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Written By jitendra

गुरुदत्‍त : जन्‍मदिवस पर विशेष

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्‍या है

गुरुदत्‍त : जन्‍मदिवस पर विशेष -
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अक्‍टूबर का महीना था। मुंबई का मौसम कुछ-कुछ सुहावना हो चला था। ऐसे ही मौसम में देव आनंद और गीता दत्‍त के साथ गुरुदत्‍त ने जाने कितनी रातें मरीन ड्राइव और वर्ली के समुद्र तट पर भटकते हुए गुजारी थीं। लेकिन ये रात उन रातों से थोड़ी अलग थी। पैडर रोड स्थित किराए के एक फ्लैट में गुरुदत्‍त बिलकुल अकेले थे। जिंदगी से आजिज आ चुका एक अकेला, अवसादग्रस्‍त, अतृप्‍त कलाकार। तब कोई नहीं जानता था कि ये रात गुरुदत्‍त के जीवन की आखिरी रात होगी। आधी रात के करीब उन्‍होंने शराब में ढेर सारी नींद की गोलियाँ निगल लीं। रात बीती, सूरज उगा, लेकिन सदी के सबसे महान कलाकार की आत्‍मा का सूरज अस्‍त हो चुका था।

9 जुलाई, 1925 को मैसूर में एक मामूली हेडमास्‍टर और एक साधारण गृहिणी की संतान के रूप में वसंत शिवशंकर पादुकोण का जन्‍म हुआ। माँ की उम्र तब मुश्किल से 13 साल की रही होगी। बालक के लिए जिंदगी के रास्‍ते आसान नहीं थे। शुरू से ही आर्थिक परेशानियाँ और भावनात्‍मक एकाकीपन उसके हमराही रहे। माता-पिता के तनावपूर्ण संबंध, घरेलू दिक्‍कतें और 7 वर्षीय छोटे भाई की असमय मौतपहले-पहल जिंदगी कुछ इस शक्‍ल में उसके सामने आई। यूँ ही नहीं उसने दुनिया को इतनी बेरहमी से ठुकराया था

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बचपन का वो उदास-गुमसुम बच्‍चा एक दिन ‘प्‍यास’ के विजय और ‘कागज के फू’ के असफल निर्देशक ‘सुरे’ के रूप में हमारे सामने आता है और हम आश्‍चर्यचकित देखते रह जाते हैं। ये मोती यहीं कहीं था, हमारे इर्द-गिर्द, जिसे अब तक कोई देख नहीं पा रहा था

किसी गहरे कवित्‍व और रचनात्‍मकता के बीज बहुत बचपन से ही उनके भीतर मौजूद थे। बत्‍ती गुल होने पर बालक गुरुदत्‍त दीये की टिमटिमाती लौ के सामने अपनी उँगलियों से दीवार पर तरह-तरह की आकृतियाँ बनाता। उन दिनों यह दोनों छोटे भाइयों आत्‍माराम और देवीदास और इकलौती छोटी बहन ललिता के लिए सबसे मजेदार खेल हुआ करता था।
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गुरुदत्‍त एक मेधावी विद्यार्थी थे, लेकिन अभावों के चलते कभी कॉलेज न जा सके। उदयशंकर की नृत्‍य मंडली में उन्‍हें बड़ा रस आता था। 1941 में मात्र 16 वर्ष की आयु में गुरुदत्‍त को उदयशंकर के अल्‍मोड़ा स्थिति इंडिया डांस सेंटर की स्‍कॉलरशिप मिली। पाँच वर्ष के इस वजीफे में प्रति वर्ष 75 रु. मिलने वाले थे, जो उस दौर के हिसाब से बड़ी बात थी। लेकिन यह शिक्षा अधूरी रह गई। पूरी दुनिया उस समय गहरी उथल-पुथल के दौर से गुजर रही थी। भारत में आजादी की लड़ाई जोरों पर थी। द्वितीय विश्‍व युद्ध की शुरुआत हो चुकी थी। उदयशंकर को मजबूरन अपना स्‍कूल बंद करना पड़ा और गुरुदत्‍त घरवालों को ये बताकर कि कलकत्‍ते में उन्‍हें नौकरी मिल गई है, 1944 में कलकत्‍ता चले आए।

लेकिन बेचैन चित्‍त को चैन कहाँ। उसे एक टेलीफोन ऑपरेटर नहीं, ‘प्‍यास’ और ‘कागज के फू’ का निर्देशक होना था। उसी वर्ष प्रभात कंपनी में नौकरी करने वे पूना चले आए और यहीं उनकी मुलाकात देवानंद और रहमान से हुई। गुरुदत्‍त ने फिल्‍म ‘हम एक है’ से बतौर कोरियोग्राफर अपने फिल्‍मी सफर की शुरुआत की थी। फिर देवानंद की फिल्‍म ‘बाज’ से निर्देशक की कुर्सी सँभाली। तब उनकी उम्र मात्र 26 वर्ष थी। उसके बाद ‘आर-पा’, ‘सीआईड’, ‘मि. एंड मिसेज 55’ जैसी फिल्‍में गुरुदत्‍त के फिल्‍मी सफर के तमाम पड़ाव थे, लेकिन वह महान कृति अब भी समय के गर्भ में छिपी थी, जिसे आने वाले तमाम बरसों में भी हिंदी सिनेमा के इतिहास से मिटा पाना मुमकिन न होता

