी 'आलाप'। मैं 'सुहाग' देख रहा हूँ, मैं 'ईमान धर्म' देख रहा हूँ, मैं 'जंजीर', 'त्रिशूल', 'दीवार' देख रहा हूँ और अचानक अमितजी का पोस्टर है, प्रोफाइल में है, 'आलाप'। 'स्वदेश' के साथ भी यही हुआ है मेरे हिसाब से। 'स्वदेश' के पोस्टर में शाहरुख खान नाव पर बैठा है, तो जो मेरे जैसे दर्शक रहे होंगे, वे नहीं गए होंगे। 'आलाप' देखने मैं नहीं गया था। मेरी तरह के दर्शक आज भी होंगे, जिन्होंने शाहरुख को नाव पर देखकर फिल्म नहीं देखने का फैसला लिया होगा। उन्हें लगा है कि यह कुछ अलग है। तो मेरे हिसाब से दर्शक इस किस्म की चीजें सूँघ लेते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसी फिल्म देखने जाएँ या न जाएँ। अब 'आलाप' बहुत अच्छी फिल्म थी। लेकिन एक ढाँचा हो जाता है। जैसे आज के दर्शक इतना सवाल नहीं पूछते। बचपन में हम जरूर पूछते थे। किसी भी फिल्म में चार चीजें जाननी होती थीं। हीरो कौन है? हीरोइन कौन है? कॉमेडियन कौन है और विलेन कौन है? अगर पोस्टर पर लिखा है कि धर्मेन्द्र, हेमामालिनी, महमूद और प्राण, तो ये फिल्म कमाल की होगी। क्योंकि हीरो कमाल है। महमूद कॉमेडियन है तो हँसी-मजाक बहुत होगा। विलेन जबरदस्त है। अब वैसी बात नहीं रही, क्योंकि ज्यादातर कॉमेडी खुद हीरो ही करता है। फिल्मों में खलनायक अलग और महत्वपूर्ण हो गए हैं। मतलब प्राण हैं तो हम देखने जाते थे कि उन्होंने इस फिल्म में क्या विलेनगीरी की है। इस फिल्म में डकैती की है तो अगली फिल्म में वह खून करेगा। तब खलनायकी छोटे स्तर की थी। अब खून करने से काम नहीं चलता। अब तो विलेन देश बेचता है। पहले लोग कास्टिंग देखते थे। 'मधुमती' का उदाहरण लें- दिलीप कुमार हैं, वैजयंतीमाला हैं, प्राण हैं, जॉनी वाकर हैं, मतलब अच्छी फिल्म होगी। अब फिल्मों के प्रति ऐसा नजरिया खत्म हो गया या यों कहें कि खो गया है। शायद हम समय के साथ आगे बढ़ गए हैं।

1985 में आपने 'होली' की। उसके बाद आपने एक्टिंग पर ही ज्यादा फोकस किया। संभव है आपको अवसर भी मिले हों?
बिलकुल। मैं खुद के प्रति उत्साहित था कि मुझमें एक्टिंग का इंटरेस्ट है और लोग कहते थे कि थोड़ा टैलेंट भी है। मैंने अभिनय का कोई प्रशिक्षण नहीं लिया था। मैं किसी फिल्म स्कूल में नहीं गया।

