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श्राद्धकर्म देवकर्म के समान ही शुभ !

श्राद्धकर्म देवकर्म के समान ही शुभ ! -
- योगिता विजय जोशी

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मृत्यु पश्चात दाहकर्म के बाद मृतात्मा को सबसे पहले दशगात्र पिंड दिए जाते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि यह शरीर का सूक्ष्म रूप (परिमाण अंगुष्ठ मात्र) होता है और मृतात्मा लोकांतर जाती है। जिसका श्राद्ध नहीं होता, वे वायुमंडल में भूत-पिशाच बनकर भटकते रहते हैं। अतः दशगात्र श्राद्ध द्वारा चावल आदि के पिंडों में सोम भाग पहुँचाने से श्रद्धारूप भाग का पोषण होता है, जिनसे पितरों का सोमभाग पूरा होता है और वे चन्द्रमंडल तक पहुँचने में सफल होते हैं।

तपस्वी, संन्यासी आदि देवयान से जाते हैं, उन्हें सोम द्वारा सूक्ष्म शरीर के पोषण की आवश्यकता नहीं होती, इसीलिए उनका दशगात्र श्राद्ध नहीं होता। पितृलोक के मार्ग में बढ़ते हुए सूक्ष्म शरीर के लिए श्राद्ध कर उसका पोषण किया जाता है और प्रतिदिन कुछ न कुछ देकर उसमें आई कमी की पूर्ति की जाती है, जैसा कि कहा गया है।

(अथर्ववेद .18/4/4. में)
यद् वो अग्निरजहादेकमंगं पितृभ्यो गमयन जातवेदाः।
तद् व एतत्‌ पुनरप्याययामि सांगापितरः स्वर्ग मादयध्वम्‌॥

अर्थात हे पितृलोक के पथिकों! अग्नि ने तुम्हारा एक शरीर जलाकर तुमसे छीन लिया है और सूक्ष्म शरीर से तुम्हें पितृलोक भेजा है। तुम्हारे उस छीने हुए शरीर को मैं पुनः पुष्ट कर देता हूँ। तुम अंगरहित बनकर स्वर्ग में आनंद करो। यह पिण्ड देने वाला पुत्र कहलाता है। पितृ प्राणों से ही देव-प्राण का उद्भव होता है और ये दोनों ऋषि-प्राण के विभाग हैं। अतः पितरों में देवों का वास है या देव अंश विद्यमान है।
  मृत्यु पश्चात दाहकर्म के बाद मृतात्मा को सबसे पहले दशगात्र पिंड दिए जाते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि यह शरीर का सूक्ष्म रूप (परिमाण अंगुष्ठ मात्र) होता है और मृतात्मा लोकांतर जाती है। जिसका श्राद्ध नहीं होता, वे वायुमंडल में भूत बनकर भटकते रहते है।      


आचार्यों ने श्राद्ध को श्रेष्ठ कर्म कहा है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार तो देवकर्म से भी बढ़कर श्राद्धकर्म है, अतः हमें श्रद्धा से इसे पवित्रतम काल मानना चाहिए। यहाँ तक कि घर-परिवार में मांगलिक कार्यों के अवसर पर भी श्राद्ध का विधान किया गया है, जो नांदीश्राद्ध कहलाता है। जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, वह स्वयं विष्णुजी की ही आराधना करता है। जो जल से भी तर्पण नहीं कर पाता, उसके पितर श्राद्धकाल में श्रद्धापूर्वक स्मरण से भी तृप्त होते हैं। इसलिए श्राद्ध में श्रद्धा आवश्यक है। श्रद्धा से ही श्राद्ध है।

इस काल में चन्द्रमा के उर्ध्वभाग से पितर पृथ्वी की ओर देखते हैं। पितरों के रूप में स्वयं विष्णुजी आते हैं, अतः इस काल में तर्पण, अर्चन करके प्रसन्ना रहना चाहिए। मनु ने भी पितरों में ऋषितत्व को स्वीकार किया है।

जब हम श्रद्धापूर्वक श्राद्धकर्म करते हुए पितरों का स्मरण करते हैं तो निमंत्रित ब्राह्मण में स्वयं पितर विराजमान होते हैं, जैसा कि रामायण में प्रसंग आया है कि भगवान राम ने महाराजा दशरथ का श्राद्ध किया। सीताजी ने अपने हाथ से सब सामग्री बनाई और निमंत्रित ब्राह्मण जब भोजन के लिए पधारे तो सीताजी कुटी में छिप गईं। बाद में राम के पूछने पर उन्होंने कहा कि आपके पिता को देखकर मैं आभूषणादि से रहित होने के कारण छिप गई। श्रद्धा से न केवल देवों का, बल्कि पितरों का दर्शन व आशीर्वाद भी प्राप्त किया जा सकता है।