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Last Modified: गुरुवार, 8 अगस्त 2019 (12:38 IST)

अनुच्छेद 370 में कांग्रेस ने भी लगाई थीं कई सेंध

अनुच्छेद 370 में कांग्रेस ने भी लगाई थीं कई सेंध - congress also changed dhara 370
विनीत खरे, बीबीसी संवाददाता
नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने जम्मू-कश्मीर राज्य से अनुच्छेद 370 के तहत विशेष राज्य का दर्जा ख़त्म कर दिया है। लेकिन अनुच्छेद 370 में बदलाव या उससे छेड़छाड़ का इतिहास पुराना है और इसके लिए पूर्व की कांग्रेस सरकारें भी ज़िम्मेदार रही हैं। लेकिन इस धारा के पीछे की कहानी क्या है और ये इतना विवादास्पद क्यों है? इसके लिए हमें इतिहास में थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा, यानी भारत की आज़ादी और विभाजन से पहले की स्थिति।
 
जम्मू-कश्मीर राज्य में डोगरा वंश : साल 1809 में गुलाब सिंह महाराजा रंजीत सिंह की सेना में शामिल हुए थे और साल 1822 में उन्हें पुरस्कार के तौर पर जम्मू का राजा बनाया गया था। जम्मू के डोगरा राजा महाराज गुलाब सिंह ने मार्च 1846 में अमृतसर संधि के अंतर्गत कश्मीर घाटी को 75 लाख रुपए में अंग्रेज़ सरकार से ख़रीद लिया। ये जम्मू-कश्मीर में डोगरा वंश की शुरुआत थी।
 
अंग्रेज़ों के साथ गुलाब सिंह ने जिस अमृतसर संधि पर हस्ताक्षर किए थे, उसमें कहा गया कि ब्रितानी सरकार ने ये "हस्तांतरण हमेशा के लिए महाराज गुलाब सिंह और उनके पुरुष उत्तराधिकारी के स्वतंत्र कब्ज़े में दे दिया है।"
 
साल 1925 में हरि सिंह को जम्मू और कश्मीर का राजा बनाया गया लेकिन जल्दी ही नए राजा के लिए चुनौतियां शुरू हो गईं। हरि सिंह हिंदू थे और उनके राज्य में रहने वाले ज़्यादातर लोग मुसलमान। स्थानीय कश्मीरी मुसलमानों को लगता था कि महाराजा और उनकी नीतियां उनके विरुद्ध हैं।
 
इतिहासकार एलेस्टेर लैंब अपनी किताब 'कश्मीर-ए डिस्प्यूटेड लेगसी' में लिखते हैं, "राज्य में ज़िंदगी के हर पहलू में मुसलमान बहुसंख्यक आबादी के खिलाफ़ भेदभाव था। क़ानून हिंदुओं के पक्ष को देखकर बनाए जाते थे। जैसे साल 1934 तक, गोहत्या पर प्रतिबंध था और उसके बाद भी ये जारी रहा।"
 
लैंब लिखते हैं, "प्रशासन के हर स्तर पर कश्मीरी ब्राह्मणों का वर्चस्व था जो कि भ्रष्ट और लालची थे। शिक्षा व्यवस्था में मुसलमानों की स्थित बेहद ख़राब थी... कश्मीर घाटी में सिर्फ़ हिंदुओं को हथियारों के लाइसेंस का अधिकार था। मुसलमानों को राज्य की सशस्त्र सेनाओं से दूर रखा जाता था, जहां डोगरा राजपूतों के लिए उच्च पद आरक्षित थे।"
 
इस बीच शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की पार्टी मुस्लिम कॉन्फ़्रेंस (बाद में नेशनल कॉन्फ़्रेंस) का जन्म हुआ और महाराजा हरि सिंह के ख़िलाफ़ कश्मीर छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की। साल 1846 की अमृतसर संधि के 100 साल पूरे हो चुके थे और शेख अब्दुल्ला ने घोषणा की थी कि कश्मीर घाटी को गुलाब सिंह के हवाले करना एक ग़लत क़दम था और डोगरा वंश को तुरंत कश्मीर छोड़ देना चाहिए।
 
