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Written By ND

'आओ बहन, निन्दा करें'

''आओ बहन, निन्दा करें'' -
- रश्मि मुकेश व्यास

वास्तविक तथ्यों में ढेरों मिर्च-मसाला लगाकर किसी की पीठ पीछे उसकी निंदा करना एक प्रकार का व्यसन है। जिसने एक बार इसका रसपान किया, वह इसका आदी हो जाता है। लेकिन अन्य व्यसनों की तरह यह व्यसन भी नुकसानदायक सिद्ध होता है। जिसकी निंदा की जाती है, उसके जीवन में तो जहर घुलता ही है, असलियत उजागर होने पर निंदा करने वाला भी घृणा का पात्र बन जाता है।

जगत में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जिसने निंदा रस का आनंद न लिया हो। इस रस के आगे नवरस फीके लगते हैं। कोई निंदा सुनकर और कोई स्वयं के मुँह से निंदा करके इसका रसास्वादन करता है और हम बहनें तो सदा से अच्छी निंदक के रूप में विख्यात रही हैं। थोड़ी-बहुत निंदा करना या सही बात उजागर करना तो जायज है, किंतु हमारे आसपास कई ऐसी बहनें हैं, जो बातों को बढ़ा-चढ़ाकर कहने के अवगुण से स्वर्ग जैसे घर को नरक बना देती हैं या वर्षों से प्रेम भाव से रह रहे घर-परिवार को पल भर में तोड़ देती हैं।

हमारी एक पड़ोसन हैं। उन्हें कभी किसी के व्यवहार से संतुष्टि नहीं होती। विशेषकर उनकी इकलौती बहू उनके इस व्यवहार से बहुत दुःखी होती है। बहू खाना स्वादिष्ट बनाए तो कहती है, 'मसाले ज्यादा डाले हैं, तो खाना स्वादिष्ट बनेगा ही।' उनके बच्चे बहुत समझदार हैं।

कोई उनकी प्रशंसा में दो शब्द कहेगा तो वे कहेंगी, 'एकदम मेरे बेटे पर गए हैं', किंतु यदि बच्चों ने कोई गलती की तो तपाक से बोलेंगी- 'बहू से यही सीख रहे हैं।' वैसे महिलाओं को आधुनिकता का पाठ पढ़ाएँगी किंतु बहू के सिर से पल्ला सरका तो सारे समाज में ढिंढोरा पीट देंगी।

बहू अपनी मर्जी से मायके में तोहफा देना तो दूर की बात, फोन भी नहीं कर सकती। किंतु सारी कॉलोनी में यह बात प्रसिद्ध है कि उनकी बहू मायके में घंटों फोन पर बतियाती है और घर की हर अच्छी चीज मायके भेज देती है। बहू को दिन में पति के साथ चंद लम्हे भी एकांत नहीं मिल पाता है, किंतु वे सदा दुःखी रहती हैं कि बहू-बेटा घंटों बतियाते रहते हैं!

ये सारी ऊल-जुलूल बातें करने के लिए वे अक्सर बहू की अनुपस्थिति में घर में पार्टी आयोजित करती हैं। मुझ जैसे उनके निकटस्थ लोग तो सच्चाई से परिचित हैं किंतु अन्य लोगों के मन में उनकी बहू की एक खलनायिका की छवि बन चुकी है। निंदा-रसिक मिलनसार, मृदुभाषी, वाक्‌पटु एवं तात्कालिक बुद्धि वाले होते हैं।

कलियुग की महिमा ही ऐसी है, कि झूठा, मसखरा, चाटुकार और निंदक ही सर्वप्रिय और हितैषी लगता है। ऐसे व्यक्ति आपके पड़ोसी, सहकर्मी या रिश्तेदार कोई भी हो सकता हैं। प्रथम श्रेणी में तो ऐसी हस्तियाँ होती हैं जो स्वयं के परिजन को निंदा का पात्र बनाती हैं, किंतु द्वितीय श्रेणी ऐसे लोगों की होती है जो दूसरों के परिवार में निंदा का विष घोलकर रिश्तों को कसैला बना देते हैं। तृतीय श्रेणी उन बहनों की है जो एक पड़ोसी से दूसरे पड़ोसी की निंदा करके तमाशा देखती हैं। यह चिनगारी एक दिन शोला बनकर संबंधों को स्वाहा कर देती है। निंदा रस एक प्रकार का व्यसन है, जिसने एक बार इसका रसपान किया वह इसका आदी हो जाता है। दूसरों का यश, संपत्ति, वैभव, सुंदरता देखकर इसकी उत्पत्ति होती है।

शिक्षित निंदक बड़े चालाक और छुपे रुस्तम होते हैं। इनको पहचान पाना मुश्किल होता है। ये फोन या पत्र के माध्यम से अपना शौक पूरा करते हैं। जिस तरह हमारे एक हाथ को दूसरे हाथ की खबर नहीं होती, उसी तरह रात-दिन साथ उठते-बैठते कार्य करते हुए भी हम निंदारसिक को पहचान नहीं पाते। ये लोग जब नैन मटकाकर, हाथों को नचा-नचाकर निंदा रस से सनी जिह्वा कुशलतापूर्वक चलाते हैं, तो अच्छे-अच्छे लोग उनके चक्रव्यूह में फँस जाते हैं।

किसी की निंदा करना सूर्य पर पत्थर मारने के समान है। निंदा जितनी सुखकारी और आनंददायी लगती है, उतनी ही अहितकारी है। कबीरदासजी ने भी कहा है कि स्वयं से बुरा कोई नहीं मिलेगा। अतः आप बबूल बोकर मीठे आम की कामना न करें। वरना आपकी कही मनगढ़ंत बातों की असलियत खुलने पर आप घृणा और धिक्कार के पात्र बन जाएँगे। इसलिए निंदा करने से पहले अच्छी तरह सोच लें तथा महाभारत रचाने वाले निंदकों से सदा दूर रहें।