साइबर स्पेस में प्रेमालाप
उमेश चौहान '
यूरेका! आखिर खोज ही लिया तुम्हें मैंने कैसी हो तुम?' इतना पूछकर,बहकने लगा था मैं पुरानी रौ में,'
वर्षों बाद मिली हो आजवैसी की ही वैसी दिखती होफ्रिज के ठंडे दूध पर जमी मलाई जैसी आकर्षककोकोनट क्रंचीज जैसी क्रिस्पजाड़े के लिहाफ़ जैसी गरमागरम,मैंने तो सोचा भी न था कभी कहीं अब मिल भी सकूँगा तुमसेआज अचानक मिल ही गई तुम ढूँढे़फेसबुक के साइबर स्पेस के इस कोने में।'स्मृतियाँ जैसे गुजरे वक्त कोपीछे की ओर फलाँगती जा रही थीं तेजी से,अमीनाबाद के कुल्फी-फालूदों का स्वाद,गड़बड़झाले की चूड़ियों की खनक,चौक की मशहूर हरी ठंडाई की मस्तीमंगलवार को हमारे युग्म करों से हिलाए गएहनुमान मंदिर के घनघनाते घंटे,गर्मियों की धूप और जाड़े की सुरसुरी मेंसजीली छतरी वाले रिक्शों में सिमट करशहर की गलियों में खाए गए हिचकोले,हजरतगंज की लव लेन में महसूसे गएखुशबुओं के झोंके,लखनऊ का हर खास अहसासअचानक जैसे छलक उठा होकंप्यूटर की स्क्रीन पर।सहसा सप्राण-सी होती लगीमेरे फेसबुक के पन्नों की निर्जीव सतहमुझे लगा,जैसे सदेह उतर आई हो तुम सामनेमेरे वेब-पृष्ठों की भित्ति पर अंकितअपने इन शब्दों के साथ,हाँ! तुम्हारी दोस्ती के ऑफर को कुबूल करती,यह मैं ही हूँ, तुम्हारे लिए वैसी की वैसीजैसे थी वर्षों पहले तुम्हारे इस शहर से चले जाने के समय,औरों के लिए भले ही बदल गया है सब कुछ,यह मन भी, यह तन भी,मेरी पहचान भी और यह शहर भी।'वर्षों पहले लखनऊ की भूलभुलैया में बिछुड़कर भटक गऋबाहर निकलने का रास्ता तलाशते हमारे प्यार को अब साइबर स्पेस के इस पुनर्जन्म में अभिव्यक्ति के नए आयाम मिलने जा रहे थे हमारे सपनों को जैसे अब नए पंख लगने वाले थे उम्रदराज चीटियों की भाँतिकाफी इंतजार के बाद निकलने वाले पंख,आग में कूद पड़ने को आतुर मन कोदाह-स्थल तक उड़ाकर ले जाने को बेताब पंख,अदृश्य, अलौकिक होंगे साइबर स्पेस में उगते हमारे सपनों के ये पंख,फेसबुक के पन्नों के बीच अब उड़कर समा जाया करेंगे हम दोनों एक-दूसरे के शब्दों के आगोश मेंनित्य, अशरीरइस दुनिया की नजरों से दूरअवशेष जीवन के नए अर्थ तलाशते,एक-दूसरे की सुरक्षित भित्तियों पर निरंतर लिखते हुए कुछ गुदगुदाने वाली बातेंऔर कंप्यूटर के सामने जाग्रत बैठकर साइबर-प्रेमालाप में बिताते हुए अपनी सारी कसमसाने वाली रातें