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Written By BBC Hindi
Last Modified: मंगलवार, 21 जुलाई 2020 (10:45 IST)

कोरोना: बिहार में नीतीश सरकार की वो ग़लतियाँ, जो बन गई हैं गले की फाँस

कोरोना: बिहार में नीतीश सरकार की वो ग़लतियाँ, जो बन गई हैं गले की फाँस - Corona cases in Bihar
सरोज सिंह, बीबीसी संवाददाता
बिहार में जुलाई के पहले 18 दिन में कोरोना के 15 हजार से ज़्यादा मामले सामने आए हैं। मई और जून दोनों महीनों के आँकड़ों को मिला भी दिया जाए तो ये संख्या उससे अधिक है। 
 
इसलिए विपक्ष नीतीश सरकार पर हमलावर है और तेजस्वी यादव कह रहे हैं कि बिहार कोरोना का ग्लोबल हॉटस्पॉट बनने जा रहा है। 
 
कुछ इसी तरह की बात मेडिकल जर्नल लैंसेट की रिपोर्ट में कही गई है। 17 जुलाई की इस रिपोर्ट में भारत के तमाम राज्यों के 20 ज़िलों का 'वल्नरबिलिटी इंडेक्स' बताया गया है।  20 में से 8 ज़िले अकेले बिहार के हैं।
 
आसान शब्दों में कहें तो इसमें ये बताया गया है कि कौन सा राज्य कोरोना की चपेट में आने के बाद उससे लड़ने के लिए कितना तैयार है। इस इंडेक्स में मध्य प्रदेश के बाद नंबर आता है बिहार का।
 
यानी इन दोनों राज्यों की व्यवस्था चरमराने का ख़तरा सबसे ज़्यादा है।
 
जुलाई के पहले 18 दिन के आँकड़े ये बताने के लिए काफ़ी हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आख़िर कहाँ चूक गई नीतीश सरकार? 
 
टेस्टिंग पर सवाल 
WHO और  ICMR दोनों ही संस्थाएँ कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई में टेस्टिंग को सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई मानती है। यानी टेस्ट अधिक से अधिक होगा, तो पॉज़िटिव लोगों के बारे में जानकारी समय पर मिलेगी और फिर उनके कॉन्टेक्ट को ट्रेस और आइसोलेट करने में मदद मिलेगी। 
 
लेकिन प्रदेश की सरकार उसी में पिछड़ती जा रही है। बिहार में प्रति मिलियन टेस्ट की बात करें, तो आँकड़ा 3000 है। बिहार से कहीं छोटा राज्य दिल्ली है। वहाँ प्रति मिलियन 45000 टेस्ट किए जा रहे हैं।
 
हालाँकि ये आँकड़े महाराष्ट्र, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में इससे भी कहीं ज़्यादा हैं। इन आँकड़ों से समझा जा सकता है कि बिहार में टेस्टिंग की हालत कितनी खराब है। अगर टेस्ट नहीं होंगे तो पॉज़िटिव लोगों के बारे में पता नहीं चल पाएगा। और फिर कॉन्टेक्ट ट्रेसिंग भी नहीं हो पाएगी। 
 
इसलिए शुरुआती लापरवाही की वजह से आज बिहार में सबसे ज़्यादा दिक़्क़त आ रही है।
 
एलएनजेपी पटना के हड्डी रोग विभाग के पूर्व निदेशक डॉक्टर एचएन दिवाकर की मानें, तो जुलाई में आँकड़ों में इज़ाफा इसलिए भी आया है क्योंकि टेस्टिंग बढ़ी है। इसे केवल नकारात्मक तरीक़े से ही नहीं देखना चाहिए। जाँच ज़्यादा होगी तो मामले ज़्यादा निकलेंगे ही।
 
बिहार में आज सुबह तक कुल 3 लाख 78 हज़ार लोगों के टेस्ट हुए है, जिनमें से पिछले 24 घंटे में 10 हज़ार से ज़्यादा टेस्ट हुए हैं। 
 
केंद्र का हस्तक्षेप
 
बिहार की बिगड़ती गुई कोरोना स्थिति पर केंद्र सरकार की भी नज़र है। इसलिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की तीन सदस्य टीम स्थिति का जायज़ा लेने रविवार को बिहार पहुँची है। 
 
इस टीम में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल, नेशनल सेंटर फ़ॉर डिजीज़ कंट्रोल के डॉक्टर एसके सिंह और एम्स नई दिल्ली के डॉक्टर नीरज निश्चल शामिल हैं। सोमवार देर शाम इनकी वापसी है। लेकिन दो दिन में ये टीम इस बात का पता लगाएगी कि आख़िर राज्य सरकार में चूक कहाँ हुई। 
 
दिल्ली में एक समय पर कोरोना की स्थिति ऐसी बिगड़ती नज़र आई थी। दिल्ली सरकार ने समय रहते अलार्म बेल बजाया, और केंद्र सरकार हरकत में आई। खु़द मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और स्वास्थ्य मंत्री से मदद माँगी और मामला क़ाबू में आता दिख रहा है।
 
