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श्री गंगा जी का पावन मंत्र और स्तुति 10 बार पढ़़कर देखिए, मैया का सुंदर स्वरूप आंखों के सामने आ जाएगा...

श्री गंगा जी का पावन मंत्र और स्तुति 10 बार पढ़़कर देखिए, मैया का सुंदर स्वरूप आंखों के सामने आ जाएगा... - Shri Ganga Stuti Mantra
भविष्य पुराण में लिखा हुआ है कि, जो मनुष्य इस दशहरा के दिन गंगा के पानी में खड़ा होकर 10 बार इस स्तुति को पढ़ता है चाहे वो दरिद्र हो, चाहे असमर्थ हो वह भी प्रयत्नपूर्वक गंगा की पूजा कर उस फल को पाता है। 
 
गंगा दशहरा के दिन स्नान करने की यही सबसे सरल और प्रामाणिक विधि है। 
 
 मां गंगा सब अवयवों से सुंदर, तीन नेत्रों वाली चतुर्भुजी, जिनकी चारों भुजा, रत्नकुंभ, श्वेतकमल, वरद और अभय से सुशोभित हैं, आप श्वेत वस्त्र धारण किए हैं। 
 
आप मुक्ता मणियों से विभूषित है, सौम्य है, अयुत चंद्रमाओं की प्रभा के समान सुख देने वाली हैं, जिस पर चामर डुलाए जा रहे हैं, श्वेत छत्र से भली भांति शोभित है, आप अत्यंत प्रसन्न हैं, वर देने वाली हैं, निरंतर करुणार्द्रचित्त है, भूपृष्ठ को अमृत से प्लावित कर रही हैं, दिव्य गंध लगाए हुए हैं, त्रिलोकी से पूजित हैं, सब देवों से अधिष्ठित हैं, दिव्य रत्नों से विभूषित हैं, दिव्य ही माल्य और अनुलेपन हैं, ऐसी गंगा मां के पानी में ध्यान करके भक्तिपूर्व मंत्र से अर्चना कर रहा/रही हूं । 
 
'ॐ नमो भगवति हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे माँ पावय पावय स्वाहा'

यह गंगाजी का सबसे पवित्र पावन मंत्र है।
 
इसका अर्थ है कि, हे भगवति गंगे! मुझे बार-बार मिल, पवित्र कर, पवित्र कर...  
 
इस मंत्र से गंगाजी के लिए पंचोपचार और पुष्पांजलि समर्पण करें। 
 
इस प्रकार गंगा का ध्यान और पूजन करके गंगा के पानी में खड़े होकर ॐ अद्य इत्यादि से संकल्प करें कि, ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से लेकर दशमी तक रोज-रोज एक बढ़ाते हुए सब पापों को नष्ट करने के लिए श्री गंगा स्तोत्र का जप करूंगा/ करूंगी। फिर स्तुति पढ़ना चाहिए। 
 
ईश्वर बोले कि, 
आनंदरूपिणी आनंद देने वाली गंगा के लिए बारंबार नमस्कार है।
विष्णुरूपिणी के लिए और तुझ ब्रह्म मूर्ति के लिए बारंबार नमस्कार है।। 1।। 
 
तुझ रुद्ररूपिणी के लिए और शांकरी के लिए बारंबार नमस्कार है, 
भेषज मूर्ति सब देव स्वरूपिणी तेरे लिए नमस्कार है।। 2।।
 
सब व्याधियों की सब श्रेष्ठ वैद्या तेरे लिए नमस्कार, 
स्थावर जंगमों के विषयों को हरण करने वाली आपको नमस्कार।। 3।। 
 
संसाररूपी विष के नाश करने वाली एवं संतप्तों को जिलाने वाली तुझ गंगा के लिए नमस्कार, 
 तीनों तापों को मिटाने वाली प्राणेशी तुझ गंगा को नमस्कार।। 4।। 
 
पावन मूर्ति तुझ गंगा के लिए नमस्कार, 
सबकी संशुद्धि करने वाली पापों को बैरी के समान नष्ट करने वाली तुझ...।। 5।। 
 
भुक्ति, मुक्ति, भद्र, भोग और उपभोगों को देने वाली भोगवती तुझ गंगा को।। 6।। 
 
तुझ मंदाकिनी के लिए दिव्य आशीष देने वाली के लिए बारंबार नमस्कार, 
तीनों लोकों की भूषण स्वरूपा तेरे लिए एवं तीन पंथों से जाने वाली के लिए बार-बार नमस्कार।
जगत् की धात्री के लिए नमस्कार।। 7।। 
 
तीन शुक्ल संस्थावाली को और क्षमावती को बारंबार नमस्कार 
तीन अग्नि की संस्थावाली तेजोवती के लिए नमस्कार है, 
लिंग धारणी नंदा के लिए नमस्कार तथा अमृत की धारारूपी आत्मा वाली के लिए नमस्कार 
कोई 'नारायण्यै नमोनम:' नारायणी के लिए नमस्कार है ऐसा पाठ करते हैं।। 8।। 
 
संसार में आप मुख्य हैं आपके लिए नमस्कार, रेवती रूप आपके लिए नमस्कार, 
तुझ बृहती के लिए नमस्कार एवं तुझ लोकधात्री के लिए नम: है।। 9।।
 
संसार की मित्ररूपा तेरे लिए नमस्कार, तुझ नंदिनी के लिए नमस्कार, 
पृथ्वी शिवामृता और सुवृषा के लिए नमस्कार।। 10।। 
 
पर और अपर शतों से आढया तुझ तारा को बार-बार नमस्कार है। 
फंदों के जालों को काटने वाली अभित्रा तुझको नमस्कार है।। 11।। 
 
