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Last Modified: मंगलवार, 3 अप्रैल 2018 (12:12 IST)

क्या गोंडी भाषा सुलझाएगी माओवाद की समस्या?

क्या गोंडी भाषा सुलझाएगी माओवाद की समस्या? - gondi language
- आलोक प्रकाश पुतुल (रायपुर से)
 
देशभर में चल रहे अलग-अलग भाषाई संघर्ष में अब गोंडी भी शामिल हो सकती है। संभव है कि आने वाले दिनों में गोंडी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने को लेकर कोई आंदोलन भी शुरू हो जाए। कम से कम गोंडी बोली को लेकर जो कवायद चल रही है, उससे तो ऐसा ही लगता है।
 
इसी साल फ़रवरी के पहले सप्ताह में मध्य प्रदेश के बैतूल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मोहन भागवत ने हिन्दी-गोंडी शब्दकोश का विमोचन किया था। इसे गोंडी का पहला शब्दकोश बताते हुए दावा किया गया कि इसमें आठ लाख शब्द शामिल हैं। इस शब्दकोश के विमोचन के लगभग दस दिनों के भीतर ही राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने गोंडी को मध्य प्रदेश की दूसरी राजभाषा बनाने की घोषणा कर दी।
 
इधर, मार्च में दिल्ली में सीजी नेट स्वरा नामक संस्था की पहल पर गोंडी के शब्दकोश के निर्माण का दावा करते हुए कहा गया कि देश के सात राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में बोली जाने वाली गोंडी का पहला मानक शब्दकोश है। इससे पहले पिछले साल अगस्त में अखिल भारतीय गोंडवाना गोंड महासभा ने दिल्ली में गोंडी शब्दकोश का विमोचन किया था, जिसे गोंडी का पहला मानक शब्दकोश बताया गया था।
मध्यप्रदेश आदिम-जाति अनुसंधान एवं विकास संस्थान ने पहले ही गोंडी के छह हज़ार शब्दों का एक शब्दकोश तैयार कर रखा है। आंध्र प्रदेश की एकीकृत आदिवासी विकास संस्थान ने 2005 में गोंडी-अंग्रेज़ी-हिंदी-तेलुगु का शब्दकोश प्रकाशित किया था। ऐसे कई शब्दकोश चलन में हैं।
 
गोंडी भाषा का इतिहास
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओडिशा, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और गुजरात के इलाकों में रहने वाले गोंड आदिवासियों की कुल आबादी 2011 की जनगणना के अनुसार एक करोड़ 32 लाख के आसपास है। देश के इस सबसे बड़े आदिवासी समूह के अलग-अलग इलाकों में फैले होने के कारण इनकी भाषा भी एक नहीं है। यहां तक कि एक ही राज्य में गोंड आदिवासियों की भाषा एक-दूसरे से एक दम भिन्न है।
 
उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ के सरगुजा संभाग में रहने वाले गोंड या तो छत्तीसगढ़ी बोलते हैं या सरगुजिया। दूसरी ओर बस्तर के इलाके में रहने वाले गोंड आदिवासी या तो तेलुगु मिश्रित गोंडी बोलते हैं या हल्बी।
 
दावा ये है कि मोहनजोदड़ो में जिस सैन्धवी लिपि का उपयोग होता था, वह मूलतः गोंडी ही थी। लेकिन इन दावों से अलग पिछली कुछ शताब्दियों में गोंडी भाषा और समाज को लेकर कई महत्वपूर्ण काम हुए हैं। 1889 में प्रकाशित एचडी विलियमसन की गोंडी भाषा के व्याकरण और शब्दकोश की किताब से लेकर मंगल सिंह मसराम, सीताराम मंडाले, मोतीरावण कंगाली, डॉ. इन्द्रजीत सिंह, हीरालाल शुक्ल जैसे कई नामों समेत दंतेवाड़ा के सिकंदर ख़ान तक के काम इसके प्रमाण हैं।
 
