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Written By BBC Hindi
Last Updated :संजीव श्रीवास्तव, भारत संपादक, बीबीसी हिंदी , सोमवार, 18 अगस्त 2008 (00:25 IST)

मैं जन्म से जुआरी हूँ-जगजीतसिंह

गजल गायक जगजीतसिंह से खास मुलाकात

मैं जन्म से जुआरी हूँ-जगजीतसिंह -
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भारतीय गजल गायकों में जगजीतसिंह का नाम बड़े अदब के साथ लिया जाता है। संगीत को जिंदगी का हिस्सा मानने वाले जगजीत को न तो मौजूदा दौर का संगीत पसंद है, न ही गायक। हाँ वे खुद को जरूर अच्छा संगीतकार मानते हैं। बीबीसी ने उनसे खास मुलाकात की। पेश हैं उसके अंश-

गजल की तरफ झुकाव कैसे हुआ?
ये तो बहुत लंबी-चौड़ी दास्तान है कोई चालीस-पैंतालीस साल पहले जब मैं कॉलेज में था, उसी समय से मेरा रूझान गजल की ओर था। उस समय फिल्मों के नब्बे फीसदी गाने भी गजल पर आधारित होते थे। मेरे अंदर उसी समय से गजल का एक मीटर चलने लगा था। संगीत सीखना शुरू किया और कॉलेज में गाने के लिए गजल को अपनाया। उसे खुद कंपोज कर स्टेज पर गाना शुरू किया।

इतनी सारी भाषाओं में महारत कैसे हासिल की?
किसी भाषा में गाना कोई मुश्किल बात नहीं है। यह तोते की तरह रटकर गाने जैसा है। अभी मैंने बांग्ला में गाया है। मेरी बीवी बंगाली है तो उच्चारण के बारे में मैंने उनसे पूछ लिया, फिर सब आसान हो गया। गुजराती में भी एक एलबम बनाया है। मेरा सेक्रेटरी गुजराती है तो उसे सामने बैठा लिया।

आपका बचपन कहाँ गुजरा?
मेरी पैदाइश राजस्थान के श्रीगंगानगर की है। पिताजी पीडब्ल्यूडी में कार्यरत थे। मेरी स्कूली शिक्षा श्रीगंगानगर में हुई। स्कूली दिनों में ही उस्ताद जमाल खाँ साहब से मैंने संगीत सीखना शुरू कर दिया।

मात-पिता ने आपको प्रोत्साहित किया?
हाँ, मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं संगीत सीखूँ। पहले एक सूरदास मास्टर थे छगनलाल शर्मा। उन्होंने मुझे एक साल वहाँ भेजा। हारमोनियम सीखा, थोड़े-बहुत राग सीखे। उसके बाद उस्ताद जमाल खाँ साहब के पास भेजा। वहाँ ध्रुपद धमार, ठुमरी, ख्याल बहुत कुछ सीखा। एफएससी करने के बाद डीएवी कॉलेज, जालंधर में स्नातक की पढ़ाई की। फिर कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से इतिहास में एमए किया। मैं वहाँ हॉस्टल में रहता था तो मेरा तानपुरा साथ में होता था और मेरी कोशिश यही होती थी कि मेरा रूम पार्टनर ऐसा हो जो तबला जानता हो। 1965 में मैं मुंबई आ गया था इसी क्षेत्र में करियर बनाने।

करियर की शुरुआत आसानी से हो गई या संघर्ष करना पड़ा?
संघर्ष तो रहा ही, लेकिन ऐसा नहीं था कि रात को भूखे हैं और फुटपाथ पर सो रहे हैं। थोड़ा-बहुत कमा लेते थे। दो-तीन सौ रुपए मेरा एक लुधियानवी दोस्त भेज देता था। उस वक्त खर्च ही दो-तीन सौ रुपए महीने का था। उसने छह महीने तक दो सौ रुपए भेजे। अगलीपारा के एक हॉस्टल में पैंतीस रुपए मेरे बेड का किराया था। उधार खाना खाते थे तो उधार खाने में साठ-पैंसठ रुपए महीने का खर्च आता था।