उस समय एफटीआईआई तो रहा होगा? वहाँ क्यों नहीं गए?
एफटीआईआई में अभिनय का प्रशिक्षण बंद हो गया था। केवल एनएसडी (नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) से लड़के आ रहे थे। मुंबई में रोशन तनेजा साहब का स्कूल था। मुझे कभी खयाल नहीं आया कि अभिनय का विधिवत प्रशिक्षण लिया जाए। 'होली' के बाद मुझे अमोल पालेकर की 'कच्ची धूप' और महेश भट्‍ट की 'नाम' और सईद मिर्जा की 'सलीम लंगड़े पे मत रो' जैसी प्रोजेक्ट मिलते गए। मुझे लगा कि एक के बाद एक प्रोजेक्ट मिल रहे हैं, इसका मतलब है कि मैं कुछ कर रहा हूँ। अब मैं ब्रेक नहीं ले सकता कि फिल्म स्कूल चला चाऊँ या दिल्ली चला जाऊँ। फिर ऐसा वक्त भी आया कि मुझे जिस तरह की फिल्में मिलनी चाहिए थीं, वैसी नहीं मिल रही थीं। एक ढाँचे में बँधता जा रहा था। फिल्में करने के बाद तकनीशियनों की भूमिका और योगदान के बारे में समझ सका। एक्टिंग के जरिए मैं फिल्ममेकिंग के बाकी प्रोसेस से वाफिक होने लगा। तब निर्देशन की तरफ मेरी रु‍चि बढ़ी।

उन दिनों सफल एक्टर के क्या मानदंड थे?
आपको बताऊँ कि जो भी फिल्म इंडस्ट्री में आता है, वह हीरो बनने ही आता है। यहाँ तो गायक भी हीरो बनने आते हैं। उनका सपना होता है कि मैं किशोर कुमार की तरह सिंगिंग स्टार बन जाऊँगा। आप हिन्दी फिल्मों के गायकों को करीब से देखें तो पाएँगे कि उन सभी में हीरो होने की झलक है। गाने के स्टाइल में भी एक अदा है। आप मौका देंगे तो वे रोल निभा देंगे। कुछ हीरो बन पाते हैं, कुछ कैरेक्टर रोल करने लगते हैं। कुछ टीवी में चले जाते हैं। कुछ प्रोड्‍यूसर बन जाते हैं। फिल्म इंडस्ट्री में आने के बाद हर कोई अपनी एक पोजीशन खोज लेता है। ग्लैमर की दुनिया इतनी लुभावनी है कि इसे छोड़कर कहीं जाने का मन नहीं करता। एक्टिंग नहीं चल रही तो कुछ और कर लेता हूँ। मेरे साथ हुआ है, इसलिए कह रहा हूँ। मैं तो उनको बहुत सुलझा हुआ मानूँगा जो चार-पाँच साल तक जूझने के बाद यह समझ कर लौट गए कि फिल्म इंडस्ट्री हमारे लिए नहीं है। उनमें से कई ने बिजनेस किया और बिजनेस में तरक्की की। मुझे ऐसे लोग मिलते हैं। वे अपने गाँव, कस्बे, शहर लौट गए। अभी भी मिलते हैं तो यह कहना नहीं भूलते कि कोई रोल हो तो बोलना। सब के अपने अनुभव हैं।

आपको जिस तरह के काम मिल रहे थे, उसमें कितनी आय हो जाती थी। सीधे पूछूँ कि आर्थिक स्थिति कैसी थी?
अगर बैंकिंग में आप जाते हैं तो वहाँ वेतन निश्चित है। प्रायवेट कंपनी में ऐसा निश्चित नहीं है। फिल्म बिजनेस भी अनिश्चित रहता है। फिल्म इंडस्ट्री में रोल मिलने पर सेलिब्रेट करते हैं, चेक मिलने पर नहीं करते। यहाँ चेक से ज्यादा जरूरी रोल है, क्योंकि उसके जरिए ही आप अपना हुनर दिखा सकते हैं। जब थोड़ी स्थिति मजबूत होती है तो हिम्मत आती है कि पैसे भी पूछ लें। यह फिल्म इंडस्ट्री का अनलिखा कायदा है।