एक तरफ़ बस्तर के स्कूलों में गोंडी में पढ़ाई हो रही है तो पिछले कुछ सालों से मध्यप्रदेश में गोंडी का समाचार पत्र 'लोकांचल' भी प्रकाशित हो रहा है। आकाशवाणी के अलग-अलग केंद्र गोंडी में अपने कार्यक्रम बरसों से प्रसारित करते रहे हैं। अलग-अलग राज्यों में गोंडी को बढ़ावा देने के लिये कई दूसरे उपक्रम भी चल रहे हैं।
जिन 12 राज्यों में गोंड आबादी बसती है, उनमें से 7 राज्यों के गोंड भाषा विज्ञानियों के साथ मिल कर 2800 शब्दों का एक मानक शब्दकोश तैयार करने वाले 'सीजी नेट स्वरा' के शुभ्रांशु चौधरी कहते हैं, "पिछले 4 वर्षों से मध्य भारत के गोंड आदिवासी के कुछ दर्जन प्रतिनिधि हर कुछ महीने किसी न किसी जगह मिलते रहे हैं और पिछले हफ्ते उन्होंने अपना पहला मानक शब्दकोश तैयार किया है। आम तौर पर इस तरह के काम सरकार करती है। यह सम्भवत: पहली बार हुआ है जब एक समुदाय ने साथ आकर अपना मानक शब्दकोश बनाया है, सरकार से भी उनको मदद मिली है।"
 
भाषा और माओवाद
छत्तीसगढ़ के माओवादियों पर 'उसका नाम वासु नहीं था' शीर्षक से चर्चित किताब लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी इस शब्दकोश को लेकर बहुत आशान्वित हैं।
 
शुभ्रांशु का कहना है कि मध्य भारत पिछले लगभग 40 सालों से एक सशस्त्र आंदोलन के परिणामों से जूझ रहा है। आज इस आंदोलन का जिसे हम माओवादी या नक्सल आंदोलन भी कहते हैं, एक बहुत बड़ा हिस्सा गोंड आदिवासियों से बना है। गोंडी इलाकों में यदि अब मातृभाषा में शिक्षण शुरू होता है तो बहुत से गोंडी भाषी युवाओं को नौकरी मिलेगी और स्कूलों से ड्रॉप आउट की संख्या घटेगी।
 
उनका दावा है कि माओवादी आंदोलन के अधिकतर लड़ाके स्कूल ड्रॉप आउट हैं। वे स्कूल इसलिए नहीं पूरा कर पाए थे क्योंकि उनके शिक्षक हिंदी, मराठी, ओड़िया और तेलुगू बोलते थे और वे गोंडी समझते थे। शुभ्रांशु कहते हैं, "गोंडी के शिक्षक भर्ती करने के लिए हो सकता है कि शुरू में हमें योग्यता में छूट देनी पड़ेगी क्योंकि आज गोंडी जानने वाले पढ़े-लिखों की तादाद कम है। ये अधिकतर गोंडी भाषी इसलिए माओवादियों के साथ जुटे हैं क्योंकि उनके जीवन की छोटी-छोटी दिखने वाली समस्याएँ हल नहीं होती, क्योंकि अक्सर अधिकारी और पत्रकार गोंडी नहीं समझता है।"
 
शुभ्रांशु के अनुसार, "गोंडी के भाषा बनने को सरकारी मुहर लगनी अभी बाकी है जिसके लिए उसे भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करना होगा। आशा है, सरकार इस दिशा में जल्द कदम उठाकर एक ऐतिहासिक चूक को सही करने की दिशा में महत्वपूर्ण निर्णय लेगी, इससे मध्य भारत में शान्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।"
लेकिन बस्तर में बरसों तक काम कर चुके हिमांशु कुमार इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि गोंडी के शब्दकोश के कारण माओवादी आंदोलन को रोकने में सहायता मिल पायेगी। हिमांशु कुमार कहते हैं, "माओवादी आंदोलन को मैं आर्थिक लूट और अन्याय से जोड़ कर देखता हूं। जब तक हमारी नीतियां और नियत ठीक नहीं होगी, माओवादी आंदोलन को रोक पाना संभव नहीं होगा।"
 