19 फरवरी, 1957 को ‘प्‍यास’ रिलीज हुई। यकीन करना मुश्किल था कि ‘आर-पा’ और ‘मि. एंड मिसेज 55’ के टपोरी नायक के भीतर ऐसा बेचैन कलाकार छिपा बैठा है। यह फिल्‍म आज भी बेचैन करती है। जैसा जिंदा संवाद इस फिल्‍म का अपने समय के साथ था, और ‘प्‍यास’ के बिंबों में जैसे गुरुदत्‍त उस दौर और उसमें इंसानी जिंदगी के तकलीफदेह यथार्थ को रच रहे थे, वैसा उसके बाद फिर कभी संभव नहीं हो सका। सत्‍यजीत रे की सिनेमाई प्रतिभा से इनकार नहीं, लेकिन अपने समय का ऐसा जिंदा चित्रण उन्‍होंने भी नहीं किया है। उनकी अधिकांश फिल्‍में साहित्यिक कृतियों का उत्‍कृष्‍ट सिनेमाई संस्‍करण हैं

‘प्‍यास’ के दो वर्ष बाद आई ‘कागज के फू’, जो बहुत हद तक गुरुदत्‍त की ही असल जिंदगी थी। ‘कागज के फू’ एक असफल फिल्‍म साबित हुई। दर्शकों ने इसे सिरे से नकार दिया और गुरुदत्‍त फिर कभी निर्देशक की उस कुर्सी पर नहीं बैठे, जिस पर बैठे-बैठे फिल्‍म के नायक सुरेश सिन्‍हा की मौत होती है।
‘कागज के फू’ भी एक महान फिल्‍म थी। कुछ मायनों में ‘प्‍यास’ से भी आगे की कृति। गुरुदत्‍त का निर्देशन, अबरार अलवी के संवाद, वी.के. मूर्ति की सिनेमेटोग्राफी और एस. डी. बर्मन का संगीत। दिग्‍गजों का ऐसा संयोजन गुरुदत्‍त के ही बूते की बात थी। इस फिल्‍म की असफलता बहुत चौंकाती नहीं है। हिंदुस्‍तान जैसे देश में शायद यही मुमकिन था। ‘प्‍यास’ को भी भारत से ज्‍यादा सफलता विदेशों में मिली। फ्राँस की जनता ने जिस पागलपन के साथ ‘प्‍यास’ का स्‍वागत किया, वह खुद गुरुदत्‍त के लिए भी उम्‍मीद से परे था। गुरुदत्‍त की सिनेमाई समझ और उनके भीतर का कलाकार बेशक महान थे, लेकिन हमारे देश में एक कम उम्र युवक की दुखद मौत उसकी प्रसिद्धि का कारण ज्‍यादा बनी, न कि उसकी अपराजेय प्रतिभा।

गुरुदत्‍त के लिए जीवन बहुत आसान नहीं रहा। भीतर एक अतृप्‍त कलाकार की छटपटाहट थी। बाहर अवसादपूर्ण दांपत्‍य और प्रेम की गहन पीड़ा, तोड़ देने वाला अकेलापन। अकेलेपन के ऐसे ही एक क्षण में उन्‍होंने अपना जीवन खत्‍म कर लिया था। संसार छूट गया और यहाँ के सारे गम भी। लेकिन उन्‍हें जानने वाले ये कभी समझ ही न सके कि अकेलेपन और अवसाद का वह कैसा सघनतम क्षण रहा होगा, जब किसी को दुनिया से छूट जाना ही एकमात्र रास्‍ता जान पड़ा

एक व्‍यावहारिक और चालबाज दुनिया उन्‍हें नहीं समझ सकती थी। उनके आसपास का कोई व्‍यक्ति उन्‍हें नहीं समझ पाया। ‘कागज के फू’ की असफलता को गुरुदत्‍त स्‍वीकार नहीं कर सके। उसके बाद भी उन्‍होंने दो फिल्‍में बनाईं, लेकिन निर्देशन का बीड़ा नहीं उठाया। ‘कागज के फू’ दर्शकों की संवेदना के दायरे में घुसी, लेकिन पहले नहीं, बल्कि गुरुदत्‍त की मौत के बाद। ऐसा भावुकतावाद कोई नई बात नहीं। जीते जी जिसे कोई पहचान नहीं पा रहा था, उसकी मौत ने उसे नायक बना दिया

‘प्‍यास’ का विजय यूँ ही नहीं इस दुनिया को ठुकराता। उसकी संवेदना इस दुनिया की समझ से परे है। उसे कोई समझता है तो सिर्फ गुलाबो (प्‍यासा की वेश्‍या) और शांति (कागज के फूल की अनाथ लड़की)।

कई सौ वर्षों की गुलामी झेलने वाले तीसरी दुनिया के एक गरीब मुल्‍क और एक पिछड़ी सामंती भाषा में रचे जा रहे सिनेमा की अपनी वस्‍तुगत सच्‍चाइयाँ थीं। जबकि गुरुदत्‍त इस यथार्थ से बहुत आगे थे। गुरुदत्‍त बेशक अपने वक्‍त से बहुत आगे के कलाकार थे। भारत देश और मुंबईया सिनेमा की जिन सीमाओं के बीच वे अपनी कालजयी कृतियाँ रच रहे थे, वह अपने आप में एक गहरी रचनात्‍मक तड़प को दर्शाती है। वह तड़प, जो जिंदगी के छूटने के साथ ही छूटी। लेकिन शायद पूरी तरह छूटी भी नहीं। अपने पीछे भी वो एक तड़प छोड़ गई। वही तड़प, जो आज भी ‘प्‍यास’ और ‘कागज के फू’ देखते हुए हमें अपने भीतर महसूस होती है। एक तड़प, जो सुंदर फूलों की ‘प्‍या’ में भटक रही है, लेकिन जिसके हिस्‍से आते हैं, सिर्फ ‘कागज के फू