इसका मतलब आरंभ में आपको भी पैसे नहीं मिले। परिवार में बड़ी संतान होने के कारण जिम्मेदारियाँ तो रही होगी...
अच्छा इस अर्थ में.. इसे मैं अपना सौभाग्य कहूँगा कि मुझे पिताजी से पूरा समर्थन मिला। पिताजी ने कहा कि एक्टिंग करो, लेकिन पढ़ाई का ध्यान रखो। डिग्री बहुत जरूरी है। अगले मोड़ पर केतन मेहता के बारे में बताया कि वे एक फिल्म के लिए बुला रहे हैं तो पिताजी ने कहा कि कर लो। फिल्म खत्म होने के बाद जब मैंने कहा कि यह मेरा प्रोफेशन रहेगा तो उन्होंने कहा कि ठीक है, मैं तुम्हारे पीछे हूँ। मेरा इतना ही सुझाव है कि अपने लिए एक समय सीमा तय करो... मान लो दो साल तय करते हो तो दो साल कोशिश करो। मैं समर्थन करता हूँ, लेकिन उसके बाद तुम्हें खुद के बारे में सोचना होगा। अगर कुछ नहीं हो पा रहा है तो जो डिग्री आपने ली है, उसका क्या उपयोग हो सकता है यह आपको देखना है। तो मुझे समर्थन था। समर्थन शायद इसलिए भी था कि डैडी-मम्मी को फिल्में देखना बहुत ज्यादा पसंद था।

मतलब फिल्मों में काम करना एक सम्माननीय प्रोफेशन था ?
नहीं... फिल्म इंडस्ट्री की अपनी अच्छाइयाँ और बुराइयाँ हैं। उनका कहना था कि आप जाओ तो अच्छाइयाँ पकड़कर चलना, वही बेहतर है। पहली बार जब मैंने कहा कि विलेन का रोल कर रहा हूँ तो वे चौंके... अच्छा नहीं है, रेप करना या... फिर उन्हें लगा कि नहीं, यह तो एक्टिंग है। 'इंद्रजीत' फिल्म थी वह। हालाँकि मुझे विलेन का रोल करते हुए मजा नहीं आया, क्योंकि उसमें शेड्‍स और मोटिवेशन नहीं था। प्राण जैसा कुछ करने का मौका नहीं मिला था।

तो विलेन भी बन गए आप ?
मजेदार बात क्या थी कि जब मैं हीरो का रोल माँगता था तो कहा जाता था कि तुम विलेन के लिए क्यों नहीं कोशिश करते। तुम में सॉफ्टनेस कम है, जो हीरो के लिए जरूरी है। जब विलेन के लिए कोशिश की तो कहा गया कि तुम बड़े सॉफ्ट लगते हो... सही विलेन नहीं लगोगे... तो मेरा पिंग-पौंग होता रहा वहाँ पर। फिर मुझे लगा कि वे विनम्र तरीके से मुझसे बता रहे हैं कि मुझमें टैलेंट नहीं है। फिर भी मैं लगा रहा और जो रोल मिलते थे, उन्हें करता रहा। मेरी किस्मत अच्छी रही कि दीपक तिजोरी, आमिर खान और शाहरुख खान जैसे दोस्त मुझे समझते रहे। दीपक और आमिर ने मुझे पहले मौका दिया। आमिर ने पहले सुझाव दिया कि पिक्चर करते हैं, मगर डेढ़ साल के बाद शुरू करेंगे। फिर दीपक तिजोरी ने ऑफर किया। इस प्रकार 'पहला नशा' पहले बन गई। फिर 'बाजी' हुई।