गोंडी बनाम हल्बी
हालांकि अमरकंटक के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान और आदिवासी भाषाओं के व्यतिरेकी अध्ययन विभाग की डॉ। अनुश्री श्रीनिवासन का मानना है कि केवल शब्दकोश होने भर से अलग-अलग तरह की गोंडी बोलने वालों के बीच संवाद शुरू हो जायेगा, ऐसा नहीं है।
 
उनका मानना है कि हरेक बोली को बचाने की कोशिश ज़रूरी है लेकिन उसे समान रुप से संवाद के योग्य बनाने में बरसों-बरस लगते हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में आदिवासी मानवाधिकार के लिये काम करने वाले बी के मनीष गोंडी को इस तरह से प्रोत्साहित किए जाने के पक्ष में नहीं हैं। वे यह तो मानते हैं कि किसी भी भाषा का संरक्षण और संवर्धन जरूरी है लेकिन इसके राजनीतिक पहलू पर भी विचार किया जाना चाहिये।
 
मनीष कहते हैं- "आज बस्तर में भाषा और बोली से ज़्यादा ज़रुरी दूसरे मुद्दे हैं। बस्तर में गोंड और हल्बा आदिवासियों के बीच संघर्ष की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। ऐसे में गोंड भाषा को लेकर विशेष आग्रह घातक हो सकता है, यह खूनी संघर्ष में बदल सकता है।"
 
अखिल भारतीय गोंडवाना गोंड महासभा के मुख्य सचिव लोकेंद्र सिंह का कहना है कि पिछले दो दशक में गोंडी भाषा को लेकर लगातार काम हुए हैं, कई शब्दकोश बने हैं लेकिन अभी भी इस भाषा को बेहतर करने के लिए बहुत कुछ किया जाना ज़रूरी है।
 
छत्तीसगढ़ में सर्व आदिवासी समाज के नेता डॉ. शंकर लाल उइके भी मानते हैं कि लगभग 45 लाख गोंडी बोलने वाले आदिवासियों की भाषा को बेहतर किए जाने की हरेक कोशिश गर्व की बात है। वहीं आदिवासी महासभा के नेता और पूर्व विधायक मनीष कुंजाम गोंडी भाषा के विस्तार और विकास को दूसरे तरीके से देखे जाने के पक्ष में हैं।
 
मनीष कुंजाम कहते हैं, "इसका कोई राजनीतिक पहलू तो मुझे नज़र नहीं आता। किसी भी भाषा को मज़बूती देने से उस भाषा को बोलने वाले सामाजिक और सांस्कृतिक रुप से और समृद्ध ही होते हैं। ऐसे में गोंडी के शब्दकोश का तो स्वागत ही किया जाना चाहिए।"
 
किसी ज़माने में मध्यप्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप रखने और कई आदिवासी विधायकों वाले संगठन गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष तुलेश्वर मरकाम इन सभी से अलग सवाल उठाते हैं। मरकाम का कहना है कि गोंडी महज गोंड आदिवासियों की भाषा है, ऐसा कहना तर्कसंगत नहीं है। गोंडी का अपना एक भूगोल है और उस भूभाग में रहने वाले सभी लोग गोंडी में ही बात करते हैं, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या संप्रदाय के हों।
 
फिलहाल 12 राज्यों में फैली गोंड आदिवासियों के लिए मध्यप्रदेश में गोंडी को दूसरी राजभाषा की मान्यता दिए जाने की घोषणा, ख़ुश होने का एक बड़ा कारण हो सकती है लेकिन गोंडी के मानकीकरण और अलग-अलग तरीके से बोली जाने वाली चुनौतियों से तो उन्हें अभी और जूझना होगा।