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सैनिक की वर्दी पहनने के बाद कुछ अलग ही फील होता था : मोहित रैना

सैनिक की वर्दी पहनने के बाद कुछ अलग ही फील होता था : मोहित रैना - devon ke dev mahadev actor mohit raina
'अभिनेता बहुत तरह-तरह के होते हैं। कुछ अभिनेता को आप सिर्फ देखते हैं। किसी के साथ आप फोटो खिंचवाने की गुजारिश करते हैं और कुछ के साथ आप इतने कम्फर्टेबल होते हैं कि आप उन पर अपना हक जताते हैं। मैं ऐसा अभिनेता बन गया जिन पर दर्शकों ने अपना हक समझा। शायद इसलिए कि भगवान शिव से सभी मोह करते हैं और इसीलिए उन्हें मैं भी अपना-सा ही लगा। लेकिन शुक्र है कि आज दर्शक ये भी समझ जाते हैं कि मैं रोल निभा रहा हूं। कल या परसों मैं कुछ और रोल भी निभा सकता हूं। लेकिन हां, उनका वो मेरे ऊपर का हक न कभी वे खत्म करना चाहेंगे न ही वो कभी खत्म होगा।'
 
टीवी पर 'देवों के देव महादेव' के साथ आम जनमानस में 'महादेव' के नाम से मशहूर मोहित रैना ने उरी में एक सिपाही की भूमिका निभाई है। उनसे फिल्मों, कश्मीर से उनके नाते और टीवी के बारे में बात कर रही हैं 'वेबदुनिया' संवाददाता रूना आशीष।
 
कभी आपका किसी एक्टर से ऐसा हक वाला कनेक्शन हुआ?
मेरे बचपन में 'सुरभि' एक शो आया करता था और उसमें मैं हर बार पोस्टकार्ड पर जवाब भेजता था और मेरा नाम उसमें कभी नहीं आया। जब मैं मुंबई में आया और सिद्धार्थजी और रेणुकाजी से मिला तो मैं सीधा उनके पास गया और पूछ लिया कि कैसे ये पोस्टकार्ड आप चुनते थे, जो मेरा नाम कभी नहीं आया? तब उन्होंने कहा कि वो चुनने की प्रक्रिया अलग होती है और शायद किस्मत से तुम्हारा नाम नहीं आ सका। शायद इन दोनों से मेरा वो हक वाला रिश्ता रहा है।
 
'महादेव' जैसे रोल करने के कोई साइड इफेक्टेड हुए?
मैंने 'महादेव' का रोल किया तो वो बहुत ही पॉवरफुल रोल था। फिर राजा अशोक का रोल किया और फिर सारागढ़ी में रोल किया। ये बहुत ही शक्तिशाली रोल थे जिसमें मुझ पर बहुत सारा दारोमदार भी होता था। तो धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि मैं कैसे किसी आम रोल को निभाऊं। फिर कभी मैं सोचता कि इस रोल में क्या सिर्फ बाइक पर बैठना है या फिर लड़की को फूल देने हैं। लेकिन धीरे-धीरे लगने लगा कि नहीं, एक एक्टर को बहुत सारे रोल करने चाहिए।
 
रोल की क्या तैयारी करनी पड़ी?
हम सभी 27 कमांडो जो बने थे। सुबह नेवी नगर (दक्षिण मुंबई का हिस्सा जहां नेवी ऑफिसर या उनके परिवार रहते हैं) ट्रेनिंग के लिए जाते थे। दोपहर को सारे एक्टर्स अपने रोल को समझने आपसी तालमेल बेहतर करने के लिए वर्कशॉप करते और शाम को हमारे पास आर्मी के ऑफिसर आते, जो हमें फिजिकल ट्रेनिंग और ऐसी स्ट्राइक के बारे में पढ़ाते थे। ये ट्रेनिंग करीब 3-4 महीने तक चली।
 
आपने कभी कोई ऐसी ट्रेनिंग जाति जिंदगी में ली है?
मैं जम्मू और कश्मीर में रहता था। वहां बचपन में स्काइप एंड गाइड्स का हिस्सा रहा हूं। इनमें लड़के और लड़कियों को अलग-अलग ट्रेनिंग दी जाती थी यानी अलग-अलग विषय पढ़ाए जाते थे। मैंने कक्षा 9 तक ये किया है। हम छोटे होते हैं इसलिए कभी बाहर तो नहीं भेजे जाते थे लेकिन हम में ये आदत डाली जाती थी कि हम चाहे छोटा-सा काम करें लेकिन देश और देशवासियों के लिए कोई तो जिम्मेदारी ले। चाहे वो बुजुर्ग को बैठने के लिए अपनी सीट देना हो या बच्चों को पहले बस से उतरने के लिए अपने वाहन रोक लेना हो यानी हम लोगों को स्कूल में ये सिखाया जाता था कि देश की सेवा करने के लिए सरहद पर हर बार लड़ने जाने की ही जरूरत नहीं है, बल्कि अच्छा काम करके भी आप देशसेवा कर सकते हैं।
 
जब आपने फिल्म के लिए सैनिक की वर्दी पहनी, तब कैसा लगा?
वो तो भाव ही अलग होते हैं। बहुत सुंदर होती है वर्दी। हम दिनभर इसे पहनकर 14-15 घंटे काम करते लेकिन मुझे ये यकीन है कि हम सारे 27 कमांडरों को जब शाम को वर्दी उतारने को कहा जाता था तो हर कोई अपनी वैनिटी वैन में जाकर बैठ जाता। कोई बुलाने आता तो कह देते थे कि थोड़ी देर से आ रहे हैं और हम कुछ सोच रहे हैं यानी हर किसी को लगता कि इस वर्दी को तन पर से कैसे हटाएं? हालांकि हम में से किसी ने अपने इस इमोशन के बारे में कोई बात नहीं की है और अगले दिन हमें एक शख्स मदद के लिए आता था कि वो वर्दी पहना सके लेकिन हम सभी उसके आने से पहले ही वर्दी पहनकर बैठ जाते थे। मेरे हिसाब से देश के हर वासी में ये इमोशन है और इस फिल्म से उसी इमोशन को फिर से जगाने में मदद होगी।