आप डायरेक्टर बनने के बाद भी एक्टिंग करते रहे ?
नहीं, फिल्मों में एक्टिंग बंद हो गई। सीरियल में एक्टिंग करना शुरू किया। उसकी वजह थी कि डायरेक्शन की मेरी दुकान बंद हो गई। दोनों फिल्में जब नहीं चलीं तो डायरेक्शन का मेरा शटर डाउन हो गया। अगर कोई फिल्म न चले तो सबसे पहला दोषी डायरेक्टर माना जाता है। फिर हीरो... मेरे मामले में फिल्में नहीं चलीं। फिल्मों के न चलने के कारण हो सकते हैं, लेकिन सच यही था कि लोग विश्वास खो चुके थे। निर्माताओं का भरोसा नहीं रहा। उस दौरान मुझे 'सीआईडी' सीरियल करना पड़ा। वह रोल इंटरेस्टिंग था, इसलिए भी किया। फिर 'वो' किया। जब दोनों फिल्में रिलीज हुई थीं तो मुझे यही लगा था कि मैंने कोई महान कलाकृति बनाई है। दर्शक मेरी फिल्म नहीं समझ सके। दर्शक क्या जानें? एक फैशन है न कि मेरी फिल्म समय से आगे की थी, आज के दर्शक नहीं समझ सके। दस साल बाद के दर्शकों के लिए है। अब सोचता हूँ तो अपनी वेबकूफी समझ में आती है। दस साल आगे के दर्शकों के लिए फिल्म क्यों बना रहे हो? आज के दर्शकों के लिए बनाओ न? एक साल के बाद मनन-चिंतन करने पर समझ में आया कि समस्या मेरे साथ थी। मेरी स्क्रिप्ट में खामियाँ थीं। दोनों फिल्मों का कांसेप्ट कमजोर था। बहुत सारे लोगों ने कहा कि 'पहला नशा' में दीपक तिजोरी की जगह आमिर खान होता तो फिल्म कहाँ पहुँच गई होती? फिर 'बाजी' आई तो लोगों ने कहा कि इसमें आमिर खान की जगह अक्षय कुमार या सनी देओल होते तो फिल्म एक्शन में चल जाती। सच तो यह था कि फिल्म किसी भी सूरत में नहीं चलती। समस्या एक्टरों में नहीं थी। दोनों ने बहुत अच्छा परफार्मेंस दिया। उनसे सबक लेकर मैंने नई फिल्म के बारे में सोचना शुरू किया।

कुछ नए सिरे से करने का इरादा हुआ या आत्ममंथन वगैरह चला और फिर किसी नतीजे पर पहुँचे?
दो फिल्मों के फ्लॉप होने के बाद मेरी हेकड़ी निकल गई। दर्शक को समझ में नहीं आई वाली बात इसी हेकड़ी से आई थी। फिर एहसास हुआ और मैंने सोचना शुरू किया कि बिमल राय और वी. शांताराम सरीखे फिल्मकारों ने जो फिल्में बनाईं, वो क्यों बनाईं? मैंने उनके काम को फिर से देखा। फिल्मों को फिर से समझने की कोशिश की। कई सारे उद्‍घाटन हुए।
पहले जरा बता दें कि 'पहला नशा' के लिए धन कहाँ से आया या आपने कैसे इंतजाम किया ?
मुहम्मद रहीम, विरल शाह और दीपक तिजोरी तीनों निर्माता थे। दीपक अपने दो दोस्तों को साथ में ले आया था। तीनों को मुझमें विश्वास था, जो मैंने बाद में तोड़ा। तीनों को लगा था कि दीपक की लांचिंग होगी और उनकी कंपनी स्थापित हो जाएगी।

क्या मैं कह सकता हूँ कि मुंबई के होने और एक्टिंग के दौरान हुई जान-पहचान के कारण आपको फिल्म के लिए धन जुटाने में आसानी हुई ?
बिल्कुल... मैं आपको बताऊँ कि 'होली' में मैं आमिर खान के साथ था। 'सर्कस' में शाहरुख खान के साथ था। दीपक से मेरी प्रतिद्विंद्विता थी। मैं मीठी बाई कॉलेज का था और वह एनएम कॉलेज का था। इंटर कॉलेज कंपीटिशन में हम आपने-सामने भिड़ते थे। इसे मेरी तकदीर कहिए या जो कुछ... हम लोग साथ ही बढ़े। 'मैंने प्यार किया' के ओरिजनल कास्ट मैं और भाग्यश्री थे। सूरज को 'कच्ची धूप' की जोड़ी चाहिए थी। उन्हें बाद में लगा कि मैं मिसफिट हूँ। भाग्यश्री तो ठीक है, लेकिन लड़का बदलना चाहिए। उसके बाद सलमान आए। हमारे बीच बातचीत होती थी। मुझे मालूम था कि सलमान कब सूरज से मिलने गए। इन सारी वजहों से आसानी रही, लेकिन मैं इस लाइन में यह सोचकर नहीं आया था कि डायरेक्टर बनूँगा। डायरेक्शन एक टेक्नीकल मीडियम है। अगर उसमें आना है तो एफटीआईआई, पूना या सत्यजित राय इंस्टीट्‍यूट, कोलकाता या दिल्ली और चेन्नई के फिल्म स्कूल में जाकर डायरेक्शन सीखना चाहिए। मेरे लिए अच्छी बात रही कि एक्टिंग के दौरान अप्रत्यक्ष रूप से डायरेक्शन की ट्रेनिंग होती रही। जो लोग इंस्टीट्‍यूट में पढ़ने का खर्च नहीं उठा सकते। उन्हें आकर डायरेक्शन में असिस्ट करना चाहिए।

