शुक्रवार, 29 मार्च 2024
  • Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. »
  3. धर्म-दर्शन
  4. »
  5. आलेख
Written By WD

भविष्य का धर्म एवं दर्शन- 1

स्वरूप एवं प्रतिमान

भविष्य का धर्म एवं दर्शन- 1 -
- प्रो. महावीर सरन जैन

ND
धर्म की आड़ में अपने स्वार्थों की सिद्धि करने वाले धर्म के दलालों ने अध्यात्म-सत्य को अंधी आस्तिकता के आवरण से ढँकने का प्रयास किया। इनकी चिन्ता का केन्द्र मनुष्य की वर्तमान समस्याओं का समाधान नहीं था। इन्होंने मनुष्य को स्वर्ग अथवा बहिश्त में पहुँचकर मौजमस्ती की जिंदगी बिताने की राह दिखाई और उपदेश दिया कि हमारे माध्यम से आराध्य के प्रति तन-मन-धन से समर्पण करो, पूर्ण आस्था, पूर्ण विश्वास, पूर्ण निष्ठा के साथ आराध्य की भक्ति करो। तर्क एवं विवेक को साधना पथ का सबसे बड़ा अवरोधक तत्व मान लिया गया।

धर्म के व्याख्याताओं ने संसार के प्रत्येक क्रियाकलाप को ईश्वर की इच्छा माना तथा मनुष्य को ईश्वर के हाथों की कठपुतली के रूप में स्वीकार किया। दार्शनिकों ने व्यक्ति के वर्तमान जीवन की विपन्नता का हेतु कर्म-सिद्धान्त के सूत्र में प्रतिपादित किया। इसकी परिणति मध्ययुग में यह हुई कि वर्तमान की सारी मुसीबतों का कारण भाग्य अथवा ईश्वर की मर्जी को मान लिया गया। धर्म के ठेकेदारों ने पुरुषार्थवादी मार्ग के मुख्य द्वार पर ताला लगा दिया। समाज या देश की विपन्नता को उसकी नियति मान लिया गया। समाज भाग्यवादी बनकर अपनी सुख-दुःखात्मक स्थितियों से सन्तोष करता रहा।

आज के युग ने यह चेतना प्रदान की है कि विकास का रास्ता हमें स्वयं बनाना है। किसी समाज या देश की समस्याओं का समाधान कर्म-कौशल, व्यवस्था-परिवर्तन, वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास, परिश्रम तथा निष्ठा से सम्भव है। इस कारण व्यक्ति, समाज तथा देश अपनी समस्याओं के समाधान करने के लिए तत्पर हैं, जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति एवं विकास की ललक बढ़ रही है।

वर्तमान जिन्दगी को सुधारने तथा सँवारने की अपेक्षा पहले के व्यक्ति को परलोक की चिन्ता अधिक रहती थी। उसका ध्यान स्वर्ग या बहिश्त में पहुँचकर सुख एवं मौज-मस्ती प्राप्त करने की तरफ अधिक रहता था। भौतिक इच्छाओं की सहज एवं पूर्ण तृप्ति की कल्पना स्वर्ग या बहिश्त की परिकल्पना का आधार बनी। आज के मनुष्य की रुचि अपने वर्तमान जीवन को सँवारने में अधिक है। उसका ध्यान भविष्योन्मुखी न होकर वर्तमान में है। वह दिव्यताओं को अपनी ही धरती पर उतार लाने के प्रयास में लगा हुआ है। वह पृथ्वी को ही स्वर्ग बना देने के लिए बेताब है।

विज्ञान ने दुनिया को समझने और जानने का वैज्ञानिक मार्ग प्रतिपादित किया है। विज्ञान ने स्पष्ट किया है कि यह विश्व किसी की इच्छा का परिणाम नहीं है। सभी पदार्थ कारण-कार्य भाव से बद्ध हैं। भौतिक विज्ञान ने सिद्ध किया है कि किसी पदार्थ का कभी विनाश नहीं होता, उसका केवल रूपांतर होता है। विज्ञान ने शक्ति के संरक्षण के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। पदार्थ के अविनाशिता के सिद्धान्त की पुष्टि की है। समकालीन अस्तित्ववादी दर्शन ने भी ईश्वर का निषेध किया है। आधुनिकता का मूल प्रस्थान-बिन्दु यह विचार है कि ईश्वर मनुष्य का सृष्टा नहीं है अपितु मनुष्य ही ईश्वर का सृष्टा है।

मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में ईश्वर प्रतिष्ठित था। आज की चेतना के केन्द्र में मनुष्य प्रतिष्ठित है। मनुष्य ही सारे मूल्यों का स्रोत है। वही सारे मूल्यों का उपादान है। विज्ञान द्वारा प्रतिपादित अवधारणाओं में, साम्यवादी दर्शन में तथा अस्तित्ववादी दर्शन में कुछ विचार-प्रत्यय समान हैं - तीनों ने ईश्वर का निषेध किया है तथा ईश्वर के स्थान पर मनुष्य की स्थापना की है। तीनों भाग्यवादी नहीं हैं, कर्मवादी तथा पुरुषार्थवादी हैं। तीनों में मनुष्य की जिन्दगी को सुखी बनाने का संकल्प है। अस्तित्ववादी दर्शन ने वैयक्तिक स्वतंत्रता की चेतना प्रदान की है। साम्यवादी दर्शन ने सामाजिक समता पर बल दिया है। विज्ञान, मार्क्सवाद, अस्तित्ववादी दर्शन तीनों की सीमाएँ भी हैं।

विज्ञान बुद्धि एवं तर्क मात्र के आश्रित है। मानवीयता एवं सामाजिकता केवल तर्क एवं बुद्धि से संगठित नहीं होते। उनके संगठन में तर्क एवं बुद्धि के अतिरिक्त कल्पना, मनोभाव एवं संवेगों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जीवन में केवल बुद्धिजगत के ही नहीं अपितु भावजगत के तत्व भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं।

मार्क्सवाद वर्ग संघर्ष पर आधारित है। साम्यवादी विचारधारा मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सम्बन्ध में अत्यन्त निर्मम तथा कठोर है। वर्ग संघर्ष एवं द्वंद्वात्मक भौतिकवादी चिन्तन के कारण वह समाज को बाँटती है। गतिशील पदार्थों की विरोधी शक्तियों के संघर्ष या द्वंद्व को जीवन की भौतिकवादी व्यवस्था के मूल में मानने के कारण सतत संघर्ष की भूमिका प्रदान करती है।

मानव जाति को परस्पर अनुराग एवं एकत्व की आधारभूमि प्रदान नहीं करती। मार्क्सवाद हिंसात्मक क्रांति में विश्वास करता है। जिस देश में हिंसात्मक क्रांति होती है वह प्रतिक्रिया में मानसिक उत्पीड़न को जन्म देती है। हिंसा के माध्यम से सत्ता पर कब्जा करने के बाद शासनाध्यक्ष के कोष में आत्म-स्वातंत्र्य शब्द की सत्ता समाप्त हो जाती है। सभी प्रकार की स्वतंत्रता का दमन किया जाता है।

पूर्वी यूरोप के समाजवादी गणराज्यों में जनता को समेटकर मजदूर वर्ग, फिर मजदूर वर्ग को कम्युनिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी को कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति का पोलित ब्यूरो, फिर कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्र समिति के पोलित ब्यूरो को कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति का सचिव मंडल तथा इस सचिव मण्डल को व्यक्ति विशेष की तानाशाही में केन्द्रित कर दिया गया था जिसके विरुद्ध जनक्रांतियाँ हुईं।