15 अगस्त 1947 को इंडियन इंडिपेंडेंस ऐक्ट 1947 के तहत भारत आज़ाद हुआ और उसके दो टुकड़े हुए- भारत और पाकिस्तान। अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' में 'नैल्सर युनिवर्सिटी ऑफ़ लॉ' में कुलपति फ़ैज़ान मुस्तफ़ा लिखते हैं कि इंडियन इंडिपेंडेंस ऐक्ट 1947 के तहत भारत और पाकिस्तान में शामिल होने के लिए किसी भी शाही राज्य या प्रिंसली स्टेट को 'इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन' के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने थे।
 
भारत और पाकिस्तान में शामिल होने पर ये राज्य ये भी बता सकते थे कि वो किस आधार पर भारत और पाकिस्तान का हिस्सा बन रहे हैं। फ़ैज़ान लिखते हैं, "ये संधि ऐसी थी जैसे दो स्वायत्त देश साथ काम करने के लिए हस्ताक्षर कर रहे हैं।"
 
भारत के शाही राज्यों या प्रिंसली स्टेट्स को तीन विकल्प दिए गए- या तो वो आज़ाद रहें, या वो भारत में शामिल हों या फिर पाकिस्तान में। 'कश्मीर इन कॉनफ़्लिक्ट' की लेखक विक्टोरिया शोफ़ील्ड के मुताबिक़ उस वक़्त भारत में 565 रियासतें थीं, वो भारत के 40 प्रतिशत इलाक़े में फैली हुई थीं और उन इलाक़ों के रहने वाले लोगों की संख्या क़रीब 10 करोड़ के आसपास थी।
 
सभी राज्यों ने फ़ैसला कर किया, सिवाय तीन को छोड़कर - जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर। महाराज हरि सिंह ने भारत या पाकिस्तान, किसी के भी पक्ष में हस्ताक्षर नहीं किए थे। एक सोच थी कि शायद वो जम्मू और कश्मीर को आज़ाद रखने के पक्ष में थे।
 
ऐसे माहौल में महाराजा हरि सिंह ने पाकिस्तान के साथ एक 'स्टैंडस्टिल समझौते' पर हस्ताक्षर किए 'ताकि व्यापार, यात्रा, आवागमन आदि बिना रुकावट जारी रहें।' भारत ने ऐसे किसी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए।
 
अनुमानित नक्शा
'इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन दस्तावेज़' : अक्टूबर 1947 में परिस्थितियों में बदलाव आया जब पाकिस्तान की ओर से हथियारबंद पश्तून क़बायलियों ने कश्मीर पर हमला बोल दिया। पाकिस्तान के एक हिस्से में सोच थी कि वहां की मुसलमान आबादी महाराजा हरि सिंह के विरोध में उठ खड़ी होगी। महाराजा हरि सिंह के लिए ये चुनौती की घड़ी थी। एक तरफ़ बिगड़ती क़ानून व्यवस्था और दूसरी तरफ़ क़बायली घुसपैठियों की ओर से हमला।
 
अब वो करें तो क्या करें? : उन्होंने उस वक़्त भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन से संपर्क किया और भारत से मदद मांगी। मदद का आधार बनाने के लिए 'इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ ऐक्सेशन' दस्तावेज़ यानी भारत में आने से जुड़े दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर हुए जिसे गवर्नर जनरल ने स्वीकार कर लिया।
 
इस दस्तावेज़ के आधार पर रक्षा, विदेश विभाग और संचार व्यवस्था पर क़ानूनी अधिकार भारत को हस्तांतरित हुआ जबकि बाकी के विभाग जम्मू और कश्मीर राज्य के पास रहे, जहां जम्मू और कश्मीर संवैधानिक क़ानून लागू था।
 
इस दस्तावेज़ के क्लॉज़ 5 में लिखा था कि इस इंस्ट्रुमेंट ऑफ़ ऐक्सेशन के दस्तावेज में दी गई शर्तों पर 1935 के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया क़ानून में या इंडियन इंडिपेंडेंस क़ानून, 1947, में किसी बदलाव का कोई असर उस वक़्त तक नहीं पड़ेगा जब तक उसे ख़ुद हरि सिंह उस बदलाव को स्वीकार करें।
 
क्लॉज़ 7 में लिखा गया कि 'इंस्ट्रुमेंट ऑफ़ एक्सेशन' दस्तावेज़ में दर्ज "कोई भी बात किसी भी प्रकार से भारत के किसी भावी संविधान की स्वीकृति को लेकर मेरी प्रतिबद्धता नहीं दर्शाती। ना ही भविष्य में ऐसे किसी संविधान के तहत भारत सरकार के साथ समझौता करने के मेरे अधिकार पर रोक लगाती है।"
 