आप जानते हैं कि किसी नए व्यक्ति का असिस्टैंट बनना भी कितना मुश्किल काम है। सब पूछते हैं कि क्या अनुभव है? शुरुआत ही नहीं होगी तो अनुभव कहाँ से आएगा ?
कुछ लोग सीधे किसी डायरेक्टर के पास पहुँच जाते हैं और कहते हैं कि हमें कुछ नहीं आता, लेकिन आपके साथ काम करना है। यह तो नहीं चलेगा। आपको कुछ तो आना चाहिए। कुछ तो सीखा होगा आपने। कुछ पढ़ा ही होगा। फिल्म के प्रति पैशन दिखाई दे। आप कह सके कि मैं बेनेगल, सत्यजित राय या फिर आज के किसी फिल्ममेकर के बारे में जानते हैं। पढ़ा है मैंने। डायरेक्टर के लिए जरूरी तकनीक की जानकारी नहीं है, पर फिल्मों को मैं समझता हूँ। जिस डायरेक्टर को मिलने जा रहे हैं, कम से कम उस डायरेक्टर की फिल्में पढ़-देखकर उसके पास जाना चाहिए। असिस्ट करना जरूरी है। असिस्ट करने के बाद ही टेक्नीकल प्रोसेस सीखेंगे। संपर्क बनेगा। इसके साथ ही फिल्म इंडस्ट्री की मुश्किलों से सीधा परिचय होगा। जरूरी नहीं है कि सभी को आते ही काम मिल जाए। डायरेक्शन में जाना है तो असिस्टैंट के तौर पर ही शुरुआत होनी चाहिए।

अगर आप ‍अभिनेता के तौर पर सफल हो गए होते तो हमें 'लगान' जैसी फिल्म नहीं मिलती और हम डायरेक्टर आशुतोष गोवारीकर से भी वंचित रह जाते
बिलकुल, बिलकुल... इस पर मैंने भी बहुत बार सोचा है। मैं अभिनेता आशुतोष के बारे में निश्चित नहीं हूँ कि वह सफल होने पर क्या करता? लेकिन मेरी 'पहला नशा' और 'बाजी' चल गई होती तो भी 'लगान' नहीं बन पाती। हो सकता था, तब मैं सालों बाद बुढ़ापे में कोई ऐसी कोशिश करता.. यह भी हो सकता था कि मुझे ऐसी कोशिश की जरूरत ही नहीं पड़ती। मेरे निर्माताओं को बुरा लग सकता है, लेकिन 'पहला नशा' और 'बाजी' का न चलना एक रूप में मेरे लिए फायदेमंद ही रहा। उनकी असफलता की वजह से ही मैं 'लगान' जैसी फिल्म लिख सका।