लोकजनशक्ति पार्टी के नेता और लोकसभा सांसद चिराग पासवान ने ट्वीट पर केंद्र सरकार द्वारा टीम भेजने की पहल की सराहना की है। लेकिन बिहार सरकार की अपनी तरफ़ से ऐसी कोई पहल नहीं दिखी।
 
बिहार सरकार ने कोरोना की बिगड़ती हुई हालत से निपटने के एक बार फिर से लॉकडाउन लगाया है। उसका कितना फ़ायदा मिलेगा इसका पता कुछ समय बाद चलेगा।
 
लेकिन डॉक्टर दिवाकर का मानना है कि पिछले लॉकडाउन का सही इस्तेमाल ना तो सरकार ने किया और ना ही जनता ने। डॉक्टर दिवाकर कहते हैं कि अभी तक बिहार में प्राइवेट अस्पतालों में के लिए कोई टेस्टिंग प्रोटोकॉल सरकार की तरफ़ से जारी नहीं किया गया है।
 
इतना ही नहीं पटना में केवल दो अस्पतालों को ही कोविड19 अस्पताल बनाया गया है। इसके अलावा दो अस्पतालों को आइसोलेशन सेंटर बनाया गया है। नतीजा ये कि बाक़ी ज़िलों से ज़्यादातर मरीज़ों को पटना रेफ़र किया जा रहा है और प्राइवेट अस्पतालों ने इलाज के लिए हाथ खड़े कर दिए हैं, उनका बोझ भी इन्ही अस्पतालों पर पड़ रहा है।
 
दिल्ली या बाक़ी राज्यों में प्राइवेट अस्पतालों को कोविड से लड़ने के लिए जिस तरह से तैयार रहने के आदेश राज्य सरकार से मिले हैं, वैसे आदेश बिहार सरकार की तरफ़ से जारी नहीं किए गए हैं। 
 
बिहार का हेल्थ केयर सिस्टम
बिहार सरकार अपने विज्ञापनों और ट्वीट में राज्य के बेहतर रिकवरी रेट का हवाला देती आई है। बिहार में फ़िलहाल रिकवरी रेट 62।9 फीसदी है। लेकिन जानकारों की मानें, तो रिकवरी रेट कोरोना की सही तस्वीर पेश नहीं करते।
 
आईएमए बिहार के सचिव सुनील कहते हैं कि बिहार में हेल्थ केयर सिस्टम की खस्ता हालत ही बिहार के कोरोना विस्फोट के लिए ज़िम्मेदार है।
 
बीबीसी से फ़ोन पर बातचीत में डॉक्टर सुनील कहते हैं, "नालंदा मेडिकल कॉलेज पटना में कोविड अस्पताल है। वहाँ एनेस्थेसिया विभाग में 25 सीनियर रेजिडेंट्स का पद हैं। उनमें से एक भी पद पर आज की तारीख़ में डॉक्टर नहीं हैं। 60 साल की उम्र से अधिक दो डॉक्टरों और 5 जूनियर रेजिडेंट डॉक्टरों की मदद से आज किसी तरह से काम चल रहा है।" 
 
डॉक्टर सुनील कहते हैं कि यही हाल ज़्यादातर मेडिकल कॉलेज का है। जब फ्रंटलाइन वर्कर ही नहीं होंगे तो कोरोना से निपटेगा कौन? 
 
आईएमए के अनुमान के मुताबिक़ बिहार में सभी मेडिकल कॉलेजों को मिला कर 3000 पद ख़ाली हैं। उनके मुताबिक़ आईएमए ने राज्य सरकार में मुख्यमंत्री से लेकर स्वास्थ्य सचिव तक सभी को तुरंत रिक्त पदों पर नियुक्ति के बारे में कई पत्र लिखे हैं लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। इसी तरह से मरीज़ और डॉक्टर अनुपात, मरीज़ और अस्पताल में बेड के अनुपात में भी बिहार देश के सबसे पिछले राज्यों में से एक हैं। 
 
कोरोना और राजनीति 
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं कि कोरोना के लिए बिहार सरकार की तैयारी वैसी ही थी, जैसी किसी को अपने दुश्मन के ख़िलाफ़ बिना हथियार के जंग लड़ने के लिए उतार दिया जाए। 
 
राज्य सरकार ने कोरोना के कार्यकाल में स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव का ही तबादला कर दिया। इसके पीछे कई वजहें गिनाई गईं लेकिन महामारी के बीच में ऐसा करने पर विपक्ष को राजनीति का हथियार मिल गया। 
 
मणिकांत आगे कहते हैं, "जैसे बाक़ी प्रदेशों के मुख्यमंत्री चाहे वो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे हों, या फिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हों या फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सभी समय समय पर कोरोना काल में हरकत में नज़र आए। दूसरे मुख्यमंत्रियों की तुलना में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कम एक्टिव दिखे। विपक्ष हमेशा नीतीश कुमार के क्वारंटीन में होने की बात ही करता रहा।" 
 