फ़ैजान मुस्तफ़ा लिखते हैं कि अनुच्छेद 370 "इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन में दी गई इन्हीं शर्तों की संवैधानिक पहचान थी।" अनुच्छेद 370 में एक शर्त ये थी कि राज्य में किसी भी बदलाव के लिए संविधान सभा की सहमति ज़रूरी थी।
 
पूर्व बीबीसी भारत संवाददाता और कश्मीर पर किताब लिख चुके ऐंड्र्यू व्हाइटहेड के मुताबिक़ कई कश्मीरियों के लिए भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 वो आधार था जिस पर जम्मू-कश्मीर साल 1947 में भारत का हिस्सा बना
 
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 के ऊपर शीर्षक है- राज्य-जम्मू और कश्मीर से जुड़ी अस्थायी व्यवस्था। हालांकि महाराजा हरि सिंह ने भारत से विलय से जुड़े दस्तावेज़ पर कब हस्ताक्षर किए, इस पर सवाल उठाए जाते रहे हैं।
 
पाकिस्तान का दावा है कि महाराजा हरि सिंह पर दबाव डाला गया और ऐसे वक़्त जब उन्होंने पाकिस्तान के साथ स्टैंडस्टिल संधि पर हस्ताक्षर किए थे, उनके पास भारत के साथ हस्ताक्षर करने का कोई अधिकार नहीं था।
 
जनमत संग्रह : जनवरी 1948 में भारत कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र ले गया जहां जनमत संग्रह की बात उठी। संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता के कारण जम्मू और कश्मीर पर दोनों पक्षों का जिन इलाक़ों पर कंट्रोल था, वो कंट्रोल जारी रहा।
 
जुलाई 1949 में महाराजा हरि सिंह ने अपने बेटे कर्ण सिंह को गद्दी दे दी तो दूसरी ओर शेख अब्दुला और उनके साथी भारतीय संविधान सभा में उस वक़्त शामिल हुए जब भारतीय संविधान को तैयार करने का काम जारी था। साल 1950 में भारतीय संविधान प्रभाव में आया और धारा 370 में जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा दिया गया।
 
भारतीय संविधान सभा में बहस के दौरान जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने पर जब सवाल उठे तो सदस्य एन गोपालास्वामी अयंगर ने कहा, "भारत सरकार ने कश्मीर के लोगों से कुछ मामलों पर वायदा किया है। उन्हें वायदा किया गया है कि ये मौक़ा दिया जाएगा कि वो रिपब्लिक (भारत) के साथ रहना चाहते हैं या बाहर जाना चाहते हैं। लोगों की सोच जानने के लिए हम जनमत संग्रह करवाने के लिए कटिबद्ध हैं, लेकिन उससे पहले वहां शांतिपूर्ण और हालात वापस लाए जाएं और निष्पक्ष जनमत संग्रह की गारंटी हो।"
 
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी जनमत संग्रह को लेकर अपनी प्रतिबद्धता जताई थी। हालांकि जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कभी नहीं हुआ। इस पर भारत और पाकिस्तान दोनो देशों के अपने-अपने तर्क हैं।
 
उधर जम्मू-कश्मीर में भी संविधान सभा की बैठक हुई और भारत के साथ जम्मू-कश्मीर के रिश्तों पर साल 1952 में 'दिल्ली समझौते' पर सहमति बनी। इस 'दिल्ली समझौते' में कहा गया कि केंद्र सरकार राज्य के अलग झंडे पर सहमत है और ये झंडा भारतीय झंडे का प्रतिद्वंदी नहीं होगा।
 
इसके अलावा इस 'दिल्ली समझौते' में सदर-ए-रियासत के ओहदे और राज्य में सुप्रीम कोर्ट के पास अपील संबंधी अधिकार का भी ज़िक्र है। पूर्व बीबीसी भारत संवाददाता ऐंड्र्यू व्हाइटहेड के मुताबिक, "भारत की भाजपा सरकार ने एकतरफ़ा फ़ैसले में जम्मू-कश्मीर को दिए गए विशेष राज्य के दर्जे के ख़त्म कर दिया है जो कि 1950 के दशक के बाद से ये कश्मीर के संवैधानिक दर्जे में ये सबसे बड़ा बदलाव है।"
 