शांता, वरिष्ठा और वरदा जो आप हैं आपके लिए नमस्कार, उत्रा, सुखजग्धी और संजीवनी आपके लिए नमस्कार।।12।। 
 
ब्रहिष्ठा, ब्रह्मदा और दुरितों को जानने वाली तुझको बार-बार नमस्कार।।13।। 
 
सब आपत्तियों को नाश करने वाली तुझ मंगला को नमस्कार।।14।। 
 
सबकी आर्तिको हरने वाली तुझ नारायणी देवी के लिए नमस्कार है। 
सबसे निर्लेप रहने वाली दुर्गों को मिटाने वाली तुझ दक्षा के लिए नमस्कार है।।15।। 
 
पर और अपर से भी जो पर है उस निर्वाण के लिए देने वाली गंगा के लिए प्रणाम है।
 हे गंगे! आप मेरे आगे रहें आप ही मेरे पीछे रहें।।16।।
 
मेरे अगल-बगल हे गंगे! तू ही रह हे गंगे! मेरी तेरे में ही स्थिति हो।
 हे गंगे! तू आदि मध्य और अंत सब में है। सर्वगत है तू ही आनंददायिनी है।।17।। 
 
तू ही मूल प्रकृति है, तू ही पर पुरुष है, हे गंगे ! तू परमात्मा शिवरूप है, हे शिवे! तेरे लिए नमस्कार है।।18।। 
 
जो कोई इस स्तोत्र को श्रद्धा के साथ पढ़ता या सुनता है वो वाणी शरीर और चित्त से होने वाले पापों से दस तरह से मुक्त होता है।।19।। 
 
रोगी, रोग से विपत्ति वाला विपत्तियों से, बंधन से और डर से डरा हुआ पुरुष छूट जाता है।। 20।। 
 
सब कामों को पाता है मरकर ब्रह्म में लय होता है। वो स्वर्ग में दिव्य विमान में बैठकर जाता है।। 21।।
 
जो इस स्तोत्र को लिखकर घर में रख छोड़ता है उसके घर में अग्नि और चोर से भय नहीं होता।। 22।। 
 
ज्येष्ठ शुक्ला हस्तसहित बुधवारी दशमी तीनों तरह के पापों को हरती है।। 23।। 
 
उस दशमी के दिन जो कोई गंगाजल में खड़ा होकर इस स्तोत्र को दस बार पढ़ता है जो दरिद्र हो या असमर्थ हो।। 24।। 
 
वो गंगाजी को प्रयत्नपूर्वक पूजता है तो उसे भी वही फल मिल जाता है जो कि पहले विधान से फल कहा है।। 25।।
 
 जैसी गौरी है वैसी ही गंगाजी है इस कारण गौरी के पूजन में जो विधि कही है वही विधि गंगा के पूजन में भी होती है।। 26।। 
 
जैसे शिव वैसे ही विष्णु और शिव में तथा श्री और गौरी में तथा गंगा और गौरी में जो भेद बताता है वो निरा मूर्ख है।। 28।। 
 
वो रौरवादिक घोर नरकों में पड़ता है। अदत्त का उपादान, अविधान की हिंसा।। 29।। 
 
दूसरे की स्त्री के साथ रमण, ये तीन (कायिक) शारीरिक पाप। पारुष्य, अनृत और चारों ओर की पिशुनता।। 30।। 
असंबद्ध प्रलाप ये चार तरह की वाणी। पाप; दूसरे के धन की चाह, मन से किसी का बुरा चिंतना।। 31।।
 
मिथ्‍या का अभिनिवेश ये तीन तरह का मन का पाप, इन दसों तरह के पापों को हे गंगे आप दूर कर दें। 32।। 
 
ये दस पापों को हरती है, इस कारण इसे दशहरा भी कहते हैं, कोटि जन्म के होने वाले इन दस तरह के पापों से।। 33।। 
छूट जाता है इसमें संदेह नहीं है। हे गदाधर! यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है ! 
यदि इस मंत्र से गंगा का पूजन करा दिया तो तीनों के दस, तीस और सौ पितरों को संसार से उबारती है।। 34।। 
, 'भगवती नारायणी दस पापों को हरने वाली शिवा गंगा विष्णु मुख्या पापनाशिनी रेवती भागीरथी के लिए नमस्कार है'। 
ज्येष्ठमास, शुक्ल पक्ष, दशमी तिथि, बुधवार हस्त नक्षत्र गर, आनंद व्यतिपात, ।।35।।
 
कन्या के चंद्र, वृष के रवि इन दशों के योग में जो मनुष्य गंगा स्नान करता है वो सब पापों से छूट जाता है।। 36।।
 
मैं उस गंगादेवी को प्रणाम करता हूं जो श्वेत मगर पर बैठी हुई श्वेतवर्ण की है तीनों नेत्रों वाली है, अपनी सुंदर चारों भुजाओं में कलश, खिला कमल, अभय और अभीष्ट लिए हुए हैं जो ब्रह्मा, विष्णु शिवरूप है चांदसमेद अग्र भाग से जुष्ट सफेद दुकूल पहने हुई जाह्नवी माता को मैं नमस्कार करता हूं।।37।। 
 
जो सबसे पहले तो ब्रह्माजी के कमण्डल में विराजती थी पीछे भगवान के चरणों का धोवन बनकर शिवजी की जटाओं में रह जटाओं का भूषण बनी पीछे जन्हु महर्षि की कन्या बनी, यही पापों को नष्ट करने वाली भगवती भागीरथी दिखती हैं।। 38।।
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