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Written By WD

आप किसकी तरफ हैं : सुर या असुर?

आप किसकी तरफ हैं: बृहस्पति या शुक्राचार्य?

आप किसकी तरफ हैं : सुर या असुर? -
'दुविधा में दोउ गए, माया मिली न राम।' क्या आप सभी देवताओं को साधने में लगे हैं। आपका कोई एक ईष्ट नहीं है? आप दो विरोधी विचारधारा को एक साथ मानते हैं और उनका पालन करते हैं? निश्चित ही यह दो तरह के मार्ग हैं जिनमें से किसी एक पर ही चला जा सकता है। दोनों पर एक साथ चलने का प्रयास करने वाले कहीं भी नहीं पहुंच पाते हैं।

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दुनिया में दो ही तरह के धर्मों में प्राचीनकाल से झगड़ा होता आया है। एक वे लोग जो देवताओं के गुरु बृहस्पति के धर्म को मानते हैं और दूसरे वे लोग जो दैत्यों (असुरों) के गुरु शुक्राचार्य के धर्म को मानते आए हैं। उक्त दोनों से ही वैष्णव और शैव धर्म का जन्म हुआ और बाद में शाक्त और स्मार्त। हालांकि ये सभी सनातन हिन्दू धर्म के अंग हैं।

देवता और असुरों की लड़ाई जम्बूद्वीप के इलावर्त क्षे‍त्र में 12 बार हुई। देवताओं की ओर गंधर्व और यक्ष होते थे, तो दैत्यों की और दानव और राक्षस। अंतिम बार हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद के पुत्र राजा बलि के साथ इन्द्र का युद्ध हुआ और देवता हार गए तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया।

इस जम्बूद्वीप के बीच के स्थान में था इलावर्त राज्य। बाद में विष्णु ने वामन रूप धारण कर राजा बालि से तीन पग धरती मांग ली थी जिसके चलते देवताओं को फिर से उनका स्वर्ग मिल गया और बालि को विष्णु ने पाताल का राजा बना दिया। तब शुक्राचार्य को भी बालि के साथ पाताल जाना पड़ा।

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तो आप देवधर्मी नहीं : यदि आप रात्रि के क्रियाकांड करते हैं। तंत्र-मंत्र, जादू-टोने में विश्वास रखते हैं और तरह-तरह के झूठे देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। ग्रह-नक्षत्रों को पूजते हैं। मनमाने गुरुओं को ही ईश्वर मानकर पूजते हैं तो निश्चित ही आप देवताओं के धर्म की तरफ से नहीं हैं। आप तो नास्तिकों से भी गए-गुजरे हैं। इसका यह मतलब नहीं कि आप दैत्यों के धर्म से हैं। 'धाता' नामक देवता आप पर नजर रखे हुए हैं।

प्रमुख देवता : इन्द्र, धाता, पर्जन्य, त्वष्टा, पूषा, अर्यमा, भग, विवस्वान, विष्णु, अंशुमान, मित्र, आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष, प्रभाष, अश्विनीकुमार आदि।

देवधर्मी : देव धर्म के लोग सूर्य को प्रमुख देव और रविवार व गुरुवार को अपना सर्वश्रेष्ठ दिन मानते हैं। शुक्ल पक्ष में ही उनके धार्मिक कार्य होते हैं। उत्तरायण जब प्रारंभ होता है तब देवता जाग्रत हो जाते हैं। जब देवता जाग्रत रहते हैं तभी मांगलिक उत्सव शुरू होते हैं। हालांकि चंद्रमास अनुसार देवउठनी और देवशयनी का महत्व भी है।

एकादशी प्रमुख व्रत और कार्तिक प्रमुख माह है। वे सभी सौरमास के आधार पर चलते हैं। शाकाहार ही उनका भोजन है और चातुर्मास करते हैं। देवधर्मी लोग रात्रि में कोई भी मांगलिक या धार्मिक कार्य नहीं करते हैं। वे रात्रि में किसी भी देव की पूजा या आराधना भी नहीं करते हैं। वे सिर्फ संध्यावंदन करते हैं। प्रात: और शाम की संध्‍या ही प्रमुख हैं। वे ऋग्वेदी और यजुर्वेदी होते हैं। उनका प्रमुख मंत्र गायत्री है और प्रमुख देव विष्णु है।

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असुर धर्म : दैत्य धर्म के लोग चन्द्र को प्रमुख देव और सोमवार व शुक्रवार को अपना सर्वश्रेष्ठ दिन मानते हैं। चन्द्रमास के आधार पर ही उनके धार्मिक कार्य आयोजित होते हैं। अधिकतर ये लोग रात्रि के उत्सव मनाते हैं। ये सामवेदी और अथर्ववेदी होते हैं। उनका प्रमुख मंत्र है महामृत्युंजय और प्रमुख देव शिव है।