शुरू से गजल गायिकी पर ही ध्यान रखा या कुछ और भी गाया?
शुरू से ही मैं गजलों पर आ गया था। वैसे मैं पंजाबी भी गाता हूँ। लोकगीत भी गाए। खुद कंपोज करके गाया, उसे भी जारी रखा।

जब आप मुंबई आए तो क्या महसूस हुआ कि बस यही शहर है जहाँ मुझे आना चाहिए था।
मेरा जो काम है, उसके लिए मुंबई सही जगह थी। अगर मैं सिर्फ शास्त्रीय संगीत ही गाता तो दिल्ली या कोलकाता भी मेरे लिए ठीक रहता, लेकिन मुझे हल्के संगीत गुनगुनाने थे तो मैंने मुंबई को चुना। यहाँ तकनीकी सुविधाएँ हैं, रिकॉर्डिंग स्टूडियो है, संगीतकार मिलते हैं। फिल्म उद्योग है तो हल्के संगीत का सही उपयोग होता है, इसलिए मुंबई का चयन सही था।

खुद का गजल एलबम कब निकाला?
मेरा पहला एलबम 1965 के अंत में ही आ गया था, लेकिन वह पूरा नहीं था। एचएमवी ने मुझे मौका दिया था कि आप एक ईपी बनाइए। ईपी में चार गजलें होती हैं। दो एक गाता है और दो दूसरा गायक गाता है। उसमें मैंने दो गजलें गाईं। 'अपना गम भूल गए, उनकी जफा भूल गए, हम तो हर बात मुहब्बत के सिवा भूल गए...' उसमें दूसरी गजल थी-‘साकिया होश कहाँ था तेरे दीवाने में...।’

साठ के दशक में ही चित्राजी के साथ आपकी मुलाकात हुई थी और फिर शादी भी हुई थी।
हाँ! बिलकुल। उनसे मेरी मुलाकात 1967 में हुई।

पहली बड़ी कामयाबी कब मिली?
बड़ी कामयाबी मुझे दस साल बाद मिली। बीच में छोटे-छोटे ईपी होते रहे। छह-सात ईपी हो गए थे, लेकिन 1976 में कहा गया कि अब आप स्थापित हो गए हैं तो एलपी (लॉंग प्ले) बना सकते हैं। शुरू में एलपी का मौका नहीं देते थे। उस समय एक ही कंपनी थी तो उनका एकाधिकार था। जो वे कहेंगे, वही करना पड़ता था। 76 में हमारा पहला एलबम ‘द अनफॉरगेटेबल्स’ आया। वह हमारी सबसे बड़ी सफलता थी या यूँ कहें मील का पत्थर है और आज भी लोकप्रिय है। उसमें आठ या दस गजलें थीं, उसमें ‘आहिस्ता-आहिस्ता...’ है, ‘बात निकलेगी तो दूर तलक..’ है और ‘बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं, तुझे ए जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं।’

सबसे ज्यादा लोकप्रिय कौन सी गजल हुई?
आहिस्ता-आहिस्ता और बात निकलेगी तो दूर तक...। बहुत लोकप्रिय हुए। स्टेज पर गाना ही पड़ते हैं।

इतनी खोज प्रतियोगिताएं होने के बावजूद आजकल नए गजल गायक कम क्यों हैं?
गजल गायन में मौसिकी सीखना होगी। यह कोई मजाक नहीं है। आपको शास्त्रीय ठुमरी सीखना होगी। ठुमरी में क्या रंग है, क्या अलग-अलग राग है। दूसरा आपको उर्दू जुबान भी आना चाहिए। तीसरा धैर्य भी होना चाहिए। रातोरात स्टार तो नहीं बन सकते और चौथा कि मीडिया की मदद होना चाहिए। गजल को मीडिया का समर्थन नहीं मिलता। अभी मीडिया का समर्थन तो फिल्मी गानों और डांस को मिल रहा है। जितने भी टैलेंट शो होते हैं, वे सभी फिल्मी गाने गाते हैं, उनमें अपनी प्रतिभा कहाँ है। वे तो किसी का गाया हुआ गाना गाते हैं। अपना टेलेंट या अपनी उपज कहाँ है। वे सब नकली माल हैं। ऐसे लोग गायब हो जाते हैं।

