शुक्रवार, 29 मार्च 2024
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Written By WD

हे सखि! मधुमास आया...

हे सखि! मधुमास आया... -
- डॉ. अखिलेश बार्च

ND
कोयल की कूक बड़े दिनों बाद सुनाई पड़ी। कुदरत के कारिन्दे ने कुछ कहा। कहा क्या! खुशी की किलकारी भरी। निसर्ग ने मुनादी करा दी। ठिठुरना बंद, चहकना शुरू। कोहरे कुहासे के दिन कूच कर गए। प्रकृति ऊष्मावान होने लगी। दुग्धपान से तृप्त शिशु के कपोलों सा रक्ताभ दिवाकर, पूरब से पश्चिम तक यों घूमता है, मानो सोना उगल रहे फसलों से भरे पूरे खेतों का फेरा लगाने निकला कोई प्रफुल्ल मन, संपन्न किसान।

पेड़-पौधे सुविकसित हैं, पल्लवित, पुष्पित, फलों की बाढ़ को सँजोए हुए। डालियाँ भरी-भरी, गदराई, अपने ही भार से झुकी हुईं। उन पर तंदुरुस्ती की तरावट ही नहीं यौवन का उभार भी है। मधुपूरित पुष्पों की सुवास छुपाए नहीं छुप रही। उनकी महकती खुशबू झूमते पवन के वेगवान घोड़े ने गलियों-चौबारों, खेतों-खलिहानों, नदी-घाटियों व पर्वतों-मैदानों तक बिखरा दी है। शिशिर की शीत चुक गई, वसंत का लुभावना उत्ताप देहरी पर है-

हे सखि! मधुमास आया।

प्रकृति नवयौवना होकर दुल्हन की तरह सज गई है। मेहँदी-महावर, कुंकुम-कलश, अक्षत-रोली, माँडने-मंडप सब कुछ हैं। किसे पता दुल्हन के श्रृंगार ने ऋतुराज का आह्वान किया है या ऋतुराज के आगमन के संदेश से दुल्हन निखर उठी है। कवि कुलभूषण कालिदास अपने अनूठे श्रृंगारित प्रकृति वर्णन से परिपूर्ण 'ऋतुसंहार' में वासंती धरा को ही दुल्हन मानते हैं-
  बसंत है, फागुन है, रंग है, तो होली भी होगी ही। साल में एक बार बसंत आता है, एक ही बार फागुन भी आता है, लेकिन वासंती पवन और फागुनी बौछारें जीवन में वह रंग भर जाती हैं कि लोगों की स्मृतियाँ रंगीन हो जाती हैं और यदि रंग नहीं हो तो जीवन नीरस हो जाता है।      


आदीप्तवन्हिसध्शैर्मरुताऽवधूतैः, सर्वत्रकिंशुकवनैः कुसुमानम्रः
सद्यो वसन्तसमयेन समाचितेयं, रक्तांशुका नववधूरिव भाँति भूमिः।

वायु का झोंकों से कम्पित, लाल लपटों सी रंगत वाले पुष्पों से लदे वृक्षों को धारण किए वसुंधरा, यों लगती है मानों लाल जोड़े में सजी नववधू।

आम्रवृक्षों पर बौरों की बहार है। पराग गंध भ्रमरों को ही नहीं, वन प्रान्तर के प्राणीमात्र को मोहपाश में आबद्ध कर रही है, बौरा रही है। मधुमास ने हर कली को घूँघट उठाने का आह्वान कर, हर पुष्प को वर्णों-सुवासों से सुशोभित होने का न्योता दे दिया है।

फागुन आ गया। प्रेम अगन परवान चढ़ने लगी। चाँदनी सुहानी है, तो धूप दोस्तों सी है, मन की बात कहने लायक। फगुनाए मौसम ने जिंदादिल लोगों के पोर-पोर को प्रेम पूरित कर दिया है। मौसम की तरुणाई ही मदमस्त कर देने वाली है, अन्य आलम्बन की आवश्यकता क्या? जब प्रकृति स्वयं ही कविता करने लगी हो तो कवियों की कलम क्यों न चंचल हो। कविताएँ निर्झर-सी प्रवाहित होने लगी हैं।

भगोरिया सजने लगे हैं। फाग गाने वालों ने तान छेड़ दी। बंशी की धुन पुकारती है। माँदल की थाप पर पाँव थिरकने लगे हैं। गुलाल लगे, न लगे, लाजकी लाली ने कपोलों की अरुणिमा कानों तक खींच दी है। लगता है स्वयं वन देवता तरुण वेश में, ग्वालों ग्रामबालाओं के किसी टोले में थिरक रहे हैं।

नायक नायिका से मिलने को व्यग्र है, नायिका प्रियतम का प्यार पाने को आतुर। पवन झकोरे, पपीहरे की पुकार, कोयल की कूक, मन्मथ के संदेश से प्रतीत होते हैं, मात्र उत्कंठा के उत्प्रेरक। मन बावरा है, तन नर्तन को तैयार। जब प्रकृति रंग बिखेर रही है, तो प्रेमीमन पीछे कैसे रहें। बसंत है, फागुन है, रंग है, तो होली भी होगी ही। साल में एक बार बसंत आता है, एक ही बार फागुन भी आता है, लेकिन वासंती पवन और फागुनी बौछारें जीवन में वह रंग भर जाती हैं कि लोगों की स्मृतियाँ रंगीन हो जाती हैं और सचमुच, यदि रंग नहीं हो तो जीवन नीरस हो जाएगा।

भागम-भाग और तनाव अधुनातन जीवन के अविभाज्य अंग बन गए हैं। ऐसे में रंग भरे-उत्सव मन को तनाव मुक्त कर प्रफुल्लित करते हैं। महानगरों और शहरों में पले-बढ़े लोगों की निसर्ग से दूरी उनमें कई विकारों को जन्म देती है, जिनसे मुक्ति का उपाय है, सहज जीवन और प्रकृति की समीपता। प्रकृति हमें खुले हाथों लुटाती है। हेमंत, शिशिर, वसंत सभी का अपना वैभव है, पर उस वैभव का आनंद लूटने के लिए हमें निकलना होगा, सीमेंट व डामर की सड़कों को छोड़ पगडंडियों और कच्चे रास्तों पर, जहाँ टेसू के फूल गुच्छों के रूप में किसी ताज से सुशोभित हो रहे हैं।