हालाँकि नीतीश कुमार पाटलिपुत्र स्पोर्टस सेंटर में बने कोविड केयर में मुआयना करने गए थे, लेकिन ज़्यादातर वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग से ही स्थिति पर नज़र रखते रहे। 
 
मणिकांत ठाकुर के मुताबिक़ कुछ राज्यों ने कोरोना में आने वाले दिनों  में हालात कितने बद से बदतर होने वाले हैं इसके लिए टास्क फोर्स बनाया लेकिन बिहार सरकार ने ऐसी कोई पहल नहीं की। 
 
ये भी वजह थी कि सरकार के पास एक्सपर्ट नहीं थे जो उन्हें सही समय पर सही सलाह दे पाते। उनका मानना है कि राज्य सरकार में ज़्यादातर फ़ैसले नौकरशाहों ने किए बीमारी के जानकार डॉक्टरों ने नहीं। 
 
वो मानते हैं कि राज्य सरकार ने प्रवासी मज़दूरों पर भी निर्णय देर से लिया। लेकिन वो साथ में ये भी जोड़ते हैं कि उसमें नीतीश सरकार की ज्यादा ग़लती नहीं थी, क्योंकि उन्होंने केंद्र के प्रोटोकॉल को ही फोलो किया था।
 
इतना ज़रूर है कि प्रवासी मज़दूरों को ठीक से संभाल पाने में सरकार क़ामयाब नहीं रही। क्वारंटीन सेंटर में ना तो खाने की व्यवस्था अच्छी ना रहने की ना शौचालय की। इनकी हालत की और भ्रष्टाचार की भी ख़बरें सबने देखी ही है। इसलिए सबसे पहले क्वारंटीन सेंटर भी बिहार में ही बंद किया गया। 
 
जनता बेफ़िक्र
 
फ़िलहाल बिहार में कोरोना से मरने वालों का आँकड़ा दूसरे बड़े राज्यों के मुक़ाबले कम है। विपक्ष सरकार पर वर्चुअल रैली में व्यस्त रहने का आरोप लगा रही है लेकिन चौक चौराहों से जो तस्वीरें आ रही हैं वो अपने आप मे डराने वाली है। 
 
डॉक्टर दिवाकर की मानें, तो पूरा दोष सरकार पर मढ़ देना भी सही नहीं है। बिहार में जगह-जगह कोरोना के लक्षण और बचाव के बारे में पोस्टर लगे हैं। बावजूद इसके किसी भी चौक चौराहे पर इसका पालन करते आपको लोग नहीं दिखेगें। 
 
जब मोबाइल फ़ोन पर आपको इसके बारे में बताया जा रहा है, टीवी पर हर घंटे कई बार विज्ञापन दिखाया जा रहा है, फिर भी लोग ना तो मास्क पहनने को राज़ी है और ना ही सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे हैं।
 
बिहार में नेता प्रतिपक्ष ने ट्विटर पर एक वीडियो पोस्ट किया है, जिसमें जाँच के लिए अस्पताल में खड़े लोग एक दूसरे के साथ पीठ से पीठ सटाए खड़े नज़र आ रहे हैं। 
 
डॉक्टर दिवाकर कहते हैं कि इसके लिए सरकार को नहीं जनता को दोषी मानना चाहिए। जब तक लोगों में कोरोना से भय नहीं होगा और बचाव के लिए ख़ुद लोग सजग नहीं होंगे, प्रशासन के सारे उपाय धरे के धरे रह जाएँगे। 
 
तो बिहार को क्या करना होगा?
इसका जवाब लैंसेट की रिपोर्ट में है। इस रिपोर्ट को लिखने वाले राजीब आचार्य ने बीबीसी से बात की।
 
राजीब पॉपुलेशन काउंसिल ऑफ इंडिया के साथ जुड़े हैं। उनके मुताबिक बिहार को हेल्थ सिस्टम पर ज्यादा ख़र्च करने की ज़रूरत है और वो भी ज़िला स्तर पर।
 
इसके अलावा लोगों की समाजिक और आर्थिक स्थिति पर ध्यान देने की ज़रूरत है ताकि घरों में पानी, टॉयलेट जैसी बुनियादी सुविधाएँ लोगों को मिल सके।
 
इसके अलावा बिहार में ग़रीब लोगों की संख्या बहुत ज़्यादा है। कोरोना की स्थिति से कैसे निबटेंगे, ये राज्य सरकार को सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि उनका इलाज कैसे होगा और ख़र्च कैसे चलेगा।
 
ज़ाहिर है ये सभी चीज़ें रातों रात नहीं होंगी। लेकिन पाँच महीने में भी बिहार सरकार ने इस दिशा में क्या किया, ये अब सोचने का सही वक़्त है। 
 
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