जब गजल गायक स्टार बनते हैं, तो लंबे समय के लिए बनते हैं।
क्योंकि वह प्रदर्शन पर आधारित है। मेंहदी हसन साहब, गुलाम अली, फरीदा खान, बेगम अख्तर, तलत महमूद। ये सब अपने प्रदर्शन के दम पर ऊपर आए। ये किसी मीडिया के समर्थन या जोड़-तोड़ से ऊपर नहीं आए हैं।

इस लोकप्रियता को कैसे सँभालते थे और आज कैसे करते हैं?
इसे देखना बहुत मुश्किल है। बड़ा सँभालना पड़ता है अपने आपको। प्रदर्शन को बनाए रखना होता है। हर एलबम मेरे लिए एक नई शुरुआत होती है। पुराना काम जो मैंने किया है, उसे भूलना पड़ता है। नए काम को नए लोग मिलेंगे, नए श्रोता मिलेंगे, यह सोचकर चलना पड़ता है। फॉर्म में रहने के लिए सुबह एक-दो घंटे रियाज करता हूँ।

फिल्मी दुनिया में भी आपकी काफी दखलअंदाजी रही।
फिल्म की पहुँच बहुत दूर तक है। शुरू में हम जो करते थे, वो फिल्म के माध्यम से ही लोगों तक पहुँचती थी। मैंने शुरू-शुरू में ‘प्रेमगीत’ के लिए ‘मेरा गीत अमर कर दो..’ ‘अर्थ’ के लिए गाया। उसकी तीन गजलें बड़ी हिट हुईं। ‘तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो..’ और उसके बाद मैंने दो-चार गलत फिल्में भी पकड़ लीं। संगीत निर्देशक बन गया था। मैंने डाकुओं की फिल्म पकड़ ली, उसमें मेरा गाना-वाना नहीं था, मुजरे वगैरह थे तो वे पिट गईं। फिल्म उद्योग में ऐसा है कि फिल्म हिट हो जाए तो उसका कुत्ता भी हिट हो जाता है और अगर फ्लॉप हो जाए तो सारे पिट जाते हैं। भले ही किसी ने अच्छा काम किया हो।

फिल्मों में सबसे पहले आपको किसने काम दिया?
शत्रुघ्न सिन्हा ने मुझे पहला मौका दिया था ‘प्रेमगीत’ में, ‘मेरा गीत अमर कर दो..’ के लिए। शुत्रघ्न और महेश भट्ट दोनों बराबर थे।

इन दिनों कोई प्रस्ताव है?
नहीं। मैं फिल्मों के पीछे नहीं भागता। कोई आ जाए तो गा देता हूँ

फिल्मी दुनिया में आपके पसंदीदा गायक कौन हैं?
पुरानों में तलत महमूद, रफी और मन्ना डे, सारे अच्छे गायक थे। आज के गायकों में सबसे अच्छा लगता है केके।

आपके पसंदीदा संगीत निर्देशक?
पसंदीदा संगीत निर्देशक आजकल कुछ नहीं है। वह तो सब चोरी का माल है। कुछ लोग कई बार अच्छा काम करते हैं। जैसे शंकर महादेवन कभी-कभी अच्छा काम कर देते हैं। जतिन-ललित भी अच्छा कर लेते हैं, लेकिन इसमें निरंतरता नहीं है। तुक्का लग गया तो ठीक है।
मदनमोहन, रोशन का जो समय था तो हर संगीत पर वे काम करते थे। वे सोचते थे कि हर गाना हिट होना चाहिए। संगीतमय होना चाहिए। आजकल तो कम्प्यूटर में संगीत आ गया है। आदमी का काम बहुत दिखता नहीं है
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एआर रहमान साहब की इतनी बात होती है। आपका क्या कहना है उनके बारे में?
रहमान ठीक हैं। मुझे तो कोई खास लगते नहीं।