अनुच्छेद 370 में संशोधन : ऐंड्र्यू व्हाइटहेड के अनुसार मोदी सरकार के ताज़ा फ़ैसले से व्यावहारिक तौर पर बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ता है क्योंकि पिछले कई दशकों में अनुच्छेद 370 को कमज़ोर किया जा चुका है। वो कहते हैं, "जम्मू-कश्मीर का अपना संविधान है, अपना झंडा है लेकिन किसी अन्य भारतीय राज्य से ज़्यादा स्वायत्तता नहीं थी।"
 
ऐंड्र्यू व्हाइटहेड के मुताबिक़ अनुच्छेद 370 से जुड़ी एक धारा यानी 35ए के मुताबिक़ बाहरी लोगों का राज्य में प्रॉपर्टी ख़रीदने पर प्रतिबंध था। इसके ख़त्म होने के बाद कश्मीर घाटी के आम लोगों में जनसंख्या के स्वरूप में बदलाव को लेकर डर बढ़ेगा।
 
सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील और संवैधानिक मामलों के जानकार राकेश द्विवेदी बताते हैं कि कांग्रेस के राज में अनुच्छेद 370 में कई संशोधन हुए और संशोधन के लिए सबसे बड़ा आदेश था 1954 का राष्ट्रपति का आदेश। 1954 के राष्ट्रपति आदेश के बाद यूनियन लिस्ट में दिए गए लगभग सभी विषयों पर क़ानून बनाने के भारतीय संसद के अधिकार को जम्मू-कश्मीर में लागू कर दिया गया।
 
सत्ता में भागीदारी के अंतर्गत भारतीय संविधान में तीन सूचियां हैं - यूनियन लिस्ट, स्टेट लिस्ट और कॉनकरेंट लिस्ट। यूनियन लिस्ट यानी वो विषय जिन पर संसद को क़ानून बनाने का अधिकार है, स्टेट लिस्ट यानी वो विषय जिन पर राज्य को क़ानून बनाने का अधिकार है और कॉनकरेंट लिस्ट यानी वो विषय जिन पर दोनों राज्य और केंद्र सरकार को क़ानून का अधिकार है।
 
यूनियन लिस्ट में 97 विषय होते हैं। इस राष्ट्रपति आदेश को राज्य विधानसभा ने पास कर दिया था। 1954 के इसी राष्ट्रपति आदेश से धारा 35ए प्रभाव में आई थी, जिसमें राज्य में रहने वाले स्थायी नागरिकों को विशेषाधिकार देने की बात की गई थी।
 
वकील राकेश द्विवेदी कहते हैं, "भारतीय संविधान में 395 धाराएं हैं। इनमें से 260 को जम्मू और कश्मीर में लागू हैं। पहले जम्मू और कश्मीर में प्रधानमंत्री और सदर-ए-रियासत होते थे। इंदिरा गांधी के काल में इसे मुख्यमंत्री और गवर्नर में तब्दील कर दिया गया। सदर-ए-रियासत को चुना जाता था, जिसका अनुमोदन भारतीय राष्ट्रपति करते थे। अब बाकी राज्यों की तरह जम्मू-कश्मीर में भी गवर्नर को नामांकित किया जाता है।"
 
'द इकोनॉमिक टाइम्स' अख़बार में छपे एक कॉलम में राकेश द्विवेदी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के एक भाषण का जिक्र किया है। उस भाषण में नेहरू कहते हैं, "अनुच्छेद 370 संविधान का स्थायी हिस्सा नहीं है। ये जब तक है तब तक है। दरअसल जैसा कि गृहमंत्री ने कहा है, इसका प्रभाव कम हो चुका है... हमें लगता है कि अनुच्छेद 370 का प्रभाव धीरे-धीरे कम हो रहा है। हमें इसे जारी रखना चाहिए। वो प्रक्रिया जारी है।"
 
राकेश द्विवेदी ने तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा के दिसंबर 1964 के भाषण का भी ज़िक्र किया, जिसमें उन्होंने अनुच्छेद 370 को एक सुरंग बताया "जिसमें से ढेर सारा ट्रैफ़िक निकल चुका है और निकलेगा।" माना जा रहा है कि इसे देश की उच्चतम न्यायालय में भी चुनौती दी जा सकती है। 
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