'लगान' जैसी फिल्म लिखने की हिम्मत कैसे बटोरी आपने? दो फिल्मों का असफल होना, एक्टर के तौर पर न चलना... कहीं न कहीं निराशा रही होगी, फिर भी आपने बिलकुल अलग किस्म की फिल्म लिखने की हिम्मत दिखाई? हो सकता है पारिवारिक दबाव भी रहा होगा, क्योंकि आपकी शादी हो चुकी थी और बच्चे भी थे?
खुद को खोजने और पाने की कोशिश से वह हिम्मत मिली। अपने माइनस पाइंट को समझने और स्वीकार करने के बाद नए सिरे से शुरू करने के अप्रोच और एटीट्‍यूट से मैं 'लगान' लिख सका। मैंने किसी खुन्नस में 'लगान' नहीं लिखी। मुझे किसी को कुछ नहीं दिखाना था और न ही फिल्म इंडस्ट्री को बदलना था। जिन्होंने भी कहा कि आशुतोष का कैरियर तो डायरेक्टर के रूप में खत्म हो गया, वे सब सही थे, क्योंकि मैंने फिल्में ही वैसी बनाई थीं। अब मैं थोड़ी सुविधा के साथ कह सकता हूँ कि मैंने भारतीय सिनेमा की क्लॉसिक फिल्मों को देखकर जो समझा... बड़े फिल्मकार कैसे वैसी फिल्में बना गए और सफल हुए। मैं परंपरा के साथ एक नयापन खोज रहा था। जब मैंने लिखी तो असंभव-सी कहानी लगी थी। उसकी कहानी थी 1893 में एक छोटा-सा गाँव, अंग्रेज साम्राज्य के खिलाफ खड़ा होता है और अपना लगान माफ करवाने के लिए क्रिकेट खेलता है। अजीब-सी कहानी है न? कोई भी सुनकर दरवाजा ही दिखाएगा। आमिर खान ने भी पहली बार मना कर दिया था। पहली प्रतिक्रिया यही होगी... च्च... कुछ और बात करते हैं। जब मैंने सारे डिटेल के साथ सुनाया... किस तरह करूँगा, इमोशनल कंटेंट क्या है, ड्रामा कहाँ होगा, रोमांस कितना रहेगा, ह्यूमर किस तरह आएगा... यह सब लिखते हुए मैं खोज और पा रहा था। दो फ्लॉप फिल्मों के बाद अगर कोई डायरेक्टर ऐसी फिल्म सुनाता है तो स्वाभाविक है कि सभी मना करें। शायद मेरे पास भी कोई आता तो मैं भी मना कर देता। अगर मैं आमिर खान के नजरिए से देखूँ तो उन्हें सलाम करता हूँ। एक तो उन्होंने भुवन का रोल स्वीकार किया और दूसरे उसे प्रोड्‍यूस करने के लिए आगे आए। आमिर में डायरेक्टर को पहचानने की सिक्स्थ सेंस है।
थोड़ा पीछे चलें। क्या सोच कर 'पहला नशा' की प्लानिंग की गई थी? क्या उस तरह की फिल्में उस समय हिट हो रही थीं या आप कुछ और सोच कर उसे बना रहे थे?
मर्डर मिस्ट्री... मुझे लगा कि ऐसी फिल्में कम बनी हैं और मर्डर मिस्ट्री में एक रोचकता रहती है। 'बाजी' बनाने का मकसद आमिर खान को एक्शन हीरो के तौर पर पेश करना था। उस फिल्म का दूसरा कोई मकसद नहीं था।

क्या नए डायरेक्टर ऐसा दवाब रहता है कि निकट अतीत में सफल हुई फिल्मों या सफल निर्देशकों की लीक पर चलो। क्या 'पहला नशा' और 'बाजी' के समय किसी डायरेक्टर या फिल्म की प्रेरणा थी?
ऐसा मेरी सोच नहीं रही कि ये ट्रेंड है तो इस तरह की फिल्म बनाते हैं

