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Written By दीपक असीम

एक मैं और एक तू : परिपक्व युवा की झलक...

एक मैं और एक तू : परिपक्व युवा की झलक... -
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किसी भी फिल्म का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन उसकी गुणवत्ता तय नहीं करता। इसलिए बॉक्स ऑफिस पर भले ही "एक मैं और एक तू" साधारण फिल्म ठहरे, मगर फिल्म में कई चीजें ऐसी हैं, जिनकी चर्चा होनी चाहिए। मसलन रिलेशनशिप...।

एक जमाना था जब हम फिल्मों में देखते थे कि लड़कों की दुनिया अलग है और लड़कियों की अलग। फिर इत्तेफाक से एक लड़का और एक लड़की कहीं मिल जाते हैं। मिलते ही प्यार करना शुरू कर देते हैं (क्योंकि इसके अलावा कोई और चारा नहीं है)। प्यार करते ही वे तय कर लेते हैं कि एक-दूसरे से शादी करना है। समाज आड़े आता है, मगर वे शादी करके रहते हैं। फिल्म खत्म।

फिर जमाना बदला। ऐसी फिल्में आने लगीं जिसमें लड़का बीसियों लड़कियों से मिलता है। लड़की भी दसियों लड़कों के साथ रहती है। मगर प्यार करती है किसी एक पसंदीदा से। फिर दोनों शादी कर लेते हैं। ये फिल्म इस दौर को भी बदलने जा रही है।

इसकी कहानी है कि एक लड़का और एक लड़की मिलते हैं। दोनों एक-दूसरे से दोस्ती करते हैं। फिर बिना प्यार किए अलग हो जाते हैं। ये जरूरी नहीं कि जो पहला बंदा सामने पड़ा उससे प्यार ही कर लिया जाए।

करीना कपूर इसमें सत्ताइस साल की ऐसी लड़की हैं जो इस तरह के रिलेशनशिप से ऊब चुकी है। हर बॉयफ्रेंड उसकी आजादी को बाधित करता है और आखिरकार उसे उबा देता है। इसीलिए वो नायक से शादी तो क्या प्यार के भी कमिटमेंट में पड़ना नहीं चाहती।

वो उसे अपने ढंग से प्यार करती है। बिना देह के बिना बंधन के। उसे उसकी अदाएँ पसंद आती हैं। उसका भोलापन। इसीलिए जब नायक को उससे एकतरफा प्यार होता है, तो वो उसे समझाती है कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करती। यानी उस तरह नहीं...। फिर वो नायक के लिए सुटेबल गर्लफ्रेंड भी ढूँढती है।

आने वाली पीढ़ियों का मिजाज इस फिल्म से समझा जा सकता है। शादी की संस्था पर खतरा होने की बात करने वालों को ये जानकर अचंभा होगा कि अब एक-दूसरे को बंधन में डालने वाले प्रेम प्रसंग भी जा रहे हैं। कोई जोड़ा लंबे समय तक एक-दूसरे के साथ खुश रहता है, मगर परस्पर सहमति से। न कि सामाजिक या भावनात्मक दबावों और ब्लैकमैलिंग के चलते। इस फिल्म में हमारे परिपक्व युवा की झलकी है।

एक और कारण से ये फिल्म महत्वपूर्ण है। इस फिल्म का नायक औसत आदमी है। कमाई में, प्रतिभा में, हर चीज में...। अभी तक की फिल्में हमें यह बताती हैं कि "एक्सीलेंस के पीछे भागो, कामयाबी अपने आप आएगी।" मगर असलियत यह है कि इसके बावजूद हर कोई इस तरह सफल नहीं हो सकता। प्रतिभावान तो कोई सैकड़ों हजारों में एक होता है। ज्यादातर लोग तो एवरेज होते हैं।

एवरेज लोग ही मेहनत करते हैं और एवरेज लोगों से ही दुनिया चलती है। मगर एवरेज आदमी को कभी सम्मान नहीं मिलता। बल्कि किसी को औसत कहना उसकी निंदा करना है। इस फिल्म की नायिका नायक को कहती है कि मैं तुम्हें इसलिए पसंद करती हूँ कि तुम "परफेक्ट एवरेज" हो। जहाँ जितना होना चाहिए ठीक उतना। इस फिल्म में पहली बार एक औसत आदमी का सम्मान है और फिल्म देखकर औसत के प्रति प्यार भी उमड़ता है।

विचार के स्तर पर यह आमिर खान और राजू हिरानी से एक कदम आगे की सोच है। अगर इमरान खान का अभिनय थोड़ा-सा और अच्छा होता तो यह एक खास फिल्म बन सकती थी। किसी भी फिल्म को कमाई की कसौटी पर फिल्म के धंधेबाज परखें। आम लोगों को फिल्म का हर पहलू देखना चाहिए।