कोई ऐसा समकालीन संगीत निर्देशक है, जिनके साथ काम करने का अपना मन करता हो
इस वक्त कोई नहीं है। खय्याम साहब हैं पुरानों में से जिनके साथ हमारा टेस्ट थोड़ा-बहुत मिलता है, लेकिन मेरे लिए जो संगीत निर्देशक काम करेगा, उसे गजल की समझ होना चाहिए। जुबान आना चाहिए।

संगीत के अलावा आपकी रुचि किसमें हैं, समय कैसे बिताते हैं?
गायक के अलावा मैं जुआरी हूँ, जन्म से जुआरी हूँ। मुझे बोली लगाने का बहुत शौक है। मेरे पास दौड़ में शामिल होने वाले पाँच-छह घोड़े हैं। जुआ मेरे खून में है। दोनों अंग्रेजी में 'जी' से शुरू होते हैं, सिवा इसके। गजल गायिकी के साथ जुआ का कुछ जमता नहीं है। जब रेसकोर्स में हम जाते हैं तो गजल-वजल भूल जाते हैं। वहाँ सिर्फ घोड़ों की बात होती है, रेस की बात होती है। एक ब्रेक मिलता है।

खुद में सबसे अच्छा क्या लगता है?
मेरा भोलापन। मेरी जो स्वाभाविक साफगोई है, वह मुझे बहुत अच्छी लगती है।

आपने इतने जबरदस्त लाइव शो किए हैं। कोई यादगार शो।
1982 में लंदन के रॉयल एल्बर्ट हॉल का शो काफी यादगार रहा। पहली बार 1979 में लंदन गए थे और तब दो शो किए थे। सारी टिकटें बिक गई थीं। आयोजक बताते हैं कि तीन घंटे में मेरे शो की टिकटें बिक गई थीं। वे थोड़ा बढ़ाकर बोल रहे होंगे, लेकिन आप तीन दिन भी मानिए तो यह बढ़िया था। उसके बाद मैंने एलबम भी निकाला

आपको अहसास है कि लोग आपकी कौन सी गजल सबसे ज्यादा सुनना चाहते हैं?
सबसे ज्यादा लोकप्रिय ‘वो कागज की कश्ती, बारिश का पानी...’ ही है, लेकिन आप उससे सही आकलन नहीं कर सकते। जब ‘आहिस्ता-आहिस्ता..।.’ गाता हूँ तो भी तालियाँ बजती हैं। जब ‘बात निकलेगी तो...’ या ‘मेरा गीत अमर कर दो...’ शुरू करता हूँ तो भी तालियाँ पड़ती हैं। कोई बीस-तीस गजलें हैं, जो बहुत लोकप्रिय हैं।

मनपसंद खाना?
खाना तो आजकल नियंत्रित है। ऐसे में चाइनीज ही ठीक रहता है। वह कम से कम ताजा बनता है।

अगर आपको एक दिन की छूट हो कि आप जो चाहें, खा सकते हैं और उसका स्वास्थ्य पर कोई असर नहीं होगा तो आपका क्या ऑर्डर होगा?
दाल और पराठे।

दो वाक्यों में खुद के बारे में क्या कहना चाहेंगे?
मैं एक सामान्य दिल वाला मेधावी आदमी हूँ। अच्छा संगीतकार हूँ। भोला-भाला हूँ और आज भी विद्यार्थी की तरह सीखता रहता हूँ।

फिल्में देखने का शौक है?
फिल्में तो आजकल मैं घर पर टेलीविजन पर ही देखता हूँ। थिएटर नहीं जाता। सर्वकालीन हिंदी फिल्म 'मुगल-ए-आजम' है।

आने वाले पाँच-दस सालों में आप खुद को कहाँ देखते हैं और क्या करते हुए देखते हैं?
आने वाले समय में मैं जहाँ हूँ, पहले तो वहीं रहूँ, यही काफी है। इससे ऊपर चला जाऊँ तो ईश्वर की मेहरबानी। मैं अपना काम मन लगाकर कर रहा हूँ। चार सीडी गुरुवाणी की रिलीज कर रहा हूँ, उसमें अलग-अलग कलाकारों से काम करवाया है।