आपकी सोच और योजनाओं में वैयक्तिकता रही?
वैयक्तिकता ज्यादा बड़ा शब्द है इस प्रसंग में... मैं नासमझ ज्यादा था। मैं ट्रेंड, कामयाबी या कुछ और सोच ही नहीं रहा था। यह भी ख्याल नहीं था कि कुछ अलग ही करना है। उत्साह केवल यह था कि दीपक तिजोरी के साथ फिल्म बनानी है, चलो मर्डर मिस्ट्री बनाते हैं। नादानी कहिए, नासमझी कहिए... मैं नासमझी मानता हूँ इसको। अपरिपक्वता भी थी। मेरे पीछे या साथ तब कोई ऐसा नहीं था, जो कह सके कि आशुतोष 'पहला नशा' मत बनाओ। गलत फिल्म चुनी है तुमने। तुम्हें यह नहीं बनानी चाहिए। तुम क्या करोगे? तुम पहले एक रोमांटिक पिक्चर बनाओ। नाम लेने की जरूरत नहीं है, लेकिन बड़े प्रोड्‍यूसर के बेटे जो लांच हुए हैं, उनके पिताजियों ने उन्हें बताया है कि बेटा क्या कर रहे हो? मॉडर्न करो लेकिन प्लॉट ट्रेडिशनल लो... कोई भी समझ सकता है किसकी बात कर रहा हूँ। आपको पता ही होगा कि वे फिल्में कौन सी हैं? यह मुझे बताने वाला कोई नहीं था। दीपक को भी पता नहीं था। हम लोगों की नासमझी रही।

क्या मैं कहूँ कि फिल्मी परिवार से न होने का खामियाजा भुगत ना पड़ा?
नहीं, मैं तो परिपक्वता की कमी कहूँगा। एक खास बात बताऊँ। मुझे जब कोई अवसर मिलता है तो मैं उसके परिणाम के बारे में नहीं सोचता हूँ। मेरे खयाल में अवसर आते ही हैं कभी-कभी। फिर सोचना क्या है, पकड़ लो। 'होली' की बात करें, मैंने सोचा नहीं, मैंने कहा कि अवसर है पकड़ लो। वैसे ही दीपक ने प्रस्ताव रखा तो मैंने हाँ कह दिया। अंग्रेजी में कहावत है कि छलाँग लगाने के पहले देख लो। मेरा उलटा है 'पहले छलाँग मार दो, फिर देखो।'

आत्मज्ञान के बाद आपने 'लगान' बनाई। कल्पना करें कि वह भी असफल हो जाती तो?
'लगान' के साथ अलग बात है। असफल भी हो जाती तो मुझे शर्म नहीं होती। मुझे उस फिल्म का गर्व था। पहली कॉपी देखकर हम खुश हुए थे कि हाँ, यह फिल्म है। अगर वह नहीं चलती तो काम नहीं मिलता... यही न? तो 'लगान' के पहले ही कौन सा काम मिल रहा था। मैं पहले से शून्य था... माइनस में नहीं जा सकता था। मैंने 'लगान' और 'स्वदेस' पर एक साथ काम शुरू कर दिया था। ऐसा नहीं था कि मैंने 'लगान' के बाद 'स्वदेस' के बारे में सोचा। आमिर ने मुझसे पूछा था कि पहले 'लगान' बनाओगे या 'स्वदेस'? उस समय मुझे लगा था कि 'स्वदेस' के लिए थोड़ी और परिपक्वता चाहिए। वह मुश्किल फिल्म थी। मैं बताऊँ कि कभी-कभी लिखने में आप कमाल की भावनाएँ सृजित करते हैं, लेकिन उसे पर्दे पर लाएँ कैसे? वह बहुत मुश्किल काम है, इसलिए मैंने उस समय 'लगान' को चुना।

