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Written By BBC Hindi
Last Modified: मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022 (07:39 IST)

बजट 2022-23: इकोनॉमी में संतुलन बनाने वाले क़दम उठाने की ज़रूरत

बजट 2022-23: इकोनॉमी में संतुलन बनाने वाले क़दम उठाने की ज़रूरत - budget expectation 2022-23
अर्चना शुक्ला, बीबीसी न्यूज़ 
"स्टील प्लेटों को बर्बाद मत करो, अब हम और नुक़सान झेलने की हालत में नहीं हैं," यह कहना है सतनाम सिंह मक्कड़ का। वे ये बात स्टील प्लेटों से साइकिल के छोटे पुर्ज़े बना रहे अपने कामगारों से कह रहे थे।
 
पंजाब के लुधियाना शहर के उनके कारखाने का उत्पादन कोरोना महामारी के समय से 50 फ़ीसदी गिर चुका है। स्टील और अन्य कच्चे माल के दाम में हुए उतार-चढ़ाव का भी उनके लाभ पर असर पड़ा है।
 
वे कहते हैं, ''कोरोना लॉकडाउन के दौरान मेरे कई प्रवासी कामगार घर लौट गए और उसके बाद कुछ ही लौटे हैं। चूंकि इस वक़्त मांग ज़्यादा नहीं है, इसलिए हमारा उत्पादन भी नहीं बढ़ा। हमें उम्मीद है कि इस बार के बजट में छोटे कारोबारों के लिए कुछ प्रावधान किए जाएंगे।"
 
वैसे तो आंकड़ों में, भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर काफ़ी अच्छी दिख रही है। लेकिन मक्कड़ जैसे कारोबारियों के छोटे कारोबार और देश के कार्यबल के ज़्यादातर लोगों को काम देने वाला असंगठित क्षेत्र अभी भी बेहतर हालत में नहीं पहुंचा है।
 
इस वजह से भारत की मौजूदा रिकवरी को 'के आकार' का बताया जा रहा है। इसका मतलब यह हुआ कि एक ओर अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्र तेज़ी से बढ़ रहे हैं, वहीं कई क्षेत्रों को आगे बढ़ने के लिए जूझना पड़ रहा है। इस तरह के विकास को अच्छा नहीं माना जाता।
 
महामारी से सबसे ज़्यादा प्रभावित शहरों के ग़रीब और छोटे कारोबारी अभी भी लॉकडाउन के बुरे असर और अन्य झटकों से जूझ रहे हैं। दूसरी ओर, संपन्न तबकों की रूकी हुई मांग के फिर से बहाल होने के कारण औपचारिक क्षेत्र तेज़ी से बढ़ रहे हैं। इससे अर्थव्यवस्था में असमानता तेज़ी से बढ़ रही है।
 
इसलिए केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण जब 1 फ़रवरी को वित्त वर्ष 2022-23 का बजट पेश करेंगी तो उनसे उम्मीद होगी कि वे अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के बीच पनपे इस असंतुलन को दूर करने वाले फ़ैसले लेंगी।
 
साथ ही, उनसे ऐसे रोडमैप के एलान की अपेक्षा होगी जिससे अर्थव्यवस्था की रिकवरी की रफ़्तार और तेज़ हो। लेकिन वे इसके लिए कौन से क़दम उठाती हैं, इसे देखना अहम होगा।
 
चुनावी बजट का अनुमान
यह जानना ज़रूरी है कि वित्त मंत्री जब यह बजट पेश करेंगी, उसके 10 दिन बाद देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए वोट डालने की शुरुआत हो जाएगी। उत्तर प्रदेश के अलावा देश के चार और राज्यों में भी इसी महीने विभिन्न तारीख़ों पर वोट डाले जाएंगे। इनमें पंजाब जैसा राजनीतिक रूप से अहम राज्य भी शामिल है।
 
इस वजह से जानकारों का मानना है कि देश के मुश्किल वित्तीय हालात के बावजूद स्वास्थ्य, स्वच्छ पानी, आवास जैसी कल्याणकारी योजनाओं पर सरकार का ख़र्च बढ़ने की उम्मीद है। देश के कमज़ोर लोगों को सीधी मदद देने के लिए नक़दी उपायों का भी एलान हो सकता है।
 
कोरोना का असर उम्मीद से काफ़ी लंबा खींच गया है। देश और दुनिया में अभी भी ओमिक्रॉन वेरिएंट की लहर चल रही है। ऐसे में स्वास्थ्य क्षेत्र के बुनियादी ढांचे को और मज़बूत बनाने के लिए इस क्षेत्र का बजट आवंटन बढ़ाया जा सकता है।
 
किसान आंदोलन और कोरोना के चलते खेती और गांव की समस्याएं पिछले कई महीनों से काफ़ी चर्चा में हैं। ऐसे में चुनावों के ठीक पहले सरकार कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए कई लोकलुभावन एलान करे, तो कोई अचरज की बात नहीं होगी।
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने पर बार-बार ज़ोर देते रहे हैं। उस लक्ष्य को पाने के लिए फ़सल विविधिकरण, सब्सिडी और बाजार तक सीधी पहुंच बनाने के लिए प्रयास करने की ज़रूरत बताई गई थी।
 
लेकिन उस एलान के पांच साल बाद खेती की लागत दोगुनी हो गई है। इससे किसानों की आय बढ़ने की बजाय घट गई है। ऐसे में किसानों की चिंता है कि क्या इस साल के बजट में खेती को लेकर कोई ठोस पहल होती है या नहीं।
 