अस्तित्ववादी दर्शन यह मानता है कि मनुष्य का सृष्टा ईश्वर नहीं है और इसीलिए मानव-स्वभाव, उसका विकास, उसका भविष्य भी निश्चित एवं पूर्व मीमांसित नहीं है। मनुष्य वह है जो अपने आपको बनाता है। मानव को महत्व देते हुए भी अस्तित्वववादी-दर्शन समाज के धरातल पर अत्यन्त अव्यावहारिक है। वह यह मानता है कि चेतनाओं के पारस्परिक सम्बन्धों की आधार भूमि सामंजस्य नहीं अपितु विरोध है। व्यक्तियों के अस्तित्व वृत्तों के मध्य संघर्ष, भय, घृणा आदि भाव हैं। इस प्रकार अस्तित्ववादी दर्शन व्यक्ति और व्यक्ति के मध्य संघर्ष एवं अविश्वास की भूमिका मानता है।

आज के धार्मिक एवं दार्शनिक मनीषियों को वह मार्ग खोजना है जिससे मानव अपनी बहिर्मुखता के साथ-साथ अन्तर्मुखता का भी विकास कर सके। पारलौकिक चिन्तन व्यक्ति के आत्म विकास में चाहे कितना भी सहायक हो किन्तु उससे सामाजिक सम्बन्धों की सम्बद्धता, समरसता एवं सामाजिक समस्याओं के समाधान में अधिक सहायता नहीं मिलती है।

आज के भौतिकवादी युग में केवल वैराग्य से काम चलने वाला नहीं है। भौतिकवाद का अतिरेक भी मनुष्य को संतुष्ट नहीं कर पा रहा है। आज हमें मानव की भौतिकवादी एवं आध्यात्मिक दृष्टियों में संतुलन स्थापित करना होगा, भौतिक इच्छाओं का दमन नहीं, उनका संयमन करना होगा, स्वार्थ की कामनाओं में परमार्थ का रंग मिलाना होगा। आज मानव को जहाँ एक ओर इस प्रकार का दर्शन शांति नहीं दे सकता कि केवल ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है वहीं दूसरी ओर केवल भौतिक तत्वों की ही सत्ता को सत्य मानने वाला दृष्टिकोण भी जीवन के उन्नयन में सहायक नहीं हो सकता।

व्यक्ति धर्म को छोड़ना नहीं चाहता मगर परम्परागत धर्म उसके विज्ञानसम्मत विवेक को संतुष्ट नहीं कर पा रहा है। पाश्चात्य समाज ऐसे किसी धर्म की कल्पना नहीं कर पा रहा है जिसका स्वरूप ईश्वर के कर्त्तत्व के बिना विवेचित किया जा सके। परम्परागत धर्म की इस मान्यता को छोड़ना होगा कि यह संसार ईश्वर की इच्छा की परिणति है। हमें विज्ञान की इस दृष्टि को स्वीकार करना होगा कि सृष्टि रचना के व्यापार में ईश्वर के कर्त्तत्व की भूमिका नहीं है। सृष्टि रचना व्यापार में प्रकृति के नियमों को स्वीकार करना होगा।

आज हमें धर्म के केन्द्र में मनुष्य को प्रतिष्ठित कर उसके पुरुषार्थ एवं विवेक को जाग्रत करना है, उसके मन में सृष्टि के समस्त जीवों के प्रति अपनत्व भाव जगाना है। मनुष्य और मनुष्य के बीच आत्मतुल्यता की ज्योति जगानी है जिससे परस्पर समझदारी, प्रेम तथा विश्वास उत्पन्न हो सके। आज के मनुष्य को वही धर्म-दर्शन प्रेरणा दे सकता है तथा मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, राजनैतिक समस्याओं के समाधान में प्रेरक हो सकता है जिसके निम्न प्रतिमान हों-

वैज्ञानिक अवधारणाओं का परिपूरक हो, लोकतंत्र के आधारभूत जीवन मूल्यों का पोषक हो, सर्वधर्म समभाव का पर्याय हो, अन्योन्याश्रित विश्व व्यवस्था एवं सार्वभौमिक दृष्टि का प्रदाता हो तथा विश्व शांति एवं अंतरराष्ट्रीय सद्भावना का प्रेरक हो। (समाप्त)

भविष्य का धर्म एवं दर्शन