पहले अभिनेता, फिर निर्देशक और उसके बाद निर्माता... अब तो आप अपनी पसंद की फिल्में बना सकते हैं। क्या शुरू में फिल्मों के लिए निर्माता जुटाने में दिक्कतें हुई थीं?
- 'पहला नशा' में कोई दिक्कत नहीं हुई थी। 'बाजी' में हुई थी, इसलिए कि सलीम अख्तर साहब अपनी फिल्मों में खुद बहुत ज्यादा इनवॉल्व रहते हैं। उसकी मार्केटिंग और प्रोड्‍यूसिंग में पूरा हिस्सा लेते हैं। निर्माता के तौर पर वे ठीक थे। उनकी माँग रहती थी कि स्क्रिप्ट के लेवल पर.. कि यहाँ दृश्य बदल दो यहाँ कुछ डाल दो। हाँ, अगर मुझे कभी सौ व्यक्तियों की जरूरत पड़ती थी तो ये नहीं कहते थे कि दस में कर लो। आमिर खान तो अभी तक का सबसे आदर्श निर्माता रहा। छोटा-सा उदाहरण दूँ। अंग्रेज आपको कोलाबा (मुंबई का एक इलाका) के पीछे भी मिल जाते हैं। फिल्म इंडस्ट्री हमेशा एक सिस्टम रहता है कि आप कोलाबा से ही लाते हो। वे सस्ते होते हैं। मेरी तमन्ना थी कि इंग्लैंड से एक्टर आना चाहिए। आमिर ने एक बार भी बहस नहीं की और हर तरह की सहूलियतें दीं। उसकी वजह से मैं 'लगान' को ठीक वैसी ही बना सका, जैसी बनाना चाहता था। 'बाजी' में स्क्रिप्ट के स्तर पर परेशानी हुई थी।

क्या अब भी किसी प्रकार का दबाव या हस्तक्षेप रहता है? 'लगान' के बाद का सफल निर्देशक भी कोई समझौता करता है क्या?
- मेरे लिए सफलता, सराहना और इज्जत है। जरूरी नहीं है कि आपकी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कामयाब ही हो। लोगों की रुचि आप में बनी रहे। अगर इज्जत गई और बॉक्स ऑफिस पर भी फिल्म नहीं चली, फिर तो समस्या है। मेरे मामले में 'स्वदेस' को लेकर इज्जत बरकरार है, इसलिए मैं 'जोधा अकबर' बना पाया। मैं बाजार की जरूरत पर ध्यान नहीं देता। स्क्रिप्ट पर पहले ध्यान दें और बाद में उसे पर्दे पर लाने पर ध्यान केंद्रित करें। खुद ही जाँच-पड़ताल चलनी चाहिए। अब जैसे कि 100 करोड़ की फिल्म नहीं बनानी चाहिए। उतने पैसे कहाँ से लौटेंगे? मैं वैसा फैसला इसलिए भी नहीं लूँगा कि मैं खुद ही समझता हूँ।

एक निर्देशक के लिए परिवार का सपोर्ट कितना जरूरी होता है। आपकी स्थिति में पूछूँ तो पत्नी और बच्चों का कैसा सपोर्ट मिला?
मैं तो फिर से खुद को भाग्यशाली कहूँगा। 'स्वदेस' बनाने के समय सबसे पहले उनसे पूछा कि अगर आप हाँ कहते हो तभी कंपनी लांच करेंगे। दर्शक तो हमारे घरवाले भी होते हैं। कहानी लिखने के बाद सबसे पहले घरवालों को सुनाता हूँ। उनकी प्रतिक्रिया सुनने के बाद कुछ चीजें जोड़ता हूँ। कुछ चीजें बढ़ाता हूँ और कुछ सुधार करता हूँ। मेरी बहन अश्लेषा मेरी कानूनी सलाहाकार हैं। उसने कारपोरेट लॉ पढ़ा है। पिता जी सब कुछ देख-समझ कर विश्लेषित करते हैं। सभी की भागीदारी रहती है। मैं उसे महत्व भी देता हूँ। फिल्म निर्माण का सारा प्रशासन और प्रबंधन उनके जिम्मे है। मैं उसमें पड़ता भी नहीं हूँ। मेरा काम क्रिएटिव है। कहानी लिखना, फिल्म बनाना। वह निर्माता हैं।