लुधियाना के गेहूं पैदा करने वाले एक किसान अमरीक सिंह ने इस बारे में बीबीसी से कहा, "योजनाओं की घोषणा तो बड़ी धूमधाम से होती है, लेकिन किसानों तक ठीक से पहुंच नहीं पाती। किसानों को खेती के लिए ज़रूरी संसाधन वक़्त पर मिलने चाहिए। हमें गेहूं बोते वक़्त जब उर्वरक चाहिए था, तब वह मिल नहीं पाया। इससे पूरा फ़सल चक्र ​मुश्किल में पड़ जाता है।"
 
ऐसे में अभी होने वाले चुनावों से पहले क़रीब साल भर तक आंदोलन करने वाले किसानों के भरोसे को जीतना सरकार के लिए बहुत अहम है।
 
इंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च स्कीम्स के अनुसार, 'प्रधानमंत्री-किसान योजना' और मनरेगा जैसी योजनाओं से गांवों के कमज़ोर तबकों के बड़े हिस्से को अच्छा सहारा मिला है। उम्मीद की जाती है कि ऐसी योजनाएं न केवल जारी रहेंगी, बल्कि बजट आवंटन बढ़ाकर इसका विस्तार भी किया जाएगा।
 
छोटे कारोबार और नौकरियों को मिलेगी संजीवनी?
कोरोना के चलते आई मंदी से देश में हर जगह नौकरियां कम हुई हैं। ख़ासकर कुशल कामगारों का रोजगार छिना है। हाल में बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में रेलवे की परीक्षाओं के ख़िलाफ़ छात्रों के विरोध ने देश में बढ़ती बेरोज़गारी की समस्या को सामने ला दिया है।
 
सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) का आकलन है कि बेरोज़गारी बढ़ने से देश के श्रम बाज़ार में भागीदारी में​ गिरावट आई है। दिसंबर 2016 में रोज़गार दर 43 फ़ीसदी थी, जो दिसंबर 2021 में केवल 37 फ़ीसदी रह गई।
 
वहीं कृषि में काम करने वाले लोगों की भागीदारी और मनरेगा की मांग में तेज़ बढ़ोतरी देखी गई है। इसे देश में बेरोज़गारी बढ़ने का असर माना जा रहा है।
 
इसलिए जानकारों का मानना है कि इस बजट में गांवों के बुनियादी ढांचे के विकास पर ज़ोर दिया जाएगा। वैसे बुनियादी ढांचों को भी तरजीह मिल सकती है, जो जल्दी पूरा होने के साथ ही ज़्यादा लोगों को रोज़गार भी दे सकता हो।
 
देश के छोटे उद्योग रोज़गार के लिहाज़ से काफ़ी अहम हैं। देश के ज़्यादातर अनौपचारिक श्रमिक इसी से जुड़े होते हैं। इसलिए नौकरियों को बढ़ाने के लिए छोट उद्योगों को महत्व देने की उम्मीद की जाती है।
 
मैसाचुसेट्स यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र की प्रोफ़ेसर जयती घोष का मानना कि सरकार ने कोरोना से बुरी तरह प्रभावित होने के बाद भी एमएसएमई क्षेत्र पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। इसलिए उम्मीद है कि सरकार इन क्षेत्र के उद्यमों पर पहले से ज़्यादा ध्यान देगी।
 
उन्होंने बीबीसी को बताया कि छोटे उद्योगों को फिर से ज़िंदा करने के लिए सप्लाई ठीक करने की बजाय मांग बढ़ाने पर ज़ोर देना होगा क्योंकि लोगों के हाथों में ख़र्च करने के लिए पैसे नहीं हैं। इसलिए सरकार को लोगों के हाथों में पैसा देना होगा।
 
वहीं भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने पिछले हफ़्ते एक अख़बार को दिए इंटरव्यू में कहा, "यह तय करना बहुत ज़रूरी है कि सरकार जो कर सकती है, क्या वो कर रही है। सरकार के लिए निचले स्तर की नौकरियां पैदा करने की सख़्त ज़रूरत है। इससे स्टील, तांबा, सीमेंट आदि की मांग भी पैदा होगी।''
 
महंगाई और राजकोषीय सेहत
देश में कोरोना महामारी को आए दो साल बीत चुके हैं और तब कपड़ा जैसे कुछ क्षेत्रों में मांग धीरे-धीरे लौट रही है। लेकिन इस रिकवरी को अब बढ़ती महंगाई से ख़तरा महसूस हो रहा है।
 
हाल के दिनों में ईंधन के साथ खाने-पीने और उद्योगों में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल के दाम तेज़ी से बढ़े हैं। इससे देश की ज़्यादातर आबादी ख़ास तौर पर निचले तबके के लोग प्रभावित हुए हैं। मौजूदा चुनावों में यह मुद्दा भी बन रहा है।
 
इसलिए जानकारों को लगता है कि इस बजट में केंद्रीय वित्त मंत्री महंगाई पर लगाम लगाने वाले उपायों का एलान कर सकती हैं।
 
बजट से लगाई गई इन तमाम उम्मीदों को पूरा करने की राह में सरकार की आमदनी सबसे बड़ा रोड़ा है। कोरोना के दौर में करों से होने वाली आय पर बहुत बुरा असर हुआ है। ज़ाहिर है ऐसे हालात में सरकार के हाथ बंधे होंगे। य​दि सरकार ज़्यादा कर्ज़ लेकर ख़र्च बढ़ाने की कोशिश करेगी तो देश का राजकोषीय संतुलन गड़बड़ा सकता है।
 
इस बारे में, बैंक ऑफ़ बड़ौदा के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस कहते हैं कि इस बजट में सरकार की दुविधा विकास बढ़ाने के साथ राजकोषीय मज़बूती को भी हासिल करना है। वे कहते हैं कि ''यह स्थिति रस्सी पर चलने जैसी है'' यानी सरकार के लिए इन लक्ष्यों को हासिल करना कतई आसान नहीं है।
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