दूज और चतुर्थी प्रमुख व्रत और श्रावण प्रमुख मास है। मांसाहार से कोई परहेज नहीं। राक्षस भी असुरों की ओर से हैं। भगवान शिव ने ही अनाथ राक्षस सुकेश को पाला था और उसके कुल में ही रावण हुआ था।

दैत्यों की उत्पत्ति का रहस्य जानिए

प्रमुख असुर : दिति के दो प्रमुख पुत्र हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष थे। हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद। प्रह्लाद के कुल में विरोचन के पुत्र राजा बालि हुए। हिरण्यकश्यप के लिए नृसिंह, हिरण्याक्ष के लिए वराह और राजा बालि के लिए विष्णु को वामन अवतार लेना पड़ा। त्रिपुरासुर, मयासुर, महिषासुर, गयासुर, मधु, कैटभ आदि असुरों की कथाएं पुराणों में मिलती हैं।

भारत में असुर संस्कृति का बहुत जोर रहा, जो आज भी है। असुर जादू-टोना और मायावी शक्तियों द्वारा खुद की सत्ता को कायम करते आए हैं। असुर एकतंत्र में विश्‍वास करते थे। असुर धर्म प्रकृतिवाद और पैतृक पूजा का एक संयोजन है, लेकिन समय अनुसार इसमें परिवर्तन होता रहा। इस धर्म में बलि प्रथा का महत्व है। असुरों के कारण धरती पर अन्य कई धर्मों और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई।

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बृहस्पति : महाभारत के आदिपर्व के अनुसार बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र तथा देवताओं के पुरोहित हैं। अंगिरा हिन्दू धर्म के संस्थापकों में से एक हैं। महर्षि अंगिरा की पत्नी अपने कर्मदोष से मृतवत्सा हुईं। प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्माजी ने उनसे पुंसवन व्रत करने को कहा। सनत्कुमार से व्रत-विधि जानकर मुनि-पत्नी ने व्रत के द्वारा भगवान को संतुष्ट किया। भगवान विष्णु की कृपा से प्रतिभा के अधिष्ठाता बृहस्पतिजी उनको पुत्र रूप में प्राप्त हुए।

बृहस्पति के पुत्र कच थे जिन्होंने शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीखी। देवगुरु बृहस्पति की एक पत्नी का नाम शुभा और दूसरी का तारा है। शुभा से 7 कन्याएं उत्पन्न हुईं- भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली और हविष्मती। तारा से 7 पुत्र तथा 1 कन्या उत्पन्न हुईं। उनकी तीसरी पत्नी ममता से भारद्वाज और कच नामक 2 पुत्र उत्पन्न हुए। बृहस्पति के अधिदेवता इन्द्र और प्रत्यधिदेवता ब्रह्मा हैं और वे खुद भगवान विष्णु के भक्त हैं, लेकिन वे ब्रह्मवादी हैं।

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शुक्राचार्य : असुरों के पुरोहित शुक्राचार्य भगवान शिव के भक्त थे। भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था। आचार्य शुक्राचार्य शुक्र नीतिशास्त्र के प्रवर्तक थे। इनकी शुक्र नीति अब भी लोक में महत्वपूर्ण मानी जाती है। इनके पुत्र शंद और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहां नीतिशास्त्र का अध्यापन करते थे।

आरंभ में इन्होंने अंगिरस ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया किंतु जब वे अपने पुत्र के प्रति पक्षपात दिखाने लगे तब इन्होंने शंकर की आराधना कर मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते।

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दिति के पुत्रों को ही दैत्य या असुर कहा जाता है। कश्यप ऋषि की पत्नी दिति ने हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका नामक एक पुत्री को जन्म दिया। यह दोनों ही प्रमुख दैत्य थे जिन्होंने देवताओं से दुश्मनी पाली। हिरण्यकश्यप के लिए विष्णु को नृसिंह अवतार लेना पड़ा तो हिरण्याक्ष के लिए वराह। इन्हीं के कुल के राजा बालि के लिए वामन अवतार लेना पड़ा।

दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जो कि मरुन्दण कहलाए, लेकिन ये सभी उत्तम चरित्र होने के कारण अपने सौतेले भाई देवताओं की तरफ थे। हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष के कुल के लोगों ने ही देवताओं से अलग असुर धर्म और संस्कृति की स्थापना की। ये सभी शिव के उपासक होने के कारण बाद